गंगाधर तथा लक्ष्मीबाई गोद लिया बच्चा

राजा गंगाधर राव और लक्ष्मीबाई अपनी योजना में सफल हो गए।

उन्हें एक बालक मिल गया जो उनके निकट संपर्क में था।

यह था वासुदेवराव नेवाल का का लड़का। राजा ने उसे गोद लेना दृढ़ निश्चय कर लिया।

बात पक्की हो गई। मां-बाप ने हंसकर अपने पांच वर्षीय पुत्र आनंदराव को गंगाधर तथा लक्ष्मीबाई के हाथों में सौंप दिया। शास्त्रीय विधि से गोद लेने की रस्म पूरी की जाने की योजना बनाई जाने लगी।

रानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसके सखी-समाज में भी हर्ष की लहर दौड़ गई। लड़के का नाम आनंद राव था।

लक्ष्मीबाई ने उसका नाम दामोदर गंगाधर राव रखा क्योंकि उसी नाम से उसे उत्तराधिकारी नियुक्त होना था।

दामोदर गंगाधर राव को गोद लेने की रस्म खूब धूम-धाम से मनाई गई। शास्त्रीय ढंग से उस प्रथा का पूरा-पूरा पालन हुआ। समारोह कुछ दिन चलता रहा। नगर में खूब जश्न मनाया गया। जिसे देखो वही खुशी की लहर में बहा चला जा रहा था।

इस अवसर पर झांसी के संभ्रांत नागरिक, गण्यमान प्रमुख व्यक्ति, ईस्ट इंडिया कंपनी का पोलिटिकल एजेण्ट तथा अंग्रेज उच्च अधिकारी मौजूद थे। सबने राजा गंगाधर राव की सराहना की।

लक्ष्मीबाई का सम्मान स्वीकार किया और झांसी के भावी उत्तराधिकारी युवराज को आशीर्वाद दिया। जनता में घर-घर राजा-रानी की चर्चा थी।

राजा ने संतोष की सांस ली। उनका शरीर जर्जर हो चला था।

खांसी और ज्वर उन्हें कभी मुक्त नहीं करता। वे रोग से लड़ रहे थे और वह विजयी बना था। राज-वैद्य दिन-रात सेवा में उपस्थित रहते; किंतु फिर भी राजा गंगाधर राव स्वास्थ्य लाभ नहीं कर पाते। वे दुर्बल होते जा रहे थे और अब बिल्कुल क्षीण-काय हो रहे थे।

अपनी ढलती उम्र और गिरती अवस्था का राजा को अच्छी तरह बोध था। इसीलिए उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार को लिखित भेजा कि बालक दामोदर गंगाधर राव को मैंने, शास्त्र की रीति से गोद ले लिया है।

मेरे मरने के बाद उसे युवराज का पद प्राप्त होगा। झांसी का उत्तराधिकारी वही बनेगा। इस वसीयत के साथ ही साथ राजा ने कंपनी सरकार को यह भी लिखा था कि लक्ष्मीबाई अपनी जिंदगी भर झांसी पर राज्य करेगी। स्वामिनी वही रहेगी और राज-काज भी वही देखेगी।

राजा ईस्ट इंडिया कंपनी के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। पोलिटिकल एजेण्ट के द्वारा जवाब आने को था। उसमें विलंब होती चली गई। राजा रास्ता ही देखते रहे।

अब राजा का स्वास्थ्य बहुत गिर गया था। वे ज्वर-पीड़ित

रहते। खांसी भी उन्हें खूब आती। वे रानी को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देते। उपचार निरंतर चल रहा था।

अच्छी से अच्छी गुणकारी औषधियां दी जा रही थीं; लेकिन बुढ़ापे ने जीत लिया था राजा को और रोग उस बुढ़ापे का साथ दे रहा था। अब वे उतने दुखी नहीं थे।

हां, इस बात का अंदेशा उन्हें जरूर था कि कहीं उनकी मृत्यु हो गई और कंपनी सरकार का जवाब न आ पाया तो हो सकता है कि अंग्रेज बदल जाएं। वे दामोदर राव को मेरा उत्तराधिकारी न मानें। अभी मैं मोजूद हूं, मेरा कुछ लिहाज करेंगे।

