राख को रस्सी

नाना नानी की कहानियाँ

यह उस समय की बात है, जब भारत में राजाओं का राज्य था।

एक साहसी राजा थे दीपेंद्रसिंहश। उनकी महारानी शोभना भी बहुत बुद्धिमान थीं।

राजा दीपेंद्र ने अपने दरबार में सोच-समझकर ऐसे दरबारी नियुक्त किए थे, जो राजा को सही परामर्श दे सकें। विशेष रूप से उनके मंत्री विक्रमसिंह।

उनकी बुद्धि पर तो राजा को बेहद विश्वास था। किसी भी मुसीबत के समय विक्रमसिंह घबराते नहीं थे। बल्कि समझदारी से मुश्किलों का हल निकाल लेते थे।

एक बार राजा दीपेंद्र अपने पड़ोसी राज्य में गए। वहाँ के राजा महाराज दीपेंद्र के मित्र थे।

राजा दीपेंद्र कई दिनों तक अपने राज्य में वापिस नहीं आए। सभी को चिता होने लगी।

तब दस दिनों के बाद विक्रमसिंह को एक संदेश मिला।

उस पर लिखा था आपके महाराज को बंदी बना लिया गया है। यदि आप अपने

महाराज को यहाँ से ले जाना चाहते हैं तो राख की एक रस्सी बनाएँ।

उस रस्सी से बाँधकर ही आपके महाराज को कारागार से बाहर लाया जाएगा।

यदि ऐसा न हो सका तो महाराज को हमेशा के लिए कारागार में ही रहना पडेगा।'

'राख की रस्सी!' विक्रमसिंह को आश्चर्य हुआ। 'यह कैसी अजीब शर्त हे ?'

वे दो दिनों तक सोचते रहे। आखिर उनकी बुद्धि ने एक उपाय सोच ही लिया और वे पड़ोसी राज्य में पहुँच गए।

पडोसी राज्य के दरबार में पहुँचकर विक्रमसिंह ने कहा-

'राख की रस्सी बनाने के लिए मैं तैयार हूँ। लेकिन उसका उपयोग केसे करना है, यह आपको तय करना होमा।'

'ठीक है, आप पहले राख की रस्सी बनाएँ तो सही।' वहाँ के महाराज बोले।

तब विक्रमसिंह ने कुछ चीजों की माँग की। ये चीजें थीं-थोडा सा जूट, दियासलाई और एक ऐसा कमरा, जिसमें कोई खिड़की या हवा आने का कोई रास्ता न हो।

जूट और दियासलाई लेकर विक्रमसिंह कमरे में चले गए और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। तीन-चार घंटों के बाद वे बाहर आए। उन्होंने वहाँ के राजा से कहा, “महाराज रस्सी तैयार है।'

राजा उत्सुकता से अंदर गए तो देैरेंबां जमीन पर एक लंबी राख की रस्सी रखी थी। उन्होंने ध्यान से देखा तो समझ में आ गया कि यह रस्सी कैसे बनाई गई थी।

असल में विक्रमसिंह ने पहले जूट से एक रस्सी बनाई।

फिर उसे जमीन पर लंबा करके फैला दिया। अंत में उन्होंने रस्सी के एक सिरे पर आग लगा दी। धीरे-धीरे रस्सी को जलाती हुई आग आगे बढी।

जहाँ-जहाँ जूट जलता जाता था, वहाँ जूट की जगह

उसकी राख बनती जाती थी। लेकिन रस्सी को काफी मजबूती से बुना गया था, इसलिए उसकी राख उसी आकार में रुकी हुई थी।

इस तरह जब पूरी रस्सी ज॑ल गई तब भी उसका आकार वैसा ही बना रहा।

विक्रमसिंह बोले, 'महाराज, रस्सी तैयार है। अब आप अपने सैनिकों से कहें कि इस रस्सी को लपेटें और महाराज को बाहर ले आएँ।'

राजा विक्रमसिंह को बुद्धिमानी देखकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए। तभी महाराज दीपेंद्र उस कक्ष में आए और बोले, 'इसीलिए आपने एक हवारहित कक्ष माँगा था, जिससे कि हवा से रस्सी का आकार न बिगड़े।

वाह विक्रमसिंह, आप सचमुच बुद्धिमान हैं। हम तो बस यूँ ही आपकी परीक्षा ले रहे थे। आपने एक बार फिर अपनी बुद्धिमानी सिद्ध कर दी।

ऐसा कहकर महाराज दीपेंद्र ने विक्रमसिंह को गले से लगा लिया।