चित्तौड़ के राज सिंहासन पर उस समय राणा लाखा विराजमान थे ।
अपने पराक्रम से युद्ध मे दिल्ली के बादशाह लोदी को उन्होने पराजित किया था उनकी कीर्ति चारों ओर फैल रही थी ।
राणा के पुत्रों मे चण्ड सबसे बड़े थे और गुणो मे भी ये श्रेष्ठ थे ।
जोधपुर के राठौर नरेश रणमल्लजी ने राजकुमार चण्ड के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने के लिए चित्तौड़ नारियल भेजा ।
जिस समय जोधपुर से नारियल लेकर ब्राह्मण राज सभा मे पहुँचा, राजकुमार चण्ड वहाँ नहीं थे ।
ब्राह्मण ने जब कहा कि 'राजकुमार के लिए मैं नारियल ले आया हूँ ; तब परिहास मे राणा लाखा ने कहा - मैने तो समझा था कि आप इस बूढ़े के लिए नारियल लाये हैं और मेरे साथ खेल करना चाहते हैं ।
राणा की बात सुनकर सब लोग हँसने लगे ।
राजकुमार चण्ड उसी समय राज सभा मे आ रहे थे ।
उन्होने राणा के शब्द सुन लिए थे ।
बड़ी नम्रता के साथ उन्होने कहा - 'परिहास के लिए ही सही, जिस कन्या का नारियल मेरे पिता ने अपने लिए 'आया' कह दिया, वह तो मेरी माता हो चुकी ।
मैं उसके साथ विवाह नही कर सकता ।'
बात बड़ी विचित्र हो गयी ।
नारियल को लौटा देना तो योधपुर नरेश तथा उनकी निर्दोष कन्या का अपमान करना था और राजकुमार चण्ड किसी प्रकार यह विवाह करने को तैयार नही होते थे ।
राणा ने बहुत समझाया, परन्तु चण्ड टस-से-मस नही हुए ।
जिस पुत्र ने कभी पिता की आज्ञा नहीं टाली थी, उसे इस प्रकार हठ करते देख राजा को क्रोध आ गया ।
उन्होने कहा - 'यह नारियल लौटाया नही जा सकता ।
रणमल्ल का सम्मान करने के लिए इसे मैं स्वयं स्वीकार करता हूँ ; किंतु स्मरण रखो कि इस सम्बन्ध मे कोई पुत्र हुआ तो चित्तौड़ के सिंहासन पर वही बैठेगा ।'
कुमार चण्ड को पिता की इस बात से तनिक भी दुख नही हुआ ।
उन्होने भीष्मपितामह की प्रतिज्ञा के समान प्रतिज्ञा करते हुए कहा - 'पिताजी ! मै आपके चरणो को छूकर प्रतिज्ञा करता हूंँ कि मेरी नयी माता से जो पुत्र होगा, वही सिंहासन पर बैठेगा और मैं जीवन पर्यन्त उसकी भलाई मे लगा रहुँगा ।
राजकुमार की प्रतिज्ञा सुनकर सब लोग उनकी प्रशंसा करने लगे ।
बारह वर्ष की राजकुमारी का पाणिग्रहण पचास वर्ष के राणा लाखा ने किया ।
इस नवीन रानी से उनके एक पुत्र हुआ , जिनका नाम 'मुकुल' रखा गया ।
जब मुकुल पाँच वर्ष के थे, तभी गया तीर्थ पर मुसलमानो ने आक्रमण कर दिया ।
तिर्थ की रक्षा के लिए राणा ने सेना सजायी ।
इतनी बड़ी पैदल यात्रा तथा युद्ध से जिवित लौटने की आशा करना ही व्यर्थ था ।
राजकुमार चण्ड से राणा ने कहा - 'बेटा मैं तो धर्म रक्षा के लिए जा रहा हूँ । तेरे इस छोटे भाई 'मुकुल' की आजिविका का क्या प्रबन्ध होगा ?
चण्ड ने कहा - 'चित्तौड़ का राज सिंहासन इन्ही का है ।' राणा नही चाहते थे कि पाँच वर्ष का बालक सिंहासन पर बैठाया जाय ।
उन्होने चण्ड को अनेक प्रकार से समझाना चाहा, परन्तु चण्ड अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहे ।
राणा के सामने ही उन्होने मुकुल का राज्याभिषेक किया और सबसे पहले उनका सम्मान किया ।
राणा लाखा युद्ध के लिए गये और फिर नहीं लौटे ।
राजगद्दी पर मुकुल को बैठाकर चण्ड उनकी ओर से राज्य का प्रबन्ध करने लगे ।
उनके सुप्रबन्ध से प्रजा प्रसन्न और सम्पन्न हो गयी ।
यह सब होने पर भी राजमाता को यह संदेह हो गया कि चण्ड मेरे पुत्र को हटाकर स्वयं राज्य लेना चाहते हैं । उन्होने यह बात प्रकट कर दी । जब राजकुमार चण्ड ने यह बात सुनी, तब उन्हे बड़ा दुख हुआ ।वे राजमाता के पास गये और बोले - 'माँ ! आपको संतुष्ट करने के लिए चित्तौड़ छोड़ रहा हूँ । किन्तु , जब भी आपको मेरी सेवा की आवश्यक्ता हो , मैं समाचार पाते ही आ जाऊंँगा ।'
चण्ड के चले जाने पर राजमाता ने जोधपुर से अपने भाई को बुला लिया ।
पीछे स्वयं रणमल्लजी भी बहुत से सेवकों के साथ चित्तौड़ आ गये । थोड़े दिनों मे उसकी नीयत बदल गयी ।
वे चित्तौड़ का राज्य हड़प लेने का षडयंत्र रचने लगे ।
राजमाता को जब इसका पता लगा, वे बहुत दुखी हुई । अब उनका कोई सहायक नहीं था ।
उन्होने बड़े दुख से चण्ड को पत्र लिखकर क्षमा माँगी और चित्तौड़ को बचाने के लिए बिलाया ।
संदेश पाते ही चण्ड अपने प्रयत्न मे लग गए । अन्त मे चित्तौड़ को उन्होने राठौर के पंजे से मुक्त कर दिया ।
रणमल्ल तथा उनके सहायक मारे गये तथा उनके पुत्र बोधा जी भाग गए । कुमार चण्ड आजीवन राणा मुकुल की सेवा मे लगे रहे ।