बी.ए. की परीक्षा देने वह लाहौर गया था।
उन दिनों स्वास्थ्य बहुत ख़राब था।
सोचा, प्रसिद्ध डा0 विश्वनाथ से मिलता चलूँ। कृष्णनगर से वे बहुत दूर रहे थे।
सितम्बर का महीना था और मलेरिया उन दिनों यौवन पर था।
वह भी उसके मोहचक्र में फँस गया।
जिस दिन डा0 विश्वनाथ से मिलना था, ज्वर काफी तेज़ था। स्वभाव के अनुसार वह पैदल ही चल पड़ा, लेकिन मार्ग में तबीयत इतनी बिगड़ी कि चलना दूभर हो गया।
प्यास के कारण, प्राण कंठ को आने लगे।
आसपास देखा, मुसलमानों की बस्ती थी।
कुछ दूर और चला, परन्तु अब आगे बढ़ने का अर्थ ख़तरनाक हो सकता था।
साहस करके वह एक छोटी-सी दुकान में घुस गया। गांधी टोपी और धोती पहने हुए था।
दुकान के मुसलमान मालिक ने उसकी ओर देखा और तल्खी से पूछा-- "क्या बात है?"
जवाब देने से पहले वह बेंच पर लेट गया। बोला-- "मुझे बुखार चढ़ा है।
बड़े ज़ोर की प्यास लग रही है। पानी या सोडा, जो कुछ भी हो, जल्दी लाओ!"
मुस्लिम युवक ने उसे तल्खी से जवाब दिया-- "हम मुसलमान हैं।"
वह चिनचिनाकर बोल उठा-- "तो मैं क्या करूँ?"
वह मुस्लिम युवक चौंका। बोला-- "क्या तुम हिन्दू नहीं हो? हमारे हाथ का पानी पी सकोगे?"
उसने उत्तर दिया-- "हिन्दू के भाई, मेरी जान निकल रही है और तुम जात की बात करते हो। जो कुछ हो, लाओ!"
युवक ने फिर एक बार उसकी ओर देखा और अन्दर जाकर सोडे की एक बोतल ले आया। वह पागलों की तरह उस पर झपटा और पीने लगा।
लेकिन इससे पहले कि पूरी बोतल पी सकता, उसे उल्टी हो गई और छोटी-सी दुकान गन्दगी से भर गई, लेकिन उस युवक का बर्ताव अब एकदम बदल गया था।
उसने उसका मुँह पोंछा, सहारा दिया और बोला-- "कोई डर नहीं। अब तबीयत कुछ हल्की हो जाएगी।
दो-चार मिनट इसी तरह लेटे रहो। मैं शिंकजी बना लाता हूँ।"
उसका मन शांत हो चुका था और वह सोच रहा था कि यह पानी, जो वह पी चुका है, क्या सचमुच मुसलमान पानी था?