राजा विक्रमादित्य अपनी बुद्धिमत्ता और न्यायप्रियता के लिए जाने जाते हैं।
एक दिन वे जंगल से होकर जा रहे थे।
उन्होंने देखा कि दो साँप आपस में लड़ रहे थे।
एक साँप बिल्कुल सफेद और चमकदार था।
दूसरा साँप बिल्कुल काला और ज़हरीला था।
सफेद साँप काले साँप का डटकर मुकाबला कर रहा था।
काला साँप लगातार सफेद साँप को डसने की कोशिश कर रहा था।
विक्रमादित्य ने देखा कि काला साँप पीछे से आकर सफेद साँप पर हमला करने ही वाला है।
उन्होंने एक बडा-सा पत्थर उठाया और काले साँप के ऊपर फेंका।
काले साँप के फन पर चोट लगी और वह मर गया।
सफेद साँप जल्दी से झाडियों से होकर चला गया।
कुछ दिनों के बाद राजा विक्रमादित्य शिकार पर निकले। वे अपने सैनिकों से अलग होकर जंगल के अंदर चले गए।
अचानक एक दैत्य उनके सामने आ गया। विक्रमादित्य ने उसे मारने के लिए तुरंत
अपनी तलवार निकाल ली।
तभी दैत्य ने कहा, “राजा, में तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा, डरो मत।
में वही सफेद साँप हूँ, जिसकी तुमने जान बचाई थी।
वह काला साँप एक दुष्ट दैत्य था, जो मुझे मारना चाहता था।
तुमने मेरी जो मदद की उसके बदले में में तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ।
बताओ तुम्हें धन चाहिए या राजपाट ?”
राजा बोले, 'ईश्वर की कृपा से मेरे पास धन की कमी नहीं है।
मेरा राज्य भी बहुत बड़ा है।
मुझे अपनी मदद के बदले में कुछ नहीं चाहिए! मैंने जो कुछ किया वह किसी स्वार्थ में नहीं किया।'
देत्य ने कहा, 'मैं जानता हूँ। लेकिन मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हँ।'
तब राजा बोले, 'यदि ऐसा हे तो मुझे बुद्धि दो, जिससे कि मैं अपने धन को सम्हाल सकूँ और प्रजा के साथ कभी कोई अन्याय न होने दूँ और ऐसा ही हुआ।
राजा विक्रमादित्य दुनिया के सबसे ज़्यादा बुद्धिमान और न्यायप्रिय राजा बन गए।