वीर बालक छत्रसाल

पन्नानरेश महाराज चम्पतराव बड़े ही धर्मनिष्ठ एवं स्वाभीमानी थे। इन्हींके यहाँ ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया वि० सं० १७०६ को बालक छत्रसालका मोर पहाड़ी के जंगल में जन्म हुआ । मुगल सम्राट शाहजहाँकी सेना चारों ओरसे घेरा डालनेके प्रयत्न में थी । छिपे रहना आवश्यक समझकर पुत्र के जन्मपर भी महाराजाने कोई उत्सव नहीं मनाया था । एक वार तो शत्रु इतने निकट आ गये कि लोगों को प्राण बचानेके लिये इधर-उधर छिपनेके लिये भागना पड़ा । इस भाग-दौड़में शिशु छत्रसाल अकेले ही मैदानमें छूट गये; किंतु-

       जाको राखै साइयाँ मार सकै नहिं कोय । 
       वाल न बाँका करि सकै जो जग बैरी होय।।   
          
        

बालक छत्रसालपर शत्रुओंकी दृष्टि नहीं पड़ी । भगवानने शिशुकी रक्षा कर ली । चार वर्षकी अवस्थातक इन्हें ननिहालमें रहना पड़ा और केवल सात वर्षकी अवस्थातक पिताके साथ रह सके। पाँच वर्षकी अवस्था में श्रीरामजी के मन्दिर में इन्होंने भगवान राम-लक्ष्मण की मूर्तियों को अपने-जैसा बालक समझकर उनके साथ खेलना चाहा और कहते हैं सचमुच भगवान इनके साथ खेले। पिताकी मृत्यु के पश्चात तेरह वर्षकी अवस्था तक छत्रसाल को ननिहाल में रहना पड़ा। इसके बाद वे पन्ना चले आये और चाचा सुजानराव ने बड़ी साबधानी से उन्हें सैनिक शिक्षा दी। अपने पिता का शौर्य छत्रसाल को पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हुआ था। अपने जीवन में उन्होंने पिता के संकल्प को पुर्ण किया। पन्ना-राज्य छत्रसाल को पाकर धन्य हो गया।

दिल्ली के सिंहासन पर औरंगजेब बैठ चुका था। उसके अन्याय का दौर सारे देश को आतंकित कर रहा था। छत्रसाल की अवस्था उस समय लगभग १३-१४ वर्ष की थी। विन्ध्यवासिनीदेवी के मन्दिर में मेला था। चारों ओर चहल-पहल थी। दूर-दूरसे लोग भगवती के दर्शन करने चले आ रहे थे। महाराज सुजानराव बुन्देले सरदारों के साथ वार्तालाप करनें में लगे थे। युवराज छत्रसाल ने जूते उतारे, हाथ-पैर धोये और एक डलिया लेकर देवीकी पूजा करने के लिये पुष्प चुनने वे वाटिकामें पहुँचे। उनके साथ उसी अवस्था के दूसरे राजपूत बालक भी थे। पुष्प चुनते हुए वे कुछ दूर निकल गये। इतने में वहाँ कुछ मुसलमान सैनिक घॊड़ॊंपर चढे आये। पास आकर वे घोड़े से उतर पड़े और पूछने लगे-'विन्ध्यवासिनी का मन्दिर किधर है?'

छत्रसाल ने पूछा-'क्यों, तुम्हें भी क्या देवी की पूजा करनी है?

मुसलमान सरदार ने कहा-'छिः, हम तो मन्दिर को तोड़ने आये हैं।

छत्रसाल ने फूलों की डलिया दूसरे बालक को पकड़ायी और गर्ज उठे-'मुँह सम्भालकर बोल! फिर ऎसी बात कही तो जीभ खींच लूँगा।'

सरदार हॅंसा और बोला-'तू भला क्या कर सकता है। तेरी देवी भी.....।' लेकिन बेचारे का वाक्य पूरा नहीं हुआ। छत्रसाल की तलवार उसकी छाती में होकर पीछे तक निकल गयी थी। एक युद्ध छिड़ गया उस पुष्प-वाटिका में। जिन बालकों के पास तलवारें नहीं थीं, वे तलवारें लेने दौड़ गये।

मन्दिर में इस युद्ध का समाचार पहुँचा। राजपूतोंने कवच पहने और तलवार सम्भाली; किंतु उन्होंने देखा कि युवराज छत्रसाल एक हाथ में रक्त से भीगी तलवार तथा दूसरे में फूलों की डलिया लिये हॅंसते हुए चले आ रहे हैं। उनके वस्त्र रक्त से लाल हो रहे हैं। अकेले युवराज ने शत्रु सैनिकों को भूमिपर सुला दिया था। महाराज सुजानरावने छत्रसाल को हृदय से लगा लिया। भगवती विन्ध्यवासिनी अपने सच्चे पुजारी के आज के शौर्य-पुष्प पाकर प्रसन्न हो गयीं।