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खुशवंत सिंह की संपूर्ण कहानियाँ - Khushwant Singh Short Stories

हलो हलो, हलो,'-उसने अपनी बाँहें आगे बढ़ाते हुए कहा ।

फिर उसने मुझे अपने आगोश में कसकर जकड़ लिया और बार-बार आलिंगन करके अपना प्यार जताया।

'हलो,' मैंने दबी आवाज़ में उसका जवाब दिया और उसके चंगुल से अपने को मुक्त करने की चेष्टा की।

'कैसे हो मेरे दोस्त ?” उसने मुझे कई बार इतने ज़ोर-ज़ोर से थपथपाया कि मेरे बनावटी दाँत हिलने शुरू हो गये । '

कैसा - योरेन्स चल रहा है ? बीवी कैसी है, और बच्चे ? और नस सब ठीक है ?

थैंक यू, बैंक यू.' मैंने नम्नता से कहा और अपने दाँत वापस जगह पर लगाये।

'सब ठीक है। थैंक यू” क्या उसने मुझे कोई और समझ लिया था ?

मैं तो कुँवारा था और इज़्ज़तदार कुँवारा। बच्चे तो मेरे थे ही नहीं।

“अच्छी बात है-अच्छी बात है.' वह कहता रहा। लेकिन अब वह मुझे देख नहीं रहा था। वह पार्टी के लिए जमा लोगों का जायज़ा ले रहा था, और बेध्यानी से "ठीक है, ठीक है” कहता जा रहा था।

एक दोस्त, जिसने मुझे देख लिया था, मेरे पास आया। इससे पहले कि वह मुझसे बात करता, इस अजनबी ने “आह” भर के उसे भी बाँहों में भर लिया और 'हलो, हलो, हलो” कहकर गले से लगा लिया।

उसने मेरे मित्र की पीठ ठोंकी और उसकी बीवी और बच्चों के बारे में पूछने लगा। मेरे मित्र ने हाँ, हाँ, ठीक हैं' कहकर जवाब दिया।

लेकिन वह भी कुँवारा था और मेरी जानकारी के अनुसार उसका किसी से सम्बन्ध भी नहीं था। “यह आदमी कौन है ?

मैंने अपने मित्र से पूछा, जब वह कमरे में दूसरी तरफ़ चला गया ।

मैंने इसे कभी देखा भी नहीं,' वह बोला “मैं तो समझा तुम्हारा कोई पुराना दोस्त है--जिस तरह वह तुमसे बात कर रहा था।'

और तुमसे भी तो ऐसे ही बात की,' मैंने जवाब में कहा। “चलो मेज़बान से पूछते हैं।'

हम भीड़ से रास्ता बनाते हुए मेज़बान की तरफ़ गये। मेरे मित्र ने पूछा, यह तुम्हारा दोस्त कौन है ?” वह आदमी इस वक्‍त एक और को अपने बन्धन

से मुक्त कर रहा था और किसी और को जकड़ने के लिये 'हलो, हलो, हलो” करता आगे बढ़ रहा था ?

'मज़ेदार आदमी है,' मेज़बान ने कहा। "मैंने तो समझा कि तुम उसे लाये हो “बिलकुल नहीं,' मेरे दोस्त ने कहा। “मैंने तो कभी इसे देखा ही नहीं। किसी और के साथ आया होगा 'हो सकता है....' मेज़बान ने माफ़ी-सी माँगते हुए कहा। खैर, कोई बात नहीं। लगता है वह बहुतों को जानता है। मेरे दोस्तों के दोस्तों का हमेशा मेरे यहाँ स्वागत है, खासतौर पर, अगर वे दोस्ताना व्यवहार करते हों..

दोस्ताना व्यवहार' सही शब्द नहीं था। यह आदमी हरेक के साथ ज़्यादा ही रोमांस करता लगता है। अब तक उसने हर आदमी का आलिंगन कर लिया था और दरवाज़े पर हमारी तरफ़ चला आ रहा था।

क्यों! यार. यह कहकर उसने मेज़बान को बाँहों में भर लिया और कहने लगा, शानदार पार्टी है। बड़ी शानदार। मुझे निमन्त्रित करने के लिये धन्यवाद । अब मैं निकलता हूँ। और भी दो पार्टियों में जाना है। मैं जानता हूँ कि वे इतनी शानदार नहीं होंगी, लेकिन जाना तो है ही। गुड बाय ।' उसने दोनों हाथ हिलाये, फिर चारों तरफ़ देख कर “गुड बाय ऑल' कहा, और वहाँ से गायब हो गया।

