उस समय दिल्ली की गद्दी पर अलाउद्दीन खिलजी बादशाह होकर बैठा था ।
यह बहूत धूर्त तथा निष्ठुर बादशाह था ।
राजपूताने मे चित्तौड़ के सिंहासन पर उस समय राजा भीम सिंह विराजमान थे ।
अलाउद्दीन ने सुना कि राणा की महारानी पद्मिनी बहुत ही सुन्दर हैं ।
वह पद्मिनी को किसी भी प्रकार पाने के लिए बड़ी भारी सेना लेकर राजपूताने गया और चित्तौड़ से थोड़ी दूर पर उसने अपनी सेना का पड़ाव डाला ।
उस धूर्त ने राणा के पास संदेश भेजा - मैं पद्मिनी का प्रतिबिम्ब शीशे मे देखकर लौट जाऊंँगा ।
महाराणा भीम सिंह ने इतनी बात के लिए व्यर्थ रक्तपात करना अच्छा नहीं समझा ।
उनके बुलाने पर अलाउद्दीन दुर्ग मे आया । दर्पण मे रानी पद्मिनी का प्रतिबिम्ब उसे दिखा दिया गया ।
लौटते समय राणा उसे दुर्ग से बाहर तक पहुँचाने आए । दुर्ग से बाहर अलाउद्दीन ने पहले से ही सैनिक छिपा रक्खे थे ।
उन्होने राणा पर आक्रमण करके उन्हे पकड़ लिया और बन्दी बनाकर वे अपने शिविर में ले गये ।
राणा के बंदी हो जाने से चित्तौड़ के दुर्ग में हाहाकार मच गया।
बादशाह की सेना इतनी बड़ी थी कि उससे सीधे संग्राम करके विजय पाने की कोई आशा नहीं थी।
अन्तमें रानी पद्मिनी के मामा गोरा ने एक योजना बनायी।
अलाउद्दीन को संदेश भेजा गया-'रानी पद्मिनी बादशाह के पास आने को तैयार हैं, यदि उनके आ जाने पर बादशाह राणा को छोड़ दें।
रानी के साथ सात सौ दासियाँ भी आयेंगी।
शाही सैनिक उन्हें रोकें नहीं। बादशाह ने इस बात को बड़े उत्साह से स्वीकार कर लिया।
सायंकाल अन्धकार होने पर दुर्ग से सात सौ पालकियाँ निकलीं।
बादशाह के सैनिक विजय के उन्माद में उत्सव मना रहे थे। शाही सेनामें पहुँचकर रानी ने पहले राणा से भेंट करनी चाही और यह माँग भी स्वीकार हो गयी।
आप क्या सोचते हैं कि रानी पद्मिनी पालकी में बैठकर यवन बादशाह के पास आयी थीं? पालकी में रानी बना स्त्री-वेशमें छिपा अपने अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित रानी का बारह वर्ष का सुन्दर भानजा बालक बादल वहाँ आया था।
दूसरी पालकियों में भी राजपूत सरदार बैठे थे और पालकी उठाने-वाले कहारों के वेश में भी राजपूत योद्धा ही थे।
राणा को मुक्त करके घोड़ेपर बैठाकर कुछ सैनिकों के साथ दुर्ग की ओर उन्होंने भेज दिया और स्वयं अलाउद्दीन की सेना पर शस्त्र लेकर टूट पड़े।
गोरा इस सेना का सेनापति था।
बादल ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता दिखलायी। लेकिन मुट्ठी भर राजपूत समुद्र के समान विशाल शाही सेना से कबतक लड़ते। गोरा रणभूमि में काम आये।
दोनों हाथों से तलवार चलाकर यवन-सैनिकों को गाजर-मूलीकी भाँति काटता हुआ बालक बादल दुर्ग में पहुंच गया।
अलाउद्दीन चाहता था कि इस युद्धका समाचार दुर्ग में न पहुँचे।
अचानक आक्रमण करके वह पद्मिनी को पकड़कर दिल्ली ले जाना चाहता था; किंतु उस बारह वर्ष के बालक ने उसकी एक भी चाल चलने नहीं दी।
दुर्ग में समाचार पहुँचते ही राजपूत वीरों ने केसरिया बाना पहिना और निकल पड़े धर्म एवं मातृ-भूमि पर मस्तक चढाने। बड़ी कठिनाई से अलाउद्दीन को विजय प्राप्त हुई।
अपनी अधिकांश सेनाकी बलि देकर जब वह चित्तौड़ के पवित्र दुर्ग में घुसा, तब वहाँ बहुत बड़ी चिता धायॅं-धायॅं करके जल रही थी।
राजपूतनेकी देवियाँ पापी पुरुष के स्पर्श से बचने के लिये अग्नि में प्रवेश करके स्वर्ग पहुँच चुकी थीं। अलाउद्दीन ने अपना सिर पीट लिया। भारत की वह गौरव मयीं दिव्यभूमि सतियों के तेजके साथ वीर बालक बादलकी शूरता एवं बलिदान से नित्य उज्ज्वल है।