एक बहुत गूरीब किसान था।
वह अपनी बेटी के साथ एक छोटी सी झोंपड़ी में रहता था।
उसके पास खेती करने के लिए इतनी कम ज़मीन थी कि उसकी फसल को बेचकर उसे बिल्कुल थोडे से रुपए मिलते थे।
उन रुपयों से वे लोग ठीक से खाना भी नहीं खा पाते थे।
वह राजा के पास अपनी समस्या लेकर आया।
राजा दयालु थे।
उन्होंने किसान को अपनी ज़मीन में से कुछ ज़मीन दे दी, खेती करने के लिए।
उन्होंने कहा, “यह ज़मीन तो हमारी ही रहेगी, लेकिन उस पर उगने वाली फुसल तुम्हारी होगी।
किसान ने राजा को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया।
एक दिन वह खेत की जुताई कर रहा था।
तभी उसका हल किसी कठोर चीज़ से टकराया।
उसने वहाँ खोदकर देखा तो उसे सोने की एक ओखली मिली।
किसान ईमानदार था।
उसने अपनी बेटी से कहा- 'हमें यह ओखली राजा के खेत से मिली है। जिसकी ज़मीन है, उसी की यह ओखली भी है। इसीलिए हमको इसे राजा को लौटा देना चाहिए।'
किसान को बेटी बोली, “नहीं पिताजी, आप ऐसा मत कीजिए। आपको सिर्फ ओखली मिली है।
यदि राजा ने आपसे इसकी सोने की मूसल भी माँगी तो आप क्या करेंगे ? आप इस ओखली को अपने ही पास रखिए।'
लेकिन किसान को यह बात ठीक नहीं लगी। वह बोला, “जो चीज़ हमें मिली ही नहीं, वह माँगने का राजा को कोई अधिकार नहीं है।'
वह राजा के पास ओखली लेकर पहुँचा। लेकिन दरबार में ठीक वैसा ही हुआ जैसा कि किसान की बेटी ने सोचा था।
राजा ने सोचा कि किसान ने लालचवश मूसल अपने पास रख ली हे।
किसान बेचारा सोने की मूसल कहाँ से लाकर देता! नतीजा यह हुआ कि किसान को जेल में डाल दिया गया।
जेल में न उसे ढंग से खाना मिलता था, न पानी।
किसान को ऐसी गलती की सज़ा दी गई थी, जो उसने की ही नहीं थी।
वह खाए-पिए बिना निढाल हो गया। लेटे-लेटे वह रोता रहता था और कहता था, “बेटी की बात मानी होती .... काश, मैंने अपनी बेटी की बात मानी होती!'
एक दिन राजा ने उसे ऐसा कहते हुए सुन लिया।
उन्होंने किसान से पूछा कि वह ऐसा क्यों कह रहा है।
तब किसान ने राजा को पूरी बात बताई।
राजा को अपनी गूलती का अहसास हुआ।
किसान को तुरंत छोड दिया गया।
किसान की बेटी को राजा ने दरबार में बुलाया।
उससे बातें करने के बाद राजा को पता चल गया कि वह कितनी बुद्धिमान है।
किसान की बेटी को राज्य के ख़ज़ाने का मंत्री बना दिया गया।
उन्हें रहने के लिए घर और संभी सुख-सुविधाएँ दी गईं।
किसान और उसकी बेटी सदा सुख से रहे।
किसान को थोड़ा कष्ट ज़रूर झेलना पड़ा। लेकिन अंत में जीत सच्चाई की हुई।