“यह कौन था ? यह सवाल पार्टी का हर आदमी एक-दूसरे से पूछ रहा था। लगता था कि उसे कोई भी नहीं जानता था। अगर कोई नहीं जानता था तो वह पार्ट में आया कैसे ? इसका भी किसी के पास जवाब नहीं था। दुर्भावपूर्ण लोग उसे गेट क्रैशर कहते थे-जो हर जगह ज़बर्दस्ती घुस पड़ते हैं। पर यह जैसा मैं हमेशा कहता हूँ, दुर्भावपूर्ण लोग ही कहते हैं।

वह शहर में नया ही आया था, लेकिन उस दिन से हमें वह हर जगह दिखाई देने लगा-घरेलू पार्टियों में, सरकारी कार्यक्रमों में, राजनीतिक सभाओं में, धार्मिक आयोजनों में, सामाजिक कार्यक्रमों में, शादियों में, धार्मिक संस्कारों में, शव यात्राओं में। वह हर जगह आकर्षण का केन्द्र होता था।

उसकी जोश से भरी 'हलो, हलो, हलो' हर जगह सामान्य बातचीत से ऊपर सुनाई देती थी।

मिस्टर स्वामी-समाचार पत्रों में हर रोज़ उसका यही नाम छपता था-प्रेस का भी बड़ा प्रिय था। वह हर कार्यक्रम में उपस्थित रहता धा-कोई भी कार्यक्रम ऐसा नहीं होता था जहाँ वह दिखाई न दे-और सबके फोटोेग्राफ़ों में वह सबसे आगे खड़ा नज़र आता था-मेहमानों का स्वागत करता, भले ही वे मेज़बान के परिचित हों या न हों, लोगों को मालाएँ पहनाता-भले ही माला पहनाने का अवसर हो या न हो-, और प्रमुख लोगों से उसी समय बातें करता जब उनकी फोटो खींची जा रही हो। दरअसल मिस्टर स्वामी और प्रेस फ़ोटोग्राफ़रें के बीच कोई टेली-पैथिक सम्बन्ध बन गया लगता था।

जब कभी वह अपनी मूँछों को मोड़कर ऊपर करता, तब आपके लिए यह मानना ज़रूरी हो जाता था कि कोई फोटोग्राफ़र उसके सामने है। इसके बाद वह अपनी टाई ठीक करता। जब वह किसी से बात करते-करते अचानक चुप हो जाये तो आपको मान लेना पड़ता कि उसके दिमाग़ में कहीं से गुप्त सन्देश आ गया है कि फ़ोटोग्राफ़र आ रहा है ।

वह आपका वाक्य अधूरा छोड़कर किसी तरफ़ अपनी बाँहें उठाये किसी को भी गले लगाने के लिए चल पड़ता। कैमरे का शटर दबते ही वह अपना काम कर लेता। वह कभी फ़ोकस से बाहर नहीं होता धा। अगर कोई यह नहीं जानता होता कि मिस्टर स्वामी कौन है, तो वह तुरन्त उसकी सहायता करता । फिर कहता, 'फोटो मुझे भी भेजना। मेरा नाम स्वामी है-एस.डब्ल्यूए.एम.आई.-समझे, स्वामी । और यह मेरा कार्ड है ।'

दुर्भावपूर्ण लोग कहते थे कि मिस्टर स्वामी को प्रचार प्रिय है और वह अखबार में छपने वाले फोटो की कीमत भी अदा करता है। लेकिन मेरा तो यही कहना है कि दुर्भावपूर्ण लोग ऐसी ही बातें करते हैं। मिस्टर स्वामी तो हमेशा यही कहता था कि उसे प्रचार पसन्द नहीं है, और वह ऐसे लोगों का मज़ाक भी उड़ाता था, और वह फ़ोटोग्राफ़रों को पैसे दे, इसकी भी कोई वजह नहीं थी । वह हर महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को जानता था, और उसकी बातचीत में हर महत्त्वपूर्ण आदमी का नाम आता ही रहता था। ऐसा हर आदमी उससे सलाह-मशविरा करता ही रहता था और उसकी राय का फ़ायदा भी उठाता था।

जैसा मैंने अपनी पिछली लंदन यात्रा में विंस्टन से कहा,' अन्तरराष्ट्रीय विषयों पर कुछ कहते हुए उसका पहला वाक्य यही होता था।

