एक साधु और उसका मुख्य शिष्य आपस में धर्म-कर्म की चर्चा कर रहे थे।
उसी बीच वहाँ का राजा साधु को अभिवादन करने आ पहुँचा।
मुख्य शिष्य के साथ विचार-विमर्श में इतना लीन था
कि उसे राजा के आगमन का पता ही नहीं चला।
साधु
शिष्य कह रहा था, "अरे वाह! कितना अच्छा लग रहा है ! कितना अच्छा लग रहा है !"
राजा ने यह बात सुनी तो उसे लगा कि शिष्य उसकी चापलूसी कर रहा है।
उसे यह बात अच्छी नहीं लगी।
हालाँकि साधु राजा के मन की बात समझ गया और उसने राजा को अपने शिष्य की असली पहचान बता दी।
साधु ने बताया कि उसका शिष्य पहले एक राजा हुआ करता था लेकिन उसने संन्यासी बनने के लिए सब कुछ त्याग दिया।
राजा ने उसके मुँह से जो 'अच्छा' शब्द सुना,
उससे शिष्य का तात्पर्य संन्यासी बनने के बाद महसूस होने वाले सुख से था ।
राजाको अपनी गलती का अहसास हो गया और उसने वहीं क्षमा माँग ली।