चिड़िया और बंदर

एक बार की बात है ।

एक इमारत में आग लग गई ।

जो कोई भी वहां था, आग बुझाने में जुट गया ।

जिसे जो मिला, आग पर फेंकने लगा.. पानी.. मिट्टी...।

इमारत के सामने एक पेड़ था. पेड़ पर एक चिड़िया का घोसला था ।

उसी पेड़ पर एक बंदर भी रहता था ।

सामने आग लगी देख चिड़िया से भी न रहा गया ।

चिड़िया पास के तालाब तक उड़ती.. चोंच में पानी भरती और लौटकर इमारत पर उडेल देती ।

बार बार चिड़िया को ऐसा करते देख बंदर को हंसी आ गई ।

बंदर ने तंज कसते हुए चिड़िया से कहा कि मूर्ख चिड़िया, तुझे क्या लगता है, तेरे एक बूंद पानी से क्या आग बुझ जाएगी ?

चिड़िया बंदर के माखौल उड़ाने पर खफ़ा न हुई.. अपने पंख फड़फड़ाते हुए बंदर के सामने आई और बोली ।

माय डियर बंदर.. मुझे भी मालूम है कि मेरी एक बूंद की कोशिश से आग बुझने वाली नहीं है ।

लेकिन मुझे मेरा कर्तव्य निभाना है ।

मैं चाहती हूं कि जब कभी इतिहास लिखा जाए, तो मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं, आग लगी देख सामने बैठकर तमाशा देखने वालों में नहीं, बल्कि आग बुझाने वालों में लिखा जाए ।

तो बच्चों ये कहानी यही बताती है कि आग लगी हो तो हम कहां हैं, बुझाने वालों में कि लगाने वालों में।

या फिर लगी आग को देख हाथ पर हाथ धर कर बैठने में।