“कौन विंस्टन ? कोई डरते-डरते पूछ बैठता।

तुम विंस्टन को नहीं जानते ? विंस्टन चर्चिल, और कौन ? मेरे पुराने दोस्त हैं। सालों से जानता हूँ उन्हें !' मैंने उससे कहा, 'सुनो, विनी, अगर तुम युद्ध जीतना चाहते हो, तो तुम्हें यह करना चाहिये ।'

यह स्वामी की राय थी जो उसने विंस्टन चर्चिल को दी। चर्चिल ने उसकी बात को समझा और कहा कि आप और नेताओं को भी यह बतायें। अन्तरराष्ट्रीय विषयों पर मिस्टर स्वामी की चर्चाओं में विंस्टन, जो, फर्डिनेंड, ईमन, आइक और दूसरों के नाम टपकते ही रहते थे। इसी तरह वह राष्ट्रीय और उद्योग-व्यापार के विशिष्ट लोगों को भी जानता था। दरअसल वह महत्त्वपूर्ण ईसाई नाम इस तरह मुँह से निकालता रहता था जैसे पान की पीक जिसे वह बार-बार बाहर थूकता चला जाता था।

दुर्भावपूर्ण लोगों के अनुसार मिस्टर स्वामी घमण्डी था । लेकिन ऐसे लोग हमेशा ऐसी ही बातें करते हैं।

मिस्टर स्वामी हम जैसे मामूली लोगों से भी बात करने में परहेज़ नहीं करता था और ज़रूरत पड़ने पर अपनी समस्याओं पर भी हमसे राय लेता था। तब वह हमारे कन्धे पर हाथ रख कर कहता, 'सुनो, मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ--अकेले में फिर वह रहस्यभरी वाणी में पूछता, यह फ्रांस कैसी जगह है, यहाँ आप बहुत दिन तक रहे हैं। ज़रूर जानते होंगे ।'

'फ्रांस' हम कहते, "अच्छी जगह है। बहुत अच्छी जगह है। क्या आप वहाँ जा रहे हैं ?”

मिस्टर स्वामी मुस्कुराता-'छुट्टी मनाने ? मेरे पास छुट्टी मनाने का वक्‍त कहाँ है ? लेकिन यह बात अपने तक ही रखना। मैंने अभी फ़ैसला नहीं किया है।'

मिस्टर स्वामी ने दूसरों से भी अमेरिका, इंग्लैंड स्कैन्डिनेवियाई देश, इटली और स्विट्जरलैंड के बारे में इसी तरह पूछताछ की थी, और उन्हें भी इसी तरह यह बात ज़ाहिर न करने का आग्रह किया था, क्योंकि अभी तक वह पक्का नहीं कर पाये थे। हम नहीं जानते थे कि पक्का करने के लिए उन्हें और क्‍या चाहिये था। क्या उन्हें राजदूत का पद दिया जा रहा था ?

उन्होंने यह अपने मुँह से तो कभी नहीं कहा-लेकिन उनकी आँखों का हाव-भाव अनिश्चय की दृष्टि, चिन्ता और ज़िम्मेदारी से यही लगता था कि उन्हें किसी देश के राजदूत या किसी राज्य के गवर्नर के पदों में से ही अपना चुनाव करना है।

फिर कुछ समय बाद जब हम उनसे पूछते कि क्या आपने फ़ैसला कर लिया, तो वह थकी हुई मुस्कान के साथ कहते नं तो चाहता था कि हाँ कर दूँ-लेकिन ये लोग दफ़्तर से मुझे छोड़ना ही नहीं चाहते।

यहाँ बहुत कुछ करने को है और करने वाले बहुत कम हैं।'

दुर्भावनापूर्ण लोग कहते थे कि मिस्टर स्वामी फ़िजूल बात करते हैं और उनका काम कोई ख़ास नहीं है।

लेकिन यह बात सही नहीं लगती थी।

हम यह ज़रूर नहीं जानते थे कि वह करते कया हैं, सिर्फ़ यह कि बहुत महत्त्वपूर्ण काम है। वह अक्सर इशारे में कहते थे कि वह जीवन के लिये कार्य करते हैं। इसका मतलब कुछ भी हो, उनकी आमदनी अच्छी थी ।

हालाँकि उनका कद छोटा था, उनका पेट कुछ बड़ा ही धा। उनकी तोंद दिखाई देती थी। ऐसी तोंद पैसेवालों की ही होती है।

वह हमेशा कीमती बास्केट पहनते थे, जिसके ऊपर सोने की चेन लटकती रहती थी।

वह जो भी कपड़े पहनते थे ज़रूरत के मुताबिक यूरोपियन या भारतीय, वे साफ़-सुथरे और अच्छे होते थे, बाल सावधानी से कढ़े हुए, मूँछें मोम लगा कर नुकीली की हुईं, और कपड़ों पर इत्र की खुशबू।