राजा कभी-कभी अपनी यह दुश्चिंता अपनी रानी पर भी प्रकट करते। आशा और भरोसे को लेकर बात टल जाती।

दिन पर दिन बीतते जा रहे थे मगर ईस्ट इंडिया कंपनी से राजा के पास कोई जवाब नहीं आया।

राजा के गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर रानी दिन-रात चिंतित रहती। वह पति-सेवा को बहुत महत्त्व देती। इसीलिए आजकल सब काम छोड़कर राजा की सेवा में उपस्थित रहती। वह राजा का मन बहलाने का सतत प्रयास करती।

वह उन्हें गीता, रामायण और उपनिषद् पढ़कर सुनाती। कभी-कभी दंपती के बीच धर्म-चर्चा चलने लगती। कहने का अर्थ यह कि रानी राजा को ऊबने नहीं देती। उनका मन बहलाए रहती।

बालक दामोदर राव से रानी लक्ष्मीबाई को विशेष स्नेह था। वह उसे उमंग में आ गोद में भर लेती तो बालक को भी अनुभव होता कि उसकी मां यही है। वह उसके सामने रोता, मचलता, ज़िद करता। रानी उसके नाज़ उठाती, प्यार करती, दुलार से

डांटती और कभी-कभी मीठे क्रोध में आ उसके कान भी गरम कर देती।

राजा मां-बेटे का यह मधुर व्यापार देखकर फूले नहीं समाते। उन्हें भविष्य पर भरोसा होने लगता कि ये दोनों मां-बेटा मिलकर झांसी को नया जीवन देंगे। रानी के अंदर क्रांति की चिनगारी छिपी है।

चिनगारी कभी भी शोला बनकर भड़क सकती है, यह मैं जानता हूं। बालक दामोदर राव रानी की देख-रेख में बड़ा होगा। शिक्षा-दीक्षा भी उसी के द्वारा सम्पन्न होगी। फिर संदेह का प्रश्न ही नहीं उठता।

निश्चय है, कि वह एक दिन योद्धा बनेगा। रानी अपने को चरितार्थ कर रही थी। राजा की अस्वस्थता के कारण वह राज-काज भी देखती। उसमें उसे बहुत समय देना पड़ता।

इसके अतिरिक्त पति की देख-रेख भी बहुत आवश्यक थी; लेकिन फिर भी इन सबसे समय बचाकर वह दामोदर राव पर ध्यान देती। उसकी प्रगति में तनिक भी बाधा नहीं पड़ने देती।

उसका अध्ययन राज-पुरोहित द्वारा सम्पन्न हो रहा था। शस्त्र चलाने की शिक्षा रानी उसे स्वयं देती। उसने उसे घोड़े की सवारी, तैराकी आदि भी सिखलाया।

वह उसके समक्ष सबसे पहिले मां थी फिर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई। तत्पश्चात् शिक्षिका थी, गुरुआनी। वह वीर-बाला थी, भारतीय वीरांगना। उसमें गुणों की खान थी, वह मानवी नहीं देवी थी।

समय का पहिया अपनी पूरी रफ्तार से घूम रहा था। राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत ही बिगड़ गया था। जिंदगी बिदा के क्षणगिन रही थी। उधर ईस्ट इंडिया कंपनी का जवाब अभी तक नहीं आया था। दामोदर राव की शिक्षा-दीक्षा जोरों से चल रही थी।

रानी कभी सुनती कि अंग्रेजों ने किसी गांव में आग लगा दी। बाजार लूट ली। लोगों को फांसी पर लटका दिया। ये अत्याचार की कहानियां उसके कानों में तेजाब की बूंदों की भांति गिरतीं।

खून में जोश आ जाता और वह जोश से भर जाती। यद्यपि परिस्थितियां अपना रंग दिखला रही थीं, लेकिन फिर भी रानी के किसी कार्य में बाधा नहीं पड़ती। वह प्रगति की ओर अग्रसर थी। वह अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाती।