मेरी भावना शुद्ध है

खुशवंत सिंह की संपूर्ण कहानियाँ - Khushwant Singh Short Stories

मैं अच्छा आदमी हूँ और मेरी भावना शुद्ध है ।

मैं उस तरह के अच्छे लोगों में हूँ जो जानते हैं कि बुराई क्या है, और वह क्या है जो पुरुषों को और स्त्रियों और बच्चों को भी-जो सब जन्म से अच्छे ही पैदा होते हैं लेकिन जो उन्हें बुरी परिस्थितियों के कारण बुरा बना देता है।

मैं असहिष्णु नहीं हूँ।

न मैं वैसा शुद्धतावादी हूँ जो ऐसे लोगों के खिलाफ़ फ़ैसले देता फिरूँ! जो बुरे दिनों का सामना करने के कारण बुराई का सहारा लेने के लिए विवश हो जाते हैं।

मैंने समाजशास्त्र की कई किताबें पढ़ी हैं जिनमें कहा गया है कि अपराध करने के कारण बहुत ज़्यादा जटिल हैं और उन्हें आसानी से अलग-अलग करके न फ़ैसले दिये जा सकते हैं, न सज़ा दी जा सकती है।

सच्चाई तो यह है कि मैं उस विचारधारा को मानता हूँ जिसके अनुसार हर अपराध समाज के खिलाफ़ टिप्पणी है, और जब-जब कोई आदमी या औरत फॉँसी पर चढ़ती है या जेल जाती है, तो हर बार यह समाज की विफलता का सूचक होती है।

मैं फ़ैसले नहीं देता।

मैं जानता हूँ कि ईश्वर के उपाय अनन्त हैं, और हम मनुष्यों को उन्हें उह्ण्डता से नहीं बल्कि नम्नता से समझने का प्रयास करना चाहिये।

अपने बारे में मेरा यह विवरण पढ़कर बहुत से लोग यह सोचेंगे कि मैं हमेशा दूसरों को उपदेश देनेवाला दम्भी हूँ, जो हर वक्‍त यह करो और यह मत करो कहता नज़र आता है।

लेकिन यह बात नहीं है।

यद्यपि मैं हमेशा मुस्कुराता रहता हूँ, लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि मैं अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता हूँ, बल्कि यह है कि चेहरा भावहीन बनाये रहने से अच्छा मुस्कुराते रहना है।

और मैं इसलिए भी बर्दाश्त के काबिल हूँ क्योंकि मैं बुरा करने वालों के ऊपर भी फ़ैसले नहीं देता, बल्कि उन लोगों से भी बचा लेता हूँ जो ऐसे फ़ैसले देते रहते हैं।

जैसा मैं पहले ही कह चुका हूँ, ईश्वर के ढंग अनन्त हैं; इसलिए किसी को यह कहने वाला कि उसने अच्छा किया या बुरा, मैं कौन होता हूँ ?

लेकिन इससे लोग यह भी सोच सकते हैं कि मैं आरामतलब आलोचक हूँ जो दूसरों के गुण-दोष तो निकालने से नहीं चूकते, पर खुद कभी कुछ व्यावहारिक काम नहीं करते।

लेकिन यह भी सही नहीं है।

मैं अपने साधारण ढंग से बहुत कुछ करता रहता हूँ।

अगर सड़क पर लोगों को लड़ते-झगड़ते देखता हूँ, तो उन्हें समझाने के लिए रुक जाता हूँ।

जब मैं किसी ताँगे की सवारी करता हूँ तो घोड़े को चाबुक नहीं मारने देता-और ताँगेवाले को डॉटता भी नहीं हूँ, क्योंकि पता नहीं किन घरेलू परेशानियों के कारण वह अपना गुस्सा चाबुक चलाकर निकाल रहा है।

जहाँ तक चोरी का सवाल है, मैं जानता हूँ कि मेरे नौकर चोरी करते हैं।

कई दफ़ा ये छोटी-छोटी चोरियाँ होती हैं जैसे मेरी छ्विस्की की बोतल से एक-दो घूँट पी लेना और उसकी जगह पानी डालकर उसे पूरा कर देना।

कई दफ़ा मेरे पर्स से पैसे निकाल लिये जाते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि कितने पैसे पर्स में हैं, इसका मुझे पता नहीं होगा, और एक-दो रुपये निकाल लेने से कुछ पता भी नहीं चलेगा ।

लेकिन मैं चतुराई से इसका उपाय कर लेता हूँ, जैसे खुद उसे हिक्की का पैग देकर या नौकर का वेतन बढ़ाकर या उसकी बीवी या बच्चे को अलग से एकाध रुपया देकर कि "तुम्हारा पति-या पिता-ज़्यादा नहीं कमाता, इसलिए तुम यह खर्च करो / इस तरह मैं न्याय की कोशिश करता रहता हूँ, और रात को चैन की नींद सोता हूँ।