जूते बढ़िया पॉलिश किये हुए और नये जूतों की तरह आवाज़ करने वाले ।

कपड़े और रख-रखाव के अलावा समृद्धि के और भी निशान उनके साथ जुड़े थे। वह शहर के सब क्लबों और सोसायटियों से जुड़े थे।

और हालाँकि वह हमेशा शिकायत करते थे कि क्लब वगैरह के लिए उनके पास वक्‍त नहीं है, वह हर शाम तीन-चार क्लबों में देखे जा सकते थे।

और यहीं बात खत्म नहीं होती थी। हममें जो लोग उन्हें जानते थे, अपनी आँखों से उनकी समृद्धि देखते रहते थे।

वह चाहे एक आने का पान खरीदें या दो आने की दियासलाई, वह हमेशा सौ रुपये का नोट दुकानदार को पकड़ाते थे।

वह कहते थे, मैं चिल्लर लेकर नहीं चलता, जेब भारी हो जाती है। सौ रुपये के नोट ही हल्के रहते हैं । वह हमें अपना बटुआ भी दिखाते थे जिसमें हरे कागज़ भरे नज़र आते थे।

अगर यह अमीरी नहीं है, तो और क्या है ?

मिस्टर स्वामी कया काम करते हैं, इसका पता हमें उनके शहर में रहना शुरू करने के कुछ समय बाद चल गया। अब तक उन्होंने शहर के हर नागरिक से बातचीत कर ली थी और उनकी पत्नियों तथा बच्चों की सेहत की पूछताछ कर ली थी।

वह कई दफ़ा लोगों के दफ़्तरों में भी पहुँच जाते थे-“बस, इधर से गुज़र रहा था । उनसे मिलना किसी को नागवार नहीं गुजरता था क्‍योंकि उनको कोई मतलब साधना नहीं होता था, और वह लोगों की सेहत का बहुत ध्यान रखते थे। वह दुनिया के हर विषय पर बात कर सकते थे। कुछ हद तक उन्हें दार्शनिक भी कहा जा सकता है।

वह. जिस तरह दुनिया को मायाजाल बताते थे, कहते थे कि जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं है, और अगर कुछ निश्चित है, तो वह मृत्यु है, उससे आपको अपने लिए चिन्ता होने लगती थी। वे पैगम्बर की तरह घोषणा

करते, 'ज़िन्दगी में अगर कुछ निश्चित रूप से कहा जा सकता है, तो वह है मनुष्य की मृत्य'-और फिर सामने वाले की आँखों में आँखें डालकर कहते, 'और यह उनके लिए इतनी बुरी नहीं होती जो मरते हैं, उनके लिए होती है जो उनके पीछे जीवित बचे रहते हैं।' यह सुनकर लोग अपने बारे में सोचना छोड़कर दूसरों के बारे में सोचना शुरू कर देते थे।

दुर्भावपूर्ण लोग इसे उनकी बेचने वाली बातें मानते थे। लेकिन जैसा मैंने पहले कहा, ये लोग ऐसी ही बातें करते हैं। यह जाने बिना कि मिस्टर स्वामी के पास बेचने को क्‍या है, वे यह सब कैसे कह सकते थे? इसके अलावा, मिस्टर स्वामी जो कहते थे, उसमें गहरी सच्चाई भी तो होती थी, वह गहरी सच्चाइयों को और भी ज्यादा गहराई से पेश करने में माहिर थे और इसे व्यक्ति से सीधा जोड़ देते थे। अब मैं इसका मतलब बताता हूँ।

एक दिन सवेरे के अखबारों ने हमें सूचना दी कि नगर निगम के एक पूर्व अध्यक्ष की पत्नी का देहान्त हो गया।

यह अध्यक्ष इतने ज़्यादा समय पहले रिटायर हो गये थे कि लोग उनके बारे में सब-कुछ भूल-भाल गये थे। उनकी उम्र अस्सी की हो चुकी थी, और न वह पैसेवाले थे, न समाज के लिए उन्होंने कुछ किया था ।

वह डींग मारने वालों की चर्चा का विषय बनने लायक नहीं थे, इसलिए दुर्भावपूर्ण लोगों को यह आशा नहीं थी कि मिस्टर स्वामी उनकी पत्नी के दाह-संस्कार में शामिल होने जायेंगे।

लेकिन वह वहाँ बाकायदा मौजूद थे और महिला की मृत्यु से बहुत ही ज़्यादा दुःखी दिखाई दे रहे थे।

