उत्तरप्रदेश के एक छोटे-से शहर बिजनौर में एक परिवार रहता था।
परिवार में तीन सदस्य थे-टीनू और उसके माता-पिता। टीनू के दादाजी बिजनौर के पास एक गाँव में रहते थे।
गर्मी की छुट्टियों में या तो वे टीनू को गाँव में बुला लेते थे या फिर वे खुद शहर आकर टीनू और उसके मम्मी-पापा के साथ रहते थे।
इस बार दादाजी टीनू के पास आ रहे थे। टीनू बहुत खुश था।
दादाजी हमेशा धोती-कुर्ता पहनते थे। उनका कुर्ता एकदम सफेद होता था।
एकदम साफ। अपने कपडे वे हमेशा अपने आप धोते थे।
धोती-कुर्ता तो ठीक था लेकिन वे एक पगड़ी भी लगाते थे, लाल रंग पर छोटे-छोटे प्रिंट वाली।
उनकी यह पगड़ी टीनू को बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी। वह हमेशा दादाजी से कहता-' दादाजी, ये पगड़ी मत लगाइए।
नहीं तो मैं आपके साथ घूमने नहीं चलूँगा। आप ये गाँव में लगाया कीजिए। ये शहर में नहीं चलेगी।'
लेकिन दादाजी आखिर टीनू के दादाजी थे। वह कितना भी कहे पर उनके सिर पर हमेशा उनकी यह पगड़ी चमकती रहती थी।
एक दिन दादाजी घर के आँगन में पलंग डालकर सो रहे थे। पगड़ी को उतारकर उन्होंने अपने पेट पर रख लिया था।
जब वे साँस लेते थे तो उनके पेट के साथ उनकी पगड़ी भी ऊपर-नीचे होती थी।
टीनू दूर से यह सब देख रहा था। ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे... होती पगड़ी को देखकर उसे बहुत हँसी आ रही थी।
तभी उसे एक शरारत सूझी। वह धीरे-से दादाजी के पास पहुँचा। चुपके से उसने पगड़ी उठाई और घर की पीछे बने स्टोर-रूम में छिपाने के लिए ले गया।
उसने सोचा कि दादाजी को जब पगडी नहीं मिलेगी तो वे उसे पहनेंगे भी नहीं।
स्टोर-रूम खोलकर जैसे ही उसने पगडी कोने में रखी, एक भारी-से हाथ ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसने चौंककर पीछे देखा। “दा ... दा दा दा.... जी!' टीनू डर के मारे चिल्लाया।
'मुझे माफ कर दीजिए दादाजी, ऐसी गलती मैं फिर कभी नहीं करूँगा। दादा जी प्लीज, प्लीज दादाजी।
' दादाजी ने उसकी बात सुनी ओर बोले, “ठीक है, मैं तुम्हें माफ कर सकता हूँ लेकिन तुम्हें मेरी एक बात माननी होगी।'
“मैं मानूँगा दादाजी, जो आप कहेंगे मैं वही करूँगा।' टीनू जल्दी से बोला।
“तो ठीक है, पाँच दिन के बाद तुम्हारे स्कूल में वार्षिक उत्सव होने वाला है ना!' दादा जी बोले।
'हाँ दादाजी, पर मुझे करना कया हे ?' टीनू ने पूछा।
'तुम्हें उस उत्सव में कुर्ता-पायजामा और मेरी जेसी ही पगडी पहनकर जाना होगा।' दादाजी ने कहा।
'पगडी .... नहीं दादा जी .... मैं और पगडी ... ।' टीनू ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था।
लेकिन फिर उसे ध्यान आया कि उसने दादाजी को वचन दिया है। यह सोचकर वह चुप हो गया।
उसी दिन शाम को दादाजी अपनी जैसी एक छोटी पगड़ी ले आए और टीनू के सिर पर बाँधने का अभ्यास शुरू हो गया।
आखिर पाँच दिन बीते ओर टीनू के स्कूल के उत्सव का दिन आ गया। टीनू ने एक अच्छा-सा कुर्ता-पायजामा पहना और दादाजी ने पगडी बाधी।
“चलो चलें।' दादाजी बोले।
टीनू के कदम जैसे शर्म के कारण घर से बाहर भी नहीं निकल पा रहे थे। लेकिन दादाजी साथ चलने के लिए तैयार खडे थे, अपनी पगडी लगाकर।
किसी तरह हिम्मत जुटाकर टीनू घर के बाहर निकला और जल्दी-से गाड़ी में बैठ गया।
इससे पहले कि कोई उसे देख पाता उसने दरवाजा बंद कर लिया। गाड़ी में बेठकर वह पगडी उतारने ही वाला था कि दादाजी ने दरवाजा खोला और बोले,
“चलो टीनू, आज मैं तुम्हें स्कूल तक छोड देता हूँ।'
कार जब स्कूल के सामने रुकी तो दादाजी ने दरवाजा खोला और बोले, “जाओ टीनू।'
टीनू नजर नीचे झुकाकर उतरा और बिना किसी ओर देखे चलने लगा।
“वाह, कौन है यह। एकदम राजकुमार जैसा!” पहली आवाज उसके कानों में पडी। ' अरे वाह, कितनी सुंदर ड्रैस है, सबसे अलग।' एक ओर बच्चा बोला।
'अरे ये तो टीनू है। वाह टीनू, तुम तो बहुत अच्छे लग रहे हो। और तुम्हारी पगड़ी तो बहुत ही जँच रही है।'
ये उसकी सबसे अच्छी मित्र सुरभि की आवाज थी।
टीनू ने बस इतना ही कहा, ' थेंक यू' लेकिन उसके बाद उसने नजरें झुकाकर नहीं देखा।
उसे आज पता चला था कि पगड़ी कितनी अच्छी चीज है। वह बेकार ही दादाजी को परेशान करता था, पगड़ी न पहनने के लिए।
उसने घूमकर दादाजी की ओर देखा। वे टीनू को देखकर गर्व से मुस्कुरा रहे थे और टीनू वह तो जैसे पूरे स्कूल का सबसे लोकप्रिय विद्यार्थी हो गया था।
और यह सब दादाजी और उनकी पगड़ी का कमाल था।