रानी ने किला छोड़ दिया

सत्ताईस फरवरी सन् 1954 में ईस्ट इंडिया कंपनी का लक्ष्मीबाई को यह आदेश मिला था कि वह मासिक वृत्ति स्वीकार कर ले।

उसे राज्य से कोई मतलब नहीं रहेगा।

उसके कुछ दिन बाद ही 25 मार्च 1854 को कंपनी सरकार ने झांसी के खजाने से 6 लाख रुपया निकाल लिया।

रानी कुछ नहीं कर पायी, वह देखती रह गई। पोलिटिकल एजेण्ट ने उसके संतोष के लिए उसे आश्वासन दिया।

उसने बतलाया कि कंपनी सरकार यह छः लाख रुपया दामोदर राव को बालिग होने पर ब्याज-सहित लौटा देगी। इस तरह रुपया ईस्ट इंडिया कंपनी के सरकारी खजाने में जमा हो गया।

प्रगट में रानी कुछ नहीं कह पाई; लेकिन भीतर ही भीतर उसके तन-बदन में आग लग गई।

उसने बहुत जब्त किया, समाई से काम लिया। उसे स्वयं अपने से डर लगने लगा कि कहीं उसके भीतर की लक्ष्मीबाई रणचंडी का रूप धारण न कर ले। रानी अंग्रेजों की करतूत देख रही थी।

उसने पांच हजार रुपये हीरे-जवाहरात, की अपने लिए वृत्ति स्वीकार कर ली थी, फिर भी उसे आदेश था कि वह किला छोड़ दे और शहर के महल में रहे।

यह कहा गया कि जब तक दामोदर राव बालिग नहीं होता तब तक राज्य की बागडोर कंपनी सरकार के हाथ में रहेगी और तभी वह छः लाख रुपया भी उसे मिश्रधन के रूप में मिल जाएगा।

इसके अलावा सोने-चांदी के गहने, मोती, पन्ना आदि के आभूषण, रानी को सौंप दिए गए कि जब तक दामोदर राव युवा नहीं होता, ये जवाहरात और ज़ेवर रानी के पास धरोहर रहेंगे।

सांझ का सूरज अस्ताचल की गोद में जा चुका था।

सान्ध्य-बेला थी। किसी का मिलन-पर्व। पक्षी बसेरे पर जा चुके थे।

उनका कलरव शांत हो चुका था। एक दासी ने आकर सूचना दी कि-“रानी साहब शहर के महल की सफाई हो गई है।

तशरीफ ले चलिए, सवारी बाहर खड़ी है।

आज तीसरी बार रोयी रानी। उसकी आंखों से दो बड़े-बड़े आंसू गिरे।

उसने पति का शयन-कक्ष देखा और पुत्र का पालना।

उसने दरबार देखा, फिर देखा अपनी सखियों की ओर। मुंदर से आंखें मिलीं तो वे भर आईं और सुंदर से दृष्टि का साक्षात्कार होते ही आंसू पलकों तक आ गए।

फिर काशी की ओर देख नहीं पाई रानी, आंसू चू पड़े।

रानी ने किला छोड़ दिया।

वह नगर के महल में चली आयी। दामोदर राव उसके साथ था।

वह उसे अपनी जिंदगी का सहारा समझती। उसका सखी-समाज उसके साथ आया था, किले में कोई नहीं रहा। उसके विश्वस्त सभासद भी उसके साथ थे।

धीरे-धीरे एक साल बीत गया। रानी को ईस्ट इंडिया कंपनी से जो पांच हजार रुपये की पेंशन बंधी थी, वह प्रतिमास मिल जाती।

रानी भी राज्यकार्य में हस्तक्षेप नहीं करती। वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी, जब दामोदर राव जवान होगा।

कंपनी सरकार के प्रति रानी के मन में विद्रोह की भावना घर कर गई थी। वह अंग्रेजों से न्याय चाहती थी, लेकिन वहां सुनवाई नहीं होती। किसी की बात पर भी ध्यान नहीं दिया जाता।

देश की जनता बहुत दुखी थी। वह अत्याचार सहते-सहते दुखिया हो गई थी। किसानों से कर बेरहमी से वसूल किया जाता।

न देने पर उनके जानवर खोल लिए जाते। झगड़ा करने पर उनकी झोंपड़ी जला दी लाती। यदि कोई हमलावर होता तो उसे गोली से उड़ा दिया जाता।

इस तरह देश क्रांति के रंग में रंग रहा था। लोगों के मुंह बंद थे; लेकिन उनके भीतर आजादी की आग जल रही थी।

10 मई को प्रातःकाल मेरठ की छावनी में सैनिकों ने कुछ गड़बड़ी की।

यह सन् 1859 था। गदर की नींव यहीं से पड़ी। इंगलैंड से भारत में जो कारतूस आते थे, उन पर गाय और सूअर की चर्बी लगी होती।

उनका प्रयोग करने से पहिले उन्हें दांतों से काटना पड़ता था। भारतीय सैनिक इससे परहेज करते। 10 मई 1859 को मेरठ छावनी में सैनिकों ने कारतूस चलाने से इनकार कर दिया। वे विद्रोही हो गए।

रानी को यह समाचार मिला। वह भी योजना बनाने लगी कि अब वह समय दूर नहीं, जब कि वह अंग्रेजों से लोहा लेगी।

रानी अपने सखी-समाज में बैठी देर तक मंत्रणा करती रही। उसके बाद ही उसे नित्य नए समाचार मिलने लगे, कि दिल्ली में

भी क्रांति की लहर दौड़ गई है। भारतीय सैनिक अंग्रेजों के दुश्मन हो रहे हैं। आगरा में भी हलचल मच गई।

अंग्रेजों की रेजिडेंसी में भगदड़ मच गई।

रानी ने दोनों मुट्ठियां बांधी, अपनी बांहों को तौला और फिर भाला उठाया हाथ में।

वह देवी के सम्मुख नत हो गयी, और बोली, “मां दुर्गे! मैं रणचण्डी बनूंगी, मेरी इच्छा पूरी हो मां! मैं देश की आजादी के लिए लडूंगी। भगवती दुर्गा मुझे शक्ति दे।"

बस फिर क्या था, रानी का महल एक अच्छा-खासा अखाड़ा बन गया।

दिन भर वहां शस्त्र-अस्त्रों का अभ्यास होता। सेना का मोर्चा बनाया जाता। उसकी ब्यूह-रचना कभी काशी करती, कभी सुंदर। मुंदर का हाथ कमाल का था। वह तलवार बहुत अच्छी चलाती।

बालक दामोदर राव भी पीछे नहीं रहता, वह भी उस अभ्यास में भाग लेता। रानी को यह देखकर प्रसन्नता होती।

वह कभी-कभी अपने सहयोगी रामचन्द्र राव से कह देती-“देखो, राव! दामोदर राव शूर-वीर होगा। इसीलिए उसकी शिक्षा का भार मैंने अपने ऊपर ले रखा है।"

झांसी के किले में अंग्रेज सैनिकों से भारतीय सैनिकों की संख्या अधिक थी।

दोनों पक्षों में असंतोष फैलता जा रहा था। चिनगारी भीतर ही भीतर सुलग रही थी। वह एक दिन भड़कने वाली थी। रानी को भी इस रहस्य का पता था।

वह अवसर की प्रतीक्षा में थी कि तनिक भी विद्रोह भड़के और मैं तलवार लेकर अंग्रेजों के सामने मैदान में आ जाऊं।