उन्होंने हम सबको गले लगाया लेकिन इस समय “आह, हलो, हलो, हलो” कहकर नहीं, बल्कि 'हो, हो, हो” करते हुए ज़ोर-ज़ोर से रो-रो कर हमें अपनी बाँहों में लिया।

उनके रुदन से हम सब बहुत प्रभावित हुए और सोचने लगे कि महिला ज़रूर उनकी घनिष्ठ सम्बन्धी रही होगी। परन्तु सच्चाई यह थी कि वह न पूर्व अध्यक्ष से कभी मिले थे और न उनकी दिवंगत पत्नी से ।

लेकिन मिस्टर स्वामी बड़े भावुक व्यक्ति थे जो दूसरों के शोक में सहभागी होना चाहते थे।

जब पूर्व अध्यक्ष बाहर आये, तब वह उनके गले से लिपट गये और देर तक ज़ोर-ज़ोर से 'हो, हो,' करते हुए आँसू बहाते रहे। लगने लगा कि पूर्व अध्यक्ष से ज्यादा उन्हें सांत्वना की ज़रूरत है।

जब वह शान्त हो गये, तब उन्होंने परिवारवालों को धीरज बँधाना शुरू कर दिया। उन्होंने सबको समझाया कि यह ज़िन्दगी तो आनी-जानी है और इसे स्वीकार किये बिना चारा नहीं है-हरेक को एक दिन ज़रूर मरना है।

उन्होंने गहरी 'आह' भरकर पूर्व अध्यक्ष महोदय से कहा, 'ऊपरवाले ने आपकी प्रिय अर्धांगिनी को उठा लिया है-उनकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो ।

लेकिन आपको अपने बच्चों और नाती-पोतों की देखभाल के लिए छोड़ दिया है।

अब सोचिये, अगर वह पहले आपको उठा लेता और आपकी पत्नी को बच्चों की देखभाल के लिए छोड़ जाता, तो उनकी क्‍या हालत होती ?

वृद्ध महाशय ने स्वीकार कर लिया कि ईश्वर न्‍्यायकारी और दयालु दोनों है। लेकिन अब उनका भी नम्बर आ गया है और उनके बाद वह उनके परिवार की देखभाल करेगा।

'जी हाँ, इसमें क्या शक है! ज़रूर करेगा। ईश्वर महान है और अपने बनाये प्राणियों को भोजन देता है, लेकिन यह मनुष्य का अपना कर्तव्य भी है कि वह अपने भविष्य की सुरक्षा का उपाय करे-इसके लिए उसने उन्हें बुद्धि दी है 7

वृद्ध महाशय ने मिस्टर स्वामी की दोनों बातें स्वीकार कर लीं-कि वह उदार है और मनुष्य को भी भविष्य के लिए अपना प्रबन्ध करना चाहिये। उनकी यह बातचीत तब तक चलती रही जब तक हम शवदाह स्थल न पहुँच गये।

यहाँ फिर रोने-धोने और धीरज बँधाने का दौर शुरू हुआ।

यहाँ मिस्टर स्वामी पूर्व अध्यक्ष के साथ लम्बी दार्शनिक चर्चा करने लगे, इसलिए लोगों ने उन्हें अकेले छोड़ दिया।

मिस्टर स्वामी ने अपनी जेब से एक कागज़ निकाला और उसे पढ़ कर पूर्व अध्यक्ष को सुनाने लगे। हमें मानना पड़ा कि यह ज़रूर कोई धर्मोपदेश होगा, क्योंकि वह उसकी हर लाइन को कई दफ़ा पढ़ते नज़र आते थे। हमें लगा कि वह उसके हर उपदेश से सहमत हैं, क्योंकि उन्होंने उस पर कई जगह कुछ लिखा भी।

अन्त में मिस्टर स्वामी मुस्कुराते नज़र आये, जिससे स्पष्ट था कि वृद्ध महाशय के धर्म-परिवर्तन से वह सन्तुष्ट हैं। उन्होंने महाशय जी की पीठ थपथपाई और संस्कार समाप्त होने से पहले वहाँ से चले गये। उन्होंने कहा कि उन्हें एक और संस्कार में जाना है।

दुर्भावना से नाक तक भरे लोगों ने कहा कि देख लो मिस्टर स्वामी ईंश्योरेन्स एजेंट हैं और उन्होंने महाशयजी को एक पॉलिसी बेच दी है। लेकिन, जैसा मैं कई दफ़ा कह चुका हूँ, ऐसे लोग और क्‍या कहेंगे!