एक सड़क के किनारे नीम का एक बड़ा पेड़ था।
वह इतना बड़ा था कि उसकी शाखाएँ दूर तक फैलकर एक कमरे की छत जितनी जगह लेती थीं।
उसका तना इतना मोटा था कि दो लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़कर भी उसको चारों ओर से घेर नहीं सकते थे।
उसकी घनी पत्तियों में अनगिनत पक्षियों के घोंसले थे।
उसकी जडें इतनी गहराई तक थीं कि उन्हें उखाड़ पाना किसी के लिए भी मुश्किल था।
उसकी छाया में हर रोज कितने ही यात्री रुककर आराम करते थे।
और इन सब बातों के लिए नीम के पेड़ को अपने ऊपर गर्व था। लेकिन यह गर्व बढ़ते-बढ़ते उसका घमंड बन गया था।
एक बार बरसात के दिनों में एक छोटा-सा पौधा उस पेड को छाया में उप आया। यह पौधा बहुत ही नाजुक-सा था।
उसका तना कोमल था और लचीला भी।
पेड ने छोटे पौधे से कहा, 'तुम क्यों यहाँ मेरी छाया में खड़े हो ? थोड़ी दूर जाकर अपने-आपको क्यों नहीं उगाते, जिससे कि तुम भी ऊँचाई तक बढ़ सको, मेरी तरह।'
पौधा बोला, 'लेकिन मुझे यहाँ अच्छा लगता है। आपकी छाया में मैं ज्यादा सुरक्षित महसूस करता हूँ ।'
'तुम डरपोक हो, मुझे देखो। में किसी से नहीं डरता। मेरा मजबूत तना देखो।
मेरी लंबी डालियाँ देखो और मेरी जड़ें तो इतनी गहरी हैं कि कोई ऐसा है ही नहीं, जो मुझे उखाड़ने की बात सोच भी सके। मैंने किसी के आगे झुकना नहीं सीखा।
समझे छोटू।' पेड घमंड से बोला।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसी शाम तेज तूफान आया और जोर से बारिश हुई।
अनगिनत पेड उखड़ गए। यह बड़ा-सा नीम का पेड भी उनमें से एक था।
और वह छोटा-सा पौधा वहीं था, अपनी जगह। तूफान से वह बस थोड़ा झुक गया था। उसके लचीलेपन ने उसे बचा लिया था।