अपने बारे में यह सब मैं इसलिए बता रहा हूँ कि इसके बिना आप मेरी यह कहानी, जो एक चोर की है और जिसे मैं अब बताने जा रहा हूँ, समझ नहीं सकेंगे।

कुछ दिन पहले ही कलकत्ता में यह घटना हुई। अगर आप कलकत्ता के बारे में ज़्यादा नहीं जानते तो मैं उसे भी बताये देता हूँ, क्योंकि कहानी में इसका भी महत्त्व है।

यह बड़ा शहर है-दुनिया के सबसे बड़े शहरों में एक यहाँ चालीस लाख लोग बहुत थोड़ी जगह में घुसे-बसे रहते हैं।

यहाँ बहुत ज़्यादा भीड़-भाड़ है, गंदगी है और भिखारी हैं।

यहाँ क्रूरता भी ज़्यादा है क्योंकि यहाँ के रहने वाले कष्ट सहने के अभ्यस्त हो गये हैं।

यहाँ हरेक आदमी अपने पड़ोसी के खिलाफ़ रहता है क्योंकि यहाँ पैसा ज़्यादा नहीं है और उन लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा है जिन्हें इसकी ज़रूरत है, इसलिए भिखारियों के अलावा रंडियाँ और फुटपाथों पर गुज़र-बसर करने वाले-जो हर गरीब शहर में होते हैं-बहुत ज़्यादा हैं, और चालबाज़ों, जेबकतरों और साधारण चोरों की भी कमी नहीं है।

यह घटना एक गर्मी की शाम के वक्‍त हुई जब ज़्यादातर लोग आराम कर रहे थे।

पैसेवाले अपने ठंडे किये गये कमरों में और गरीब छायादार फुटपाथों पर या पेड़ों की छाँह में ।

मुझे दिन में सोना पसन्द नहीं है, इसलिए मैं शहर में घूम-फिर रहा था। मैं एक फुटपाथ पर चल रहा था जो ट्राम की पटरियों और सड़क के बीच बना हुआ था।

एक तरफ़ चौरंघी की सजी-धजी दुकानें थीं और दूसरी तरफ़ बड़ा मैदान, जो इस महानगर का अकेला मैदान है। सड़क और मैदान खाली थे।

यहाँ आधी रात के समय जो रोशनी होती है, वैसी ही इस समय दिन में भी थी।

न मोटरें, न गाड़ियाँ, न रिक्शे, न राहगीर-बस, सड़क पर बिछे तारकोल से उठती गर्मी की चमक और सूखी हुई घास पर विशाल बरगदों की छाया में जगह-जगह लाशों की तरह लेटे बहुत से लोग। वहीं बहुत-सी टैक्सियाँ भी पार्क करके खड़ी थीं जिनके ड्राइवर खिड़कियों से बाहर पैर निकाले सीटों पर ही सो रहे थे।

अचानक एक पेड़ के नीचे शोर सुनाई दिया।

दो तगड़े सिख ड्राइवर बास्केट और खाकी निकर पहने एक छोटे से कद के बंगाली को पीट रहे थे। उनमें से एक ने उसकी दोनों बाँहें पीछे से पकड़ी हुई थीं और दूसरा बायें हाथ से उसके बाल पकड़कर दायें से उसे कस-कसकर मार रहा था, जिससे उसे खून भी निकलने लगा था-हर थप्पड़ के साथ वह गालियाँ भी बकता जाता था, जिसमें सिख किसान माहिर होते हैं।

“यह तेरी माँ के लिए...यह तेरी बहन को...यह बेटी को...और यह...

अचानक सारा इलाक़ा जाग उठा।

खिड़कियाँ खुलने लगीं और लोग चमक में आँखें मिचकाते हुए देखने लगे।

चारों तरफ़ से लोग दौड़कर और यह चिल्लाते हुए आने लगे कि इतना मत मारो...बन्द करो अब ! मैं भी उधर ही दौड़ा।

मैं सिख हूँ, इसलिए कुछ लोग मेरी तरफ़ आकर मुझे रोकने के लिए कहने लगे।

उनका खयाल था कि मेरा उन पर ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा।

सिख होते हुए भी मैं न लम्बा-चौड़ा और बड़ा हूँ और न हिम्मतवाला।

लेकिन किसी अच्छे उद्देश्य के लिए डरपोक आदमी में भी हिम्मत पैदा हो जाती है, और सच कहूँ तो मैं उतना ज़्यादा डरपोक कभी नहीं हूँ।

