मनूबाई का शिक्षा

अब मनूबाई तीन साल की हो गई थी।

वह नाना के साथ दिनभर खेलती, दोनों में बहुत अधिक स्नेह हो गया था।

नाना बाजीराव पेशवा का दत्तक पुत्र था। वह राजकुमार था और राजमहलों में रहता था।

बालिका मनूबाई को वह बहन के समान प्यार करता वह उसे अत्यंत स्नेह करता था।

मनूबाई और राजकुमार नाना, दोनों ही बच्चे होनहार थे। वे आपस में प्रेम से खेलते।

किसी ने भी नहीं देखा कि कभी उनमें झगड़ा हुआ हो। दोनों बहुत तेज दौड़ते थे। पांच साल की अवस्था में ही मनूबाई इतनी निपुण हो गई थी कि वह छोटे-मोटे नाले को छलांग द्वारा फांद जाती-उसकी भी शिक्षा महल में ही होती।

राजकुमार के साथ वह घोड़े की सवारी करती। हथियारों का चलाना सीखती।

वे दोनों साथ ही साथ शस्त्र-अस्त्र चलाने का अभ्यास करते। यह देख राय साहब तो प्रसन्न होते ही मोरोपन्त तांबे भी अपनी पुत्री पर बलि-बलि जाते। उन्हें मन ही मन गर्व

होने लगता कि उन्हें बड़ी होनहार बेटी मिली है।

मनूबाई स्वभाव की बड़ी चपल थी। उसकी छवि बड़ी आकर्षक थी।

कुशाग्र बुद्धि के कारण ही उसका उपनाम छबीली पड़ गया। लोग उसे प्यार से यही नाम लेकर पुकारते और छबीली दौड़ी चली आती।

मनूबाई की शिक्षा-दीक्षा लड़कों के साथ हो रही थी। उसमें स्त्रियोचित लाज-डर झिझक और संकोच कुछ भी नहीं था। जो कुछ भी था वह जीवट और साहस। वह रामायण की कथा ध्यानपूर्वक सुनती।

महाभारत की गाथाएं उसमें साहस का संचार करतीं। उसमें पुरुषार्थ इस अल्पायु से ही समाता जा रहा था।

मनूबाई अब सात साल की हो गई थी। उसका अध्ययन अनवरत रूप से चल रहा था। घुड़सवारी वह खूब करती। तलवार चला लेती।

सैनिकों की देख-रेख में राजकुमार के साथ जंगल में शिकार के लिए जाती। उसके साहस को जो भी देखता, दांतों तले उंगली दाब लेता।

मनूबाई के पिता मोरोपन्त तांबे को ही वह प्रिय नहीं थी बल्कि पूरा राज-घराना मनूबाई पर जान देता।

प्रत्येक उसके लिए मंगल की कामना करता। वह पढ़ती तो खूब मन लगाकर। खेलती सुधबुध खोकर और जब हथियार चलाना सीखती तो सतर्क रहती, चैतन्य हो जाती और दौड़ते समय तो उसमें बिजली सी भर जाती।

इस छोटी सी ही उम्र में मनूबाई ने तैरना भी सीख लिया था। बरसात की चढ़ी गंगा में भी वह तैरती।

गोता लगा जाती और फिर उछल कर बाहर आती। उसका यह कौतुक देखकर लोग आश्चर्य करते और कहते कि यह ईश्वर की देन है। वैसे मोरोपन्त तांबे का ऐसा भाग्य कहां जो उसे यह संतान मिलती!

राज ज्योतिषी तांता जी भी मनूबाई को बहुत चाहते थे। वे उसे पुत्रिवत् स्नेह करते, ज्ञान की बातें सिखलाते।

उसे ऐसी प्रेरणा देते जिससे उसमें स्फूर्ति आती और साहस का संचार होता। वह नानाराव के साथ अपना सारा समय व्यतीत करती।

कमाल की बात, उसने इस छोटी सी अवस्था में ही शतरंज का खेल भी सीख लिया था।

नानाराव के साथ जब फड़ बिछाकर बैठती तो उसे मात दिए बिना नहीं रहती। वह छूटते ही कहती कि अपनी शह बचाओ राजकुमार, नहीं तो बाजी अभी मात होती है।

नानाराव हंसने लगता और हंसते-हंसते बाजी हार जाता। फिर जब उसकी पारी आती वह जीतता तो मनूबाई को तंग करता, अपनी छबीली को चिढ़ाता।

घुड़दौड़ के लिए जब दोनों मैदान में जाते और घोड़ों की पीठ पर बैठते तो उनमें आपस में होड़ लगती कि देखू किसका घोड़ा आगे जाता है।

तलवार चलाने में भी दोनों दक्ष थे। वे घंटों अभ्यास करते फिर भी नहीं थकते। अध्ययन में भी दोनों की रुचि थी। वे मन लगाकर पढ़ते। शिक्षक दोनों से संतुष्ट थे।

राजमहल की स्त्रियां जब मनूबाई को छबीली कहकर पुकारती तो वह हंसवार उनके पास आ जाती। अधिक स्नेह करने वाली के गले से लिपट जाती। दुलार दिखलाती, प्यार जताती।

वह किसी को भी गैर नहीं समझती, सबमें बड़ी जल्दी घुल-मिल जाती।

उसका स्वभाव बड़ा ही सरल और सादगी से पूर्ण था। केवल खेलकूद के समय वह चपल और चंचल मालूम होती।

राजकुमार नानाराव मनूबाई को बहुत स्नेह करता। वह उसके बिना भोजन नहीं करता।

उससे अवस्था में तीन चार साल बड़ा था। इस नाते उसे छोटी बहन समझता। उसका साथ उसे ऐसा लगता जैसे भाई और बहन का कि भाई आगे चलता है तो बहन उसकी मंगल कामना करती हुई पीछे भागती है। वह भाई के दुःख को अपना दुःख समझती और सुख में हंसती हुई दिखलाई पड़ती।

खेलकूद के दौरान या शस्त्र और अस्त्र के अभ्यास में अथवा दौड़-धूप में जब कभी छबीली के चोट लग जाती। वह रोने लगती तो नानाराव उदास हो जाता।

वह रोनी सी सूरत बना लेता। तभी मनूबाई हंसकर बोल उठती कि “वाह चोट मेरे लगी और उदास तुम हो गए, लो मैं रोई कहां, मैं तो हंस रही हूं। बहादुर लोग कभी रोते नहीं।

वे सीने में घाव लगने पर भी हंसते रहते हैं।" इस पर नाना भी हंस देता और फिर दोनों मिलकर इतना हंसते कि हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते।

राजमहल में कौन ऐसा था जिसे छबीली से प्यार नहीं था। वह बालिका बड़ी आकर्षक छवि की थी।

स्फूर्ति उसकी रग-रग में समा रही थी।

उसकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी। कार्य कलापों से ही नहीं देखने में भी वह विलक्षण लगती थी।

छबीली उसका प्यार और दुलार का नाम था। वह मनूबाई थी, मोरोपन्त तांबे की पुत्री जो अब राजकुमारियों जैसी शिक्षा-दीक्षा पा रही थी।