दिल्ली के मुगल बादशाह औरंगजेब के यहाँ उसके शिकारी जंगल से पकड़कर एक बड़ा भारी शेर लाये थे। शेर लोहे के पींजड़े में बंद था और बार-बार दहाड़ रहा था। बादशाह कहता था-'इससे बड़ा और भयानक शेर दूसरा नहीं मिल सकता।'
बादशाह के दरबारियों ने उसकी हाँ-में-हाँ मिलायी, लेकिन महाराज यशवन्तसिंह ने कहा-'इससे भी अधिक शक्तिशाली शेर मेरे पास है। बादशाह को बहुत क्रोध आया । उसने कहा-'तुम अपने शेर को इससे लड़ने को छोड़ो। यदि तुम्हारा शेर हार गया तो तुम्हारा सिर काट लिया जायगा। यशवंतसिंह ने बादशाहकी यह बात स्वीकार कर ली।
दूसरे दिन दिल्ली के किले के सामने के मैदान में लोहे के मोटे छड़ोंका बड़ा भारी पींजड़ा दो शेरों की लड़ाई के लिए रखा गया। शेरों का युद्ध देखने बहुत बड़ी भीड़ वहाँ इकट्ठी हो गयी। औरंगजेब बादशाह भी ठीक समयपर आकर अपने सिंहासन पर बैठ गया। राजा यशवन्तसिंह अपने दस वर्षके पुत्र पृथ्वीसिंह के साथ आये। उन्हें देखकर बादशाह ने पूछा-'आपका शेर कहाँ है?
यशवन्तसिंह बोले-'मैं अपना शेर अपने साथ लाया हूँ। आप लड़ाई आरम्भ होने की आज्ञा दीजिए।'
बादशाह की आज्ञा से वह जंगली शेर अपने पींजड़े से लड़ाई के लिए बनाये गये बड़े पींजड़े में छोड़ दिया गया। यशवन्तसिंह ने अपने पुत्र को उस पींजड़े में घुस जाने को कहा। बादशाह और वहाँ के सब लोग हक्के-बक्के से रह गए; किन्तु दस वर्षका बालक पृथ्वी सिंह पिता को प्रणाम करके हॅंसते-हॅंसते शेर के पींजड़े में घुस गया।
शेर ने पृथ्वीसिंह की ओर देखा। उस तेजस्वी बालक के नेत्रों को देखते ही एक बार वह पूँछ दबाकर पीछे हट गया, लेकिन शिकारियों ने बाहर से भाले की नोक से ठेलकर उसे उकसाया। वह शेर क्रोध में दहाड़ मारकर पृथ्वीसिंह पर कूद पड़ा। बालक पृथ्वीसिंह झटसे एक ओर हट गया और उसने अपनी तलवार खींच ली।
पुत्रको तलवार निकालते देखकर यशवन्तसिंह ने पुकारा - बेटा ! तू यह क्या करता है ? शेर के पास तो तलवार है नहीं, फिर तू उसपर क्या तलवार चलावेगा ? यह तो धर्मयुद्ध नहीं है ।
पिता की बात सुनकर पृथ्वी सिंह ने तलवार फेक दी और वह शेर पर टूट पड़ा । उस छोटे बालक ने शेर का जबड़ा पकड़ कर फाड़ दिया और फिर शेर के पूरे शरीर को चीरकर दो टुकड़े करके फेंक दिया ।
वहाँ की सारी भीड़ पृथ्वी सिंह का जय-जयकार करने लगा । शेर के खून से सना पृथ्वी सिंह जब पिंजरे से निकला तो यशवन्त सिंह ने दौड़कर उसे छाती से लगा लिया ।