आखिरकार सिख हूँ। मैं तेज़ी से आगे बढ़ा, भीड़ का घेरा तोड़कर भीतर पहुँचा और मारने वाले सिख का हवा में उठा हाथ कसकर पकड़ लिया।

“इसे मारना बन्द करो । कया तुम इसे मार ही डालोगे ? मैं गुस्से से चिल्लाया।

अपने दूसरे हाथ से मैंने दूसरे सिख की जकड़ से बंगाली के बालों को छुड़ा लिया । बेचारा बंगाली ज़मीन पर बैठ गया, उसने मेरे पैर कसकर पकड़ लिये और अपना सिर मेरे घुटनों में घुसा दिया। इसके बाद वह चीख-चीखकर रोने लगा।

'मुझे इन लोगों से बचा लो...भगवान के वास्ते...दोनों सिख मेरे दोनों तरफ़ आ खड़े हुए। दोनों मुझसे एक-एक फुट ऊँचे थे। उनके बाल भी मुझसे ज़्यादा थे और देखने में भी खूँखार थे।

'तुसी कौन हो जी ?

'ममैं कोई नहीं हूँ, लेकिन मैं तुम्हें इस ज़रा से आदमी को मारने नहीं दूँगा। तुम्हें शरम नहीं आती?” 'शरम? एक ने मुँह टेढ़ा करके कहा। 'तुसी जानदे हो ए कौन है ? “नहीं, और जानना भी नहीं चाहता। लेकिन तुम्हें मारने नहीं दूँगा ।'

अच्छा ?

हाँ, मैंने चिल्लाकर कहा।

बंगाली रोये जा रहा था। 'मुझे बचा लो। बचा लो, भगवान के...

“यह चोर है,' दूसरा सिख बोला, “मेरी गाड़ी के पहिये के वाल्व चुरा रहा था, मैंने रंगे-हाथों पकड़ा है / उसने दो वाल्व जेब से निकालकर अपनी हथेली पर रखे और सबको दिखाये, फिर अपनी हथेली मेरी नाक के सामने लगा दी।

देखो ।

उसने फिर उस आदमी के बाल पकड़ लिये और मेरे घुटनों के बीच से उसका सिर खींचने लगा। “तुम ये नहीं चुरा रहे थे, सुअर की औलाद? मैंने पिछले पहिये पर तुम्हारा हाथ नहीं पकड़ा था? इन्हें बता, नहीं तो मैं तुम्हारी माँ को...'

'मुझे बचाओ, बचाओ, भगवान के...” वह डर से काँप रहा था। उसके गालों पर घाव हो गये थे और होंठों से खून टपक रहा था।

तुमने ये चीज़ें चुराई ?” अब मैंने भी उससे पूछा और सिख के हाथ से उसका सिर छुड़ा लिया। उसने फिर अपना सिर मेरे घुटनों में घुसेड़ो की कोशिश की और रोकर बोला, "मैंने नहीं चुराया। मुझे इनसे बचा लो, बचा लो...”

दूसरे सिख ने उसे पीछे से लात मारी। 'झूठे,' वह ज़ोर से चीखा। “दुनिया का सबसे बड़ा झूठा। मैंने अपनी आँखों से देखा ।'

दोनों ने उसे बाहर खींच लिया, दो थप्पड़ मारे और उसके कपड़ों की तलाशी लेने लगे । उसकी जेबों से वाल्व ही नहीं, गाड़ियों की और भी बहुत सी चीज़ें एक-एक करके निकलने लगीं। उन्होंने ये सब सबको दिखाई।

“अब समझ में आ रहा है त्वाडी ?

यह प्रश्न मेरे लिए था। लेकिन बंगाली फिर मेरे पैरों में छिपने की कोशिश करता रहा और चीखता रहा।

'तुमने यह चोरी क्‍यों की ?' मैंने पूछा, 'मैं भूखा था। तीन दिन से कुछ खाने को नहीं मिला था ।

'झूठ बकता है,' एक सिख फिर चिल्लाया। 'पहले कहता है कि मैंने नहीं चुराये, अब कहता है तीन दिन से कुछ नहीं खाया। क्या यह तीन दिन का भूखा लगता है, ज़रा देखिये ?”

एक बार फिर उसे दर्शकों के सामने पेश किया गया। वह भूखा तो नहीं लगता धा-लेकिन तीन दिन में किसी की हड्डियाँ तो नहीं निकल आतीं। और तीन दिन की भूख से आदमी क्‍या हो जाता है, यह कौन बता सकता है ?

“आपका जो नुकसान हुआ है उसे मैं भर दूँगा,' मैंने अन्त में घोषणा की, और गर्व से ऊपर देखा।

“हमें आप का पैसा नहीं चाहिये,' ड्राइवर ने कहा, 'यह चोर है और झूठा भी है। हम इसे पुलिस में देने जा रहे हैं। तब इसे चोरी करने का अंजाम पता चलेगा ।'

दर्शकों को यह बात सही लगी। “आजकल चोरियाँ बहुत बढ़ गई हैं और जब तक इन्हें सख्त सज़ा नहीं दी जाती, शहर में शान्ति नहीं होगी / यह जैसे एक चुनौती थी । यह आदमी चोर था । शायद यह पाकिस्तान से आये लाखों शरणार्थियों में से एक हो जो पेट भरने के लिए शहरभर में घूमते-फिरते हैं। शायद इस आदमी की बीवी और बच्चे भी हों, जो अगर यह जेल चला गया, तो भूखे मरने लगेंगे।

'भाइयो, मेरी बात सुनो, मैंने लोगों से कहा, 'यपह आदमी चोर है, और झूठा भी है। लेकिन अब इसे काफ़ी सज़ा मिल चुकी है। अब इसे जेल क्‍यों भेज रहे हैं? इसके बीवी-बच्चों का क्‍या होगा ?

चोर ने मेरी बात की पुष्टि की। 'हाँ,' वह ज़ोर से बोला, 'मेरी बीवी और तीन बच्चे भूखे मर जायेंगे। मैंने ऐसा काम पहले कभी नहीं किया। मेरे बच्चे भूखे मर जायेंगे। इस दफ़ा माफ़ कर दीजिए, फिर कभी नहीं चुराऊँगा ।'

“यह झूठ बोल रहा है,' दर्शकों में से एक आदमी बाहर निकलकर कहने लगा। 'मैंने इसे इसी मैदान में कुछ महीने पहले चोरी के लिए गिरफ़्तार किये जाते देखा है। तुम पहले नहीं पकड़े गये थे ?”

उसने फिर मेरे पैर पकड़ लिये और पहले से ज़्यादा ज़ोर-ज़ोर से चीखने-चिल्लाने लगा। उसके पास कोई जवाब नहीं था। मेरे पास भी नहीं था। वह पक्का चोर और झूठा, दोनों ही था।

उसके शायद परिवार था ही नहीं, अगर था भी, तो वे उसके जेल आने-जाने के अभ्यस्त हो गये होंगे, यह समाज के लिए खतरा है और इसे कहीं बन्द करके रखना ही सही है।

लेकिन मैंने उसे और मारने-पीटने नहीं दिया। उन्होंने अपनी पगड़ियों से उसके दोनों हाथ पीठ के पीछे बाँधे और उसे पुलिस स्टेशन ले गये। मैं उसकी चीख-पुकार सुनता रहा। वे नुक्कड़ से आगे बढ़ गये तो आवाज़ बन्द हो गई। मैंने अपना कर्तव्य कर दिया था, और मेरी भावना शुद्ध थी। मैंने अपने दिमाग से यह घटना निकालने की कोशिश की।

हो सकता है कि उसकी कोई बीवी भी हो जो किसी पुल के नीचे भिखारियों के साथ रहती हो? नहीं! वह झूठ बोलता था, और उसकी किसी बात पर यकीन नहीं किया जा सकता। मैंने अपना कर्तव्य निभा दिया था। मेरी अन्तरात्मा साफ़ धी।

मैं होटल लौट आया और एक बड़ा पैग स्कॉच और सोडा लाने का ऑर्डर दिया। मेरे सामने भरे हुए गिलास में बर्फ़ तैरने लगी।

मुझे अच्छा लगने लगा। कहीं उसके बच्चे तो भूख से नहीं तड़प रहे ? मैंने एक और पैग मँगाया। उसके बच्चे होंगे ही नहीं।

उस जैसे आदमी पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? मैंने अपना कर्तव्य कर दिया था। मेरी आत्मा साफ़ थी।

मैंने एक, दो, तीन और चार पैग लिये और 6 रुपये के बिल पर दस्तखत किये। अब डिनर के लिए मेरी भूख खत्म हो गई थी और मैं एयर-कंडीशन्ड बेडरूम में सोने चला गया।

मुझे उससे यह पूछना चाहिये था कि उसके बीवी-बच्चे रहते कहाँ हैं।

मैं उन्हें बचा सकता था और ये 6 रुपये उन्हीं को दे सकता था। लेकिन मैं एक चोर और झूठे के लिए इतना परेशान क्‍यों हो रहा हूँ ? मैंने अपना कर्तव्य किया और मेरी आत्मा साफ़ है। अब मैं आराम से सो जाऊँगा।

मैंने रात के कपड़े पहने।

पैंट तह करके तकिये के नीचे रख दी जिससे उस पर इस्तरी हो जाये।

फिर मैंने अपने घुटनों पर नज़र डाली जहाँ बंगाली चिपट रहा था। वहाँ खून के निशान थे।