हूण, शक आदि मध्य एशिया की मरुभूमि में रहने वाली बर्बर जातियाँ हैं, जो वहाँ पाचवीं शताब्दी में थीं।
हूण और शक जाति के लोग बड़े लड़ाकू योद्धा और निर्दय थे।
इन लोगों ने यूरोप को अपने आक्रमणों से बहुत बार उजाड़-सा दिया।
रोम का राज्य उनकी चढाईयों से नष्ट हो गया। चीन को भी अनेकों बार इन लोगों ने लूटा।
ये लोग भारी सेना लेकर जिस देशपर चढ जाते थे वहाँ हाहाकार मच जाता था।एक बार समाचार मिला कि बड़ी भारी हूणॊं की सेना हिमालय पर्वत के उस पार भारत पर आक्रमण करने के लिए इकट्ठी हो रही है।
उस समय भारत में सबसे बड़ा मगध का राज्य था।
वहाँ के सम्राट कुमारगुप्त थे।
उनके पुत्र युवराज स्कन्दगुप्त उस समय तरुण नहीं हुए थे। हूणॊं की सेना एकत्र होने का जैसे ही समाचार मिला, स्कन्दगुप्त अपने पिता के पास दौड़ हुए गये।
सम्राट कुमारगुप्त अपने मन्त्रियों और सेनापतियों के साथ उस समय हूणॊं से युद्ध करने की सलाह कर रहे थे। स्कन्दगुप्त ने पिता से कहा कि 'मैं भी युद्ध करने जाऊँगा।'
महाराज कुमार गुप्त ने बहुत समझाया कि 'हूण बहुत पराक्रमी और निर्दय होते हैं।
वे अधर्मपूर्वक छिपकर भी लड़ते हैं और उनकी संख्या भी अधिक है। उनसे लड़ना तो मृत्यु से ही लड़ना है। '
लेकिन युवराज स्कन्दगुप्त ऎसी बातों से डरनेवाले नहीं थे।
उन्होंने कहा-'पिताजी! देश और धर्म की रक्षा के लिये मर जाना तो वीर क्षत्रिय के लिए बड़े मंगल की बात है।
मैं मृत्यु से लड़ूँगा और अपने देशके क्रूर शत्रुओं द्वारा लूटे जाने से बचाऊँगा।महाराज कुमार गुप्त ने अपने वीर पुत्र को हृदय से लगा लिया।
स्कन्दगुप्त को युद्ध में जाने की आज्ञा मिल गयी।
उनके साथ मगध के दो लाख वीर सैनिक चल पड़े। पटना से चलकर पंजाब को पार करके हिमालय की बर्फ से ढकी सफेद चोटियों पर वे वीर सैनिक चढ गए।
भयानक सर्दी, शीतल हवा और बर्फ के तूफान भी उन्हें आगे बढने से रोक नहीं सके।
हूणॊं ने सदा दूसरे देशोंपर आक्रमण किया था।
कोई आगे बढकर उनपर भी आक्रमण कर सकता है, यह उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था।
जब उन्होंने देखा कि हिमालय की चोटीपर से भारी सेना उनपर आक्रमण करने उतर रही है तो वे भी लड़ने को तैयार हो गये।
उन्हें सबसे अधिक आश्चर्य यह हुआ कि उस पर्वत से उतरती सेना के आगे एक छोटी अवस्था का बालक घोड़ॆ पर बैठा तलवार लिए शंख बजाता आ रहा है। वे थे युवराज स्कन्दगुप्त।
युद्ध आरम्भ हो गया। युवराज स्कन्दगुप्त जिधर से निकलते थे, शत्रुओं को काट-काटकर ढेर कर देते थे।
थोड़ी देरके युद्ध में ही हूणॊं की हिम्मत टूट गयी। वे लोग इधर- उधर भागने लगे।
पूरी हूणसेना भाग खड़ी हुई।
शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जब युवराज स्कन्दगुप्त फिर हिमालय को पारकर अपने देशमें उतरे, उनका स्वागत करने के लिये लाखों मनुष्यों की भी वहाँ पहले से खड़ी थी।
मगध में तो राजधानी से पाँच कोसतक का मार्ग सजाया गया था।
उनके स्वागत के लिए पूरे देश में उस दिन उत्सव मनाया गया।यही युवराज स्कन्दगुप्त आगे जाकर भारत के सम्राट हुए।
आज के ईरान और अफगानिस्तान तक इन्होंने अपने राज्य का विस्तार कर लिया था।
इनके-जैसा पराक्रमी वीर भारत को छोड़कर दूसरे देशके इतिहास में मिलना कठिन है।
इन्होंने दिग्विजय करके अश्वमेघ यज्ञ किया था। वीर होने के साथ ये बहुत ही धर्मात्मा, दयालु और न्यायी सम्राट हुए थे।