कुदरत ने इन्सान को ईमानदार ही बनाया है । जब कोई अच्छा काम देखता है उसे अच्छा लगता है ।
जब गर्मी में ठण्डा पानी किसी प्याऊ से पीता है एक बार उसके मन में ध्यान आता है कि रब के बन्दे ने यह पानी का प्याऊ लगाया है ।
काम में भी ऐसा ही होता है । अच्छाई देखकर इन्सान का मन पिघल जाता है ।
उसका मन भी करता है कि मैं भी कुछ जरूर करुं ।
खासकर जब इन्सान बड़ी उम्र का होता है तो ईश्वर की बहुत याद आती है, क्योंकि एक समय बाद उसे हर हालत में जाना होता है ।
चाहे राजा हो या रंक, सब को सफर करना होता है । किसी का सफर आसान होता है । किसी का मुश्किल होता है ।
करना सब को पड़ता है । कभी-कभी इन्सान सोचता है कि मैंने किसी का बुरा नहीं किया, जितना भला हो सकता किया ।
यही सोच बार-बार उसे तसल्ली देती है । दिया हुआ सुख मरहम का काम करता है ।
इसलिए इन्सान तू जाग, देख तू कुछ कर सकता है तो जरूर कर । सुख न भी दे, मगर दुःख भी किसी को मत दे । यह भी एक सूत्र है ।
जब कोई चीज किसी को दी जाती है तो मन में सन्तोष उतपन्न होता है ।
सन्तोष का दूसरा नाम सुख है । दोनों सगे भाइयों की तरह हैं ।
पहले सन्तोष होता है फिर सुख का अनुभव होता है । दिल में किसी चीज की चाह होती है तो दिल में उस के प्रति लगाव तंग करता है ।
वो दुःख का कारण बनता है । सब चीजें सब के पास नहीं होती हैं ।
कुल मिलाकर देने से ही मन में सकून मिलता है । जब इन्सान बुढ़ापे की ओर बढ़ता है तो दिया हुआ बहुत याद आता है ।
मन में सन्तोष भी होता है । अगर किसी को कोई चीज देनी है तो देने से भी ज्यादा ली हुई चीज की याद आती है और कोशिश करता है कि वापस क्र दूं ।
फिर टाइम निकल चुका होता है करने की इच्छा भी होती है, मगर होता कुछ नहीं । दिया और किसी को जाता है । लिया किसी और से जाता है । इसलिए देना-लेना बराबरी नहीं होता ।