रानी के पुत्र का जन्म

अब रानी लक्ष्मीबाई के ब्याह को नौ वर्ष व्यतीत हो गए थे।

वह षोडषी थी। राजा गंगाधर राव मन ही मन फूले नहीं समा रहे थे, कि उनकी पत्नी गर्भवती थी। उनकी वृद्धावस्था थी।

संतान का होना आवश्यक था वर्ना राज्य का उत्तराधिकारी कौन बनता।

गंगाधरराव को यह चिंता दिन रात सताया करती। यद्यपि उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था और वे किसी प्रकार भी वृद्ध नजर नहीं आते।

अब तो रानी लक्ष्मीबाई फूलों से तौली जाती। जो आता उसके नाज़र उठाता।

राजा कहते, 'ऐ रानी तुम आराम करो। तुम्हें सेवा की जरूरत है। और दासियां कहतीं कि मेरे मुंह में घी शक्कर, रानी जी के लड़का होगा।

सोने का हार लूंगी महारानी जी, एक भी नहीं मानूंगी। बस समझ लो कि झांसी का युवराज जल्दी ही होने वाला है। रानी शर्मा जाती।

वह सखियों की ओर कनखियों से देखने लगती। उसने कभी भी अपनी दासियों को सखियों से कम नहीं समझा।

गर्भावस्था में भी रानी के चेहरे पर पीलापन नहीं आया।

उसके मुंह पर कान्ती ज्यों की त्यों द्युतिमान रही। आखिर वह दिन आ गया जब झांसी का भाग्य अपने हाथ में खुली हुई किताब लेकर उचित न्याय के लिए अवतीर्ण हुआ।

महारानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र प्रसव किया। तोपों की सलामी दी गई, गोले छूटे। रात को अनार और मेहताब जले। राजमहल के आंगन में शहनाई बजी।

कहीं तबला ठनका और कहीं मृदंग। कहीं हारमोनियम के स्वर सप्तक पर बुलन्द हुए। मंजीरा खूब बजा। ढोलक के साथ महलों में।

हिजड़ों ने सोहर गाए। सरिया का राग अलापा गया। दान बांटा गंगाधर राव ने। कंगलों को भोजन मिला, मंगतों को कपड़े। रियाया भर में खुशी की लहर दौड़ गई कि उनके राजा के राजकुमार हुआ।

रानी लक्ष्मीबाई इस अवसर पर बिल्कुल मौन थी। सुंदर बालक को नहलाती। मुंदर उसे खिलाती।

काशी उस शिशु के भी काजल लगाती, ठीक उसी तरह, जैसे वह रानी की आंखें आंजती थी।

वह पूत की बलाएं लेती, मनौतियां मानती और आशा तथा विश्वास के साथ छाती ठोककर कहती कि हमारा युवराज अंग्रेजों के दांत खट्टे करेगा। उसके राज्य में झांसी अंग्रेजों के अधीन नहीं रहेगी।

रानी पर इन बातों का प्रभाव पड़ता और वह सोचने लगती। कि अगर भविष्य में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति यही रही तो एक दिन देश गुलाम हो जाएगा, दूसरे के अधीन। आजादी कितनी महंगी है और गुलामी कितनी सस्ती।

आजादी त्याग मांगती है और खून। और गुलामी जिंदा को मुर्दा बना देती है आदमी बुजदिल हो जाता है।

नहीं यह नहीं होगा, कभी नहीं होगा। अंग्रेज भारत से जाएंगे, जरूर जाएंगे। वह दिन जल्दी आएगा अब दूर नहीं।

इस तरह कभी-कभी रानी चौंक उठती। वह स्वयं अपनी स्थिति को देखकर हैरान हो जाती।

उसे दिखलाई देता कि पूरब के आकाश में लाल-लाल सूरज निकल रहा है। धरती पर क्षीण कोलाहल है और चिड़ियों का कलरव।

झांसी अपना परिवर्तित रूप देख रही है, भविष्य के दर्पण में। उसमें ज्वाला की लपटें हैं। झांसी जल रही है। चिनगारी शोला में बदल गई। यही गदर की नींव थी।

अन्य राज्यों से भी राजा गंगाधर राव के पास शुभकामनाएं आई। शुभ आशीष और शुभ आशीर्वाद ! उनका पुत्र चिरंजीव रहे, यह प्रत्येक की कामना थी।

रानी लक्ष्मीबाई ने सुंदर-मुंदर और काशी को मुंह मांगा इनाम दिया। उसने देखा कि मारे खुशी के सबकी सब पागल हो रही हैं।

उसे गर्व हो आया अपनी दासियों पर जो उसकी सहेलियों के अनुरूप थीं। वह यह सोचकर गर्व से अपनी छाती फुलाने लगी कि मेरा महिला समाज भी प्रगति की ओर अग्रसर है। सुंदर एक चलता फिरता करिश्मा है।

मुंदर सबको मोह ले ऐसी मन मोहनी माया है और काशी काया है ऐसी जीवट पुतली की जिसकी दूसरी मिसाल नहीं है।

राजा गंगाधर राव दिन भर पुत्र के पास बैठे रहते। वे उसका मुंह ही मुंह निहारा करते।

रानी यह देखकर बहुत प्रसन्न होती। उसी से फूली नहीं समाती। वह पुत्र को उठाकर पति की गोद में दे देती फिर स्वयं अंक में भर उसकी बलाएं लेती। वह मन । ही मन अपनी हार मान रही थी।

किंतु पुत्र के मोह ने उसे जीत लिया था। अपनी यह दुर्बलता वह किसी पर व्यक्त नहीं होने देती। उसका ओज लोगों में साहस भरता।

उसकी हिम्मत परिणाम की कहानी कहने लगती कि वह वीरांगना है, एक राजा की रानी प्रजा उसकी रियाया है। उसे उसका ध्यान रखना है।

लक्ष्मीबाई का पुत्र अब तीन महीने का हो गया था। उसके जन्म के बाद से राजमहल में ऐसा लगता मानो नवजीवन का गया हो। दुनिया बदल गई हो, नया जमाना गुजर रहा हो। घर-घर मंगल-गीत गाए जाते। युवराज के लिए। शुभकामनाएं की जातीं। । झांसी का बच्चा-बच्चा युवराज को चिरंजीव होने का आशीर्वाद दे रहा था।

रानी शिशु के जन्म के बाद अपनी प्रगति भूल गई हो ऐसा नहीं। वह प्रतिदिन व्यायाम करती, घुड़सवारी की।

वह शस्त्र-अस्त्रों का अभ्यास करती। वह मां अवश्य बन गई थी, लेकिन रानी थी स्वामिनी भारत के झांसी प्रदेश की। वह भारतीय गौरव की कड़ी थी। जिसमें युग की पगध्वनि सुनाई देती है।

अब रानी को अपना भविष्य उज्ज्वल दिखलायी पड़ रहा था। उसे लग रहा था कि झांसी का राज्य निष्कण्टक हो जाएगा।

उस पर किसी का प्रभाव और प्रभुत्व नहीं रहेगा। क्योंकि उसके घर में उत्तराधिकारी आ गया है। और जब घर का युवराज मौजूद है। न तो भविष्य में राज्य की बागडोर वही सम्हालेगा।

इस तरह रानी पुत्र का मुंह देखकर भविष्य के लिए निश्चिंत हो गई थी कि अब दुश्मनों का अंत हो जाएगा। और वह शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकेगी।