गंगाधर राव को पत्नी से अनुराग

लक्ष्मीबाई के ब्याह को पांच साल व्यतीत हो गए।

अब वह बारह वर्ष को बालिका नहीं युवती तुल्य प्रतीत होती।

उसके अंग-प्रत्यंग में निखार आ गया था। दासियां उसका दिन में दो बार शृंगार करती। फूलों से उसके केश सजाये जाते।

गोरी-गोरी मखमल जैसी गलियों पर मेहंदी रची होती, महावर पांव में होता, कभी पाजेब उनमें शोभा पाती तो कभी नूपुर बजते।

वह रानी थी, पटरानी, महारानी झांसी की। वह अंतःपुर की ज्योति थी; लेकिन केवल नाम की रानी नहीं।

वह वीरांगना थी और वीर-बाला। उसके जिन हाथों में मेहंदी रची होती उनसे ही तलवार चलाती। बाण को धनुष पर चढ़ाती, टंकार करती एवं उन्हीं कोमल हाथों में वह भाला साधती और ढाल पकड़ती।

रानी बंदूक तथा पिस्तौल चलाने में भी सिद्धहस्त थी। उसका निशाना अचूक होता, वार कभी खाली नहीं जाता।

ऐसे अवसर पर उसके पैरों में पायल नहीं बजते और न बिछुओं की झनकार होती। वह खूब तेज घोड़ा दौड़ाती, हिरन के पीछे डाल देती। बर्डी या भाला उसके हाथ में होता और वह किसी तरह भी अपने आखेट को हाथ से जाने नहीं देती।

लक्ष्मीबाई की दिनचर्या अपने में अद्वितीय थी।

प्रातः सबसे पहिले उठकर वह पति के दर्शन करती, उनकी चरणा-रज माथे से लगा, फिर दैनिक कार्यों से निवृत्त होती।

दिन का पहला पहर व्यतीत नहीं हो पाता और वह अपना अध्ययन कार्य समाप्त कर लेती। उसके अध्यपन के ग्रंथ एक ओर धार्मिक थे तो दूसरी तरफ वीर-रस से पूर्ण ।

रामायण से वह नीति की शिक्षा लेती, इसमें उसे नीति मिलती। महाभारत उसे उत्थान और पतन का आभास कराता।

शिवाजी और महाराणा प्रताप की कहानियां उसमें जीवन फूंकतीं, देश-प्रेम जगाती, स्वाधीनता के यह पुजारी उसके लिए प्रशंसनीय ही नहीं पूज्य थे।

वह इन देश-भक्तों के जीवन से यह प्रेरणा लेती कि ईस्ट-इण्डिया कंपनी की दासता से वह मुक्त होकर रहेगी, अपनी झांसी को स्वतंत्र करेगी।

अध्ययन के बाद लक्ष्मीबाई अल्पाहार करती, फिर वह लगभग एक प्रहर बाद शस्त्र-अस्त्र चलाने का अभ्यास करती।

दोपहर दो वह पति के साथ बैठ राजनीति पर विचार करती और तीसरा पहर होते ही घोड़े पर सवार हो जाती।

कभी घुड़दौड़ को जाती तो कभी शिकार खेलने। रात को घर आती तो गंगाराव उसकी प्रतीक्षा में रत होते।

गंगाधर राव को अपनी पत्नी से बड़ा अनुराग था।

उन्होंने कभी रानी को व्यायाम आदि के लिए मना नहीं किया। उसे पूरी छूट दे रखी थी। उन्हें उस पर अभिमान था।

और क्यों न होता, 'हाथ-कंगन को आरसी क्या' । रानी रात को जब बाहर से लौटती तो राजा के साथ ही भोजन करती।

दोनों में विचार-विमर्श किया जाता, मंत्रारणा होती। गंगाधर राव देखते कि रानी उलझी हुई गुत्थी को तत्काल ही सुलझा देती है और वह भी हंसकर।

फिर रानी अपने राजा के चरण दबाती। यद्यपि राजा इसके लिए उसे बहुत मना करते; लेकिन वह बड़ी हठी थी। नहीं मानती, नहीं मानती। कभी-कभी दम्पती शतरंज खेलने बैठ जाते तो कभी शिकार की बातें होने लगतीं।

राजा गंगाधर राव को उस समय रानी से बहुत बड़ा सहयोग मिलता।

जब वह उनके साथ दरबार में बैठती। वह न्याय करती, प्रजा की बात सुनती। और उसका दुःख-दर्द दूर करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करती। रानी का रनिवास और उसके पास-पड़ोस का वातावरण वीरता का एक अखाड़ा बन गया था।

उसका स्वभाव बड़ा मृदुल था और बुद्धि प्रखर। वह प्रजा और राजा सभी की प्रिय थी। राज-सभा उसके बिना सूनी लगती और उसके भक्त सोचने लगते कि अभी दरबार अधूरा है।

अभी न्याय की देवी नहीं आई। इतनी श्रद्धा थी लोगों की अपनी रानी के प्रति। अब वह चौदह वर्ष की हो गई थी।

रानी ने अपनी सखी-मंडली का विस्तार किया। सुंदर, मुंदर और काशी ये तो उसकी प्रमुख सेविकाएं थीं ही। इसके अतिरिक्त तमाम युवतियां स्वयं आकर सेवा करने लग जातीं; लेकिन वह उनसे सेवा नहीं लेती। उन्हें गले से लगाती।

उनमें वीरों की भावना भरती, देश-प्रेम फूंकती और उसके इस जादू का चमत्कार चंद दिन बाद ही प्रत्यक्ष देखने को मिल जाता। वे ही युवतियां तीर चलातीं, घोड़े की सवारी करतीं, तलवार चलातीं, शिकार खेलने में उसका साथ देतीं।

यही नहीं कि रानी में केवल कोरी वीर-भावना ही थी, वह यौवन का भी महत्त्व समझती थी, उसके सौंदर्य को पहिचानती। उसमें कला थी, जो समय-समय पर मुखरित होती रहती थी।

वह चित्र बनाती-वीरों के। चित्रकारी उसका बहुत प्रिय विषय था। संगीत से भी उसे अनुराग था। वह तानपूरा और सितार बजा लेती।

पक्के गीत गाती-जिनमें पृथ्वीराज और संयोगिता की कहानी होती, वीर हमीर की गाथा और राणा अनुपम त्याग।

लक्ष्मीबाई वीरांगना होते हुए भी बहुत सुकुमार थी।

उसके बदन का ढलाव इस प्रकार था मानो किसी शिल्पी ने सांचे में मूर्ति ढाल दी हो।

उसकी आंखों में सबके प्रति प्यार था, अपनी प्रजा के लिए दुलार।

वह अपने प्रति बहुत बड़े उत्तरदायित्व का अनुभव करती कि वह प्रजा की दीवाल है।

रिआसा उसी के सहारे खड़ी है। उसने मन ही मन यह संकल्प ले लिया था कि वह अपनी झांसी को अंग्रेजों से मुक्त करके ही रहेगी।

वह ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व स्वीकार नहीं करेगी। जल्दी ही वह समय आ जाएगा।

जब कि वह ईस्ट इंडिया कंपनी के पोलिटिकुल एजेंट को अपने राज्य-संबंधी कोई भी हस्तक्षेप नहीं करने देगी।

उसने संकल्प को दुख के रूप में बदल दिया, लेकिन किसी से कहा नहीं-बात मन में ही रखी।