दो चूहे भाइयों में आपस में बहुत प्रेम था।
उनमें से एक शहर में रहता था और दूसरा गाँव में। दोनों को जब भी एक-दूसरे की याद आती थी, तब शहर वाला चूहा कुछ दिनों के लिए गाँव आ जाता था।
गाँव में दोनों खूब खेलते थे, खाते-पीते थे।
वे अक्सर किसी खेत में जाकर मीठे-मीठे गेहूँ के कच्चे दाने खाते थे। गाँव वाले चूहे का नाम था चीं-चीं और शहर वाले का नाम था चूँ-चूँ।
चूँ-चूँ को वैसे तो गाँव आना बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि उसका प्यारा भाई वहाँ रहता था।
लेकिन गाँव की धूल-मिट्टी से उसे परेशानी होती थी।
चीं-चीं अनाज के एक गोदाम के पास बिल में रहता था। जब अनाज की गाड़ी वहाँ आती थी तब कुछ दाने बाहर गिर जाते थे।
चीं-चीं उन दानों को इकट्ठा कर लेता था। कुछ खा लेता था और कुछ बचा लेता था।
चूँ-चूँ के आने से पहले वह काफी सारा अनाज बचाकर रखता था, जिससे कि उसे तकलीफ न हो।
चूँ-चू को गाँव आकर खाने की कमी तो नहीं होती थी, लेकिन वह रोज एक ही खाना खाकर बोर हो जाता था।
एक बार उसने चीं-चीं को अपने साथ शहर आने के लिए कहा, चीं-चीं बहुत खुश था।
लेकिन वह थोड़ा घबरा भी रहा था। इतना बड़ा शहर।
वह कहीं खो न जाए, उसे यही डर था। लेकिन भाई साथ में था इसलिए वह निश्चित था।
दोनों शहर जाने वाली एक बस में लटक गए।
शहर में भी बस-स्टॉप से घर तक पहुँचने में काफी देर लगी।
'कितनी दूर चलना पड़ता है।' चीं-ची सोच रहा था, 'इतने में तो हम पूरा गाँव घूमकर आ सकते हैं।'
जब तक वे घर पहुँचे, खूब थक गए थे। लेकिन इतना बड़ा घर देखकर चीं-चीं अपनी सारी थकान भूल गया।
'हे भगवान, ये घर है या किसी राजा का महल!' वह बोला।
असल में यह एक होटल था, होटल का मालिक पीछे एक बंगले में रहता था।
चूँ-चूँ होटल के मालिक की रसोई में बिल बनाकर रहता था। दोनों भाई जब घर पहुँचे तो बहुत भूख लग रही थी।
चूँ-चूँ के बिल में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। वह तो रोज ताजा-ताजा खाना खाता था।
जब सब खाना खाकर उठ जाते थे, तब बहुत सारा खाना उनकी प्लेटों में बचता था।
हर रोज नया और स्वादिष्ट खाना खाने को मिलता था। इसलिए उसने कभी-भी बचाकर रखने की जरूरत ही नहीं समझी थी।
भूख के मारे दोनों की बुरी हालत थी। लेकिन अभी खाना बन ही रहा था।
सब खाएँगे फिर उनकी प्लेटें आएँगी, तब बचा हुआ खाना खाने को मिलेगा। इतनी देर तक कैसे इंतजार कर पाएँगे। वे भूख से इतने बेचैन हो गए कि रसोई में जाकर पके हुए खाने के बर्तनों पर चढ़ गए।
तभी रसोइए ने उन्हें देख लिया और वह जोर से चिल्लाया। डर के मारे दोनों कूदकर भागे।
चीं-चीं के पैर में थोड़ी चोट भी लग गई। बहुत देर भूखा रहने के बाद उन्हें थोड़ा खाने को मिला।
तब चीं-चीं ने चूँ-चूँ से कहा, ' भाई, ऐसी शान से कया फायदा, जिसमें हमेशा डरकर खाना-पीना पडे। इससे तो अपना गाँव ही अच्छा है।
मुझे देखो में तो वह अनाज ही उठाता हूँ, जो नीचे गिरा होता है। कोई । कुछ कहता नहीं है मुझे।
और मैं थोड़ा अनाज बचाकर भी रखता हूँ, जिससे कि कभी भूखा न रहना पड़े।
मैं तो जा रहा हूँ अपने गाँव।' यह कहकर चीं-चीं चल पडा।
'रुको चीं-चीं भैया, मैं भी आता हूँ।' चूँ-चूँ बोला।
चीं-चीं ने पीछे मुडुकर देखा तो चूँ-चूँ अपने सामान की गठरी लिए खडा था।
दोनों भाई साथ-साथ गाँव आ गए और आज भी वे अनाज के गोदाम के बाहर अपने बिल में आराम से रहते हैं।