दस मई, अठारह सौ सत्तावन को मेरठ की छावनी में भारतीय सैनिकों के बीच जो असंतोष फैला।
मंगल पांडे जो उनका नायक बना उसे-ईस्ट इंडिया कंपनी ने फांसी पर लटका दिया।
क्रांतिक की लहर सारे देश में दौड़ गई।
कोई भी नगर अछूता नहीं छूटा।
लखनऊ, कानपुर, आगरा, देहली, इटावा, अलीगढ़, ग्वालियर, पटना, झांसी और अयोध्या में विद्रोहियों ने नारे बुलंद किए-“फिरंगियों का नाश हो।
भारत आजाद हो। धर्म का राज हो।" यह गगन भेदी नारे लगाए जाने लगे।
अंग्रेजों को जहां पाया जाता उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता। उन फिरंगी नर-पिशाचों को रुधिर की गंगा में बहाना प्रत्येक भारतीय अपना कर्त्तव्य समझता था।
पांच जून, अठारह सौ सत्तावन को झांसी के किले में जितने भी अंग्रेज अफसर और अंग्रेज सैनिक थे उन्हें भारतीय सैनिकों ने मौत के घाट उतार दिया। इससे अंग्रेजों की रेजीडेंसी में बड़ी हलचल मच गई।
अंग्रेज अफसर अपने स्त्री बच्चों को लेकर झांसी से भागने लगे।
इधर सैनिकों का नारा बुलंद हो रहा था-"फिरंगियों का नाश हो।
अंग्रेजों का नाश हो। ईस्ट इंडिया कंपनी हाय-हाय!" रानी लक्ष्मीबाई ने यह स्थिति देख अपना दूत और हरकारा बिठूर भेजा।
उसने अपने बचपन के साथी नानाराव को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए कहा।
उसने निमंत्रण भेजा कि नाना राव झांसी आए और उसके साथ मिलकर अंग्रेजों से मोर्चा ले।
जब से राजा की मृत्यु हुई थी और ईस्ट इंडिया कंपनी ने रानी को पुत्र गोद लेने की अनुमति नहीं दी।
तब से नानाराव कई बार झांसी आ चुके थे। उनकी और रानी की खूब पटती थी। दोनों बचपन में साथ ही साथ खेले और संग ही संग बड़े हुए थे।
रानी रोज सुनती कि आज कानपुर के सैनिकों ने बगावत कर दी।
बहुत से अंग्रेज मार डाले गए। फिर उसे समाचार मिलता कि अलीगढ़ में मुसलमान सैनिकों ने अंग्रेजों की रेजीडेंसी पर हमला कर दिया। अयोध्या में भी आग का खेल खेला गया।
अंग्रेज जिंदा जलाए गए। उनके स्त्री बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया। रानी नाना की राह देख रही थी। कि उसकी फौजे आ जाएं। फिर वह कंपनी सरकार पर अचानक हमला करेगी।
पोलिटिकल एजेण्ट घबड़ाकर झांसी से भाग गया। उसने जाकर ईस्ट इंडिया कंपनी को सूचना दी कि झांसी में विद्रोह की आग भड़क उठी है।
रानी लक्ष्मीबाई युद्ध के लिए कमर कसे तैयार खड़ी थी वह रास्ता देख रही थी तो केवल नाना राव का।
दामोदर राव को उसने कलेजे से लगा रखा था। उसे एक क्षण के लिए भी अपने से पृथक् नहीं होने देती।
मुंदर रानी को उकसाती, वह कहती कि रानी जी, यही समय है हमला करके किले पर अपना अधिकार कर लो। अंग्रेजों के दांत खट्टे हो चुके हैं।
अब वे सिर नहीं उठाएंगे।
और सुंदर रानी को आकाश पर चढ़ा देती। वह भूमिका बांधकर कहती कि रानी जी अंग्रेजों की रेजिडेंसी का बुरा हाल है, कोई भी बाहर नहीं निकलता।
यही तो मौका है महारानी। सबको इकट्ठा कर हमला बोल दो, बस किला हमारे हाथ में होगा।
काशी कहती कि किला हमारा है अंग्रेजों के बाप का नहीं। किले पर अधिकार कर लो रानी जी, वह आपके पूर्वजों की संपत्ति है। नाश हो इन फिरंगियों का, इनका नाम निशान मिटा दो।
इन्होंने आकर पूरे देश को तबाह और बरबाद कर दिया है ।
यह सब सुन-सुन कर रानी की धमनियों में रक्त तेजी के साथ दौड़ने लगता।
उसमें जोश ही नहीं आता, आ जाता उबाल। फिर भी वह अपने पर काबू पाती और सोच समझकर कदम उठाती।
झांसी के किले में हुई दुर्घटना का समाचार ईस्ट इंडिया कंपनी को पहुंच चुका था।
वहां से विद्रोहियों के दमन के लिए एक विशाल सेना चल पड़ी थी, जो झांसी की ओर आ रही थी। रानी को इस बात का पता था। वह भी जागरूक थी।
उसने हरकारे की राह देखी, जो नानाराव के पास पत्र लेकर गया था। वह सोच रही थी कि जब तक सहयोगी साथ नहीं होंगे अंग्रेजों के साथ युद्ध में विजय होना असंभव है।
विद्रोह की लहर नगर भर में दौड़ रही थी, लेकिन रानी शांत थी, खामोश।
ऐसा लगता जैसे उसे इस विद्रोह से कोई मतलब नहीं है और न उसमें उसका हाथ है। अंग्रेज उसकी ओर से पूर्णतया निश्चिंत रहें इसलिए उसने यह चाल सोची थी।
रानी की अवस्था अधिक नहीं थी, लेकिन फिर भी वह विवेक और बुद्धि से काम लेती। वह किसी भी कार्य में जल्दी नहीं करती, यह उसका सिद्धांत था। उसके साथी योद्धा उसके आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब रानी आज्ञा दे और हम लोग अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ें।
रानी अपनी योजना को कार्यान्वित करने की जल्दी में थी कि दो तीन रियासतों से उसे सहायता मिल जाए तो फिर वह एक सामूहिक रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी से मोर्चा ले; क्योंकि कंपनी सरकार की सैन्यशक्ति बड़ी प्रबल थी।
रानी लक्ष्मीबाई अपने उद्देश्य पर स्थित थी। उसकी टेक थी कि अंग्रेजों को देश से निकाल दिया जाए। ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभुत्व का अंत हो जाए। रानी इस सब के लिए प्रयत्नशील थी; लेकिन अभी उसे अवसर नहीं मिल पाया था।
रानी के पास किले के सैनिक भी आते और उससे विचार-विमर्श करते। रानी उन्हें सान्त्वना देती और समझाकर कहती कि धीरज से काम लो भाई।
सांप के बिल में हाथ डालने से पहले उसका नतीजा तो सोच लो।
ईस्ट इंडिया कंपनी की ताकत बहुत बड़ी है, उसके साथ विशाल सेना है, उसका तोप खाना बहुत भारी है।
अभी तक अंग्रेज तोपों के बल पर ही जीते हैं। छल-प्रपंच और कूटनीति उसका स्वभाव है।
मनुष्य बदला जा सकता है लेकिन उसका स्वभाव नहीं।