एक व्यवसायी था-अशोक।
अशोक के दो पुत्र थे। बड़ा पुत्र सोहन सीधा-सादा था। छोटा पुत्र रोहन चुस्त था और फुर्तीला भी था।
रोहन सब काम तेजी से करके अपने पिता का हृदय जीत लेता था। जबकि सोहन काम को पूरी बारीकी से करता था, इसलिए पीछे रह जाता था।
उनके पिता अशोक इस बात को समझ नहीं पाते थे। वे हमेशा रोहन की प्रशंसा करते थे और सोहन के अच्छे कामों को भी कभी किसी के सामने नहीं बताते थे।
धीरे-धीरे रोहन उनका बहुत लाडला हो गया। रोहन के लिए कुछ भी करने के लिए वे हमेशा तैयार रहते थे।
फिर दोनों बेटों की उच्च शिक्षा का समय आया। उन्होंने रोहन को पढ़ाई के लिए विदेश भेजा, जबकि सोहन ने उन्हीं के पास रहकर अपनी पढ़ाई पूरी को।
जब दोनों बेटों की पढ़ाई खत्म हो गई तो उन्होंने अपने व्यवसाय के आधे-आधे हिस्से की जिम्मेदारी दोनों बेटों को दे दी।
उन्हें विश्वास था कि रोहन अपनी विदेशी शिक्षा का उपयोग जरूर करेगा। उनको रोहन से बहुत-सी उम्मीदें थीं। वे सबसे कहते थे, 'मेरा छोटा बेटा मेरे व्यवसाय को दूर तक बढाएगा।' सोहन से उन्होंने कभी कोई उम्मीद नहीं को थी।
लेकिन सोहन ने अपनी मेहनत और लगन से काम को जल्दी ही समझ लिया। उसने व्यवसाय को चारों ओर बढ़ाना शुरू किया और सफल भी हो गया।
जबकि रोहन को पिता के लाड-प्यार के कारण आराम की आदत हो गई थी।
उसे अपनी जिम्मेदारी का एहसास कभी नहीं हुआ था। बचपन से उसने जो कुछ भी माँगा, उसे तुरंत मिल गया था। इसलिए खुद काम करके पैसा कमाने की इच्छा उसमें थी ही नहीं।
रोहन को लापरवाही का परिणाम यह हुआ कि जल्दी ही उसे व्यवसाय में बड़ा नुकसान हुआ।
वह अपने हिस्से का सारा पैसा गँवा बेठा।
उसके पिता, जो उससे बहुत-सी उम्मीदें लगाए हुए थे, बहुत निराश हुए।
उन्होंने उस पर बहुत गुस्सा भी आया। तब वे सोहन के पास आए। पहली बार उन्होंने सोहन से प्यार से बात की।
उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था लेकिन वे बहुत दुखी थे। ऐसे में सोहन ने उन्हें सँभाला और रोहन को उसकी जिम्मेदारियों के बारे में समझाया।
तीनों ने मिलकर नए सिरे से व्यवसाय सँभाला। उनकी लगन और मेहनत से काम जल्दी ही चल निकला।