एक शिकारी एक बार नदी से गुजर रहा था।
अचानक उसके सामने एक बहुत बड़ा सांप जैसा एक जानवर आ गया।
यह कोई साधारण सांप नहीं था।
उसका धड़ तो एक ही था। लेकिन उसके सौ सर थे।
उसे देखते ही शिकारी घबरा गया। वह अपनी जान बचाकर किसी तरह वहां से निकल गया।
उसे बहुत देर तक लगता रहा कि वह भयानक सांप उसका पीछा कर रहा है।
थोड़ी दूर जाकर उसने पीछे मुड़कर देखा तो दूर-दूर तक कहीं भी साँप नजर नहीं आया।
असल में सांप के सौ सिर इतने भारी थे कि वह अपनी जगह से आगे भी नहीं बढ़ पाता था।
केवल अपने आकार से सबको डराता था। शिकारी ने चैन की साँस ली।
वह किनारे पर पहुंचने ही वाला था कि उसके सामने एक और जानवर आ गया।
शिकारी ने देखा कि उसका केवल एक ही सिर था।
उसने सोचा कि इस जानवर को आसानी से वश में किया जा सकता है।
इसलिए किनारे पर पहुंचकर शिकारी ने उसे ललकारा। लेकिन उसे पता नहीं था कि इस जानवर का सर तो एक था लेकिन पैर सौ थे।
इसलिए वह इतनी तेजी से शिकारी की ओर लपका कि शिकारी घबराकर भागा।
सौभाग्य से वहां एक ऊँचा पेड़ था। उस पर चढ़कर शिकारी ने अपनी जान बचाई।
लेकिन इस घटना से उसने एक सीख ली।
वह यह कि केवल आदेश देनेवाले सौ सिर होने से अच्छे हैं सौ पैर, जो आपकी आज्ञा मान सकें।
बैठे-बैठे आज्ञा देने से कुछ नहीं मिलता। इसका अर्थ यह है कि यदि कुछ पाना है तो अपने पैरों में सौ पैरों की स्फूर्ति लानी जरूरी है।