अजनबी

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

ने जाने क्‍यों, लोकनाथ को अपने जीवन की हर बात किसी न किसी जानवर की सूरत में याद आती थी।

बचपन के कितने ही पल एक अधाई हुई बिल्ली की तरह म्याऊँ-मयारऊँ करते हुए उसके पास से गुज़र जाते थे।

इन पलों को जैसे उसकी माँ ने अभी-अभी दूध से भरी कटोरी पिलाई हो, और उसके भूरे झबरैले बालों को उसके बाप ने जैसे अभी-अभी अपने हाथों से सहलाया हो।

लोकनाथ का छोटा भाई प्रेमनाथ अब नेवी में था।

इकहरे बदन का खूबसूरत-सा नौजवान। पर छुटपन में वह पढ़ाई में भी उतना ही कमज़ोर था जितना कि वह शरीर से दुबला था।

लोकनाथ जब उसे पढ़ाने के लिए अपने पास बिठाता था तो

किताब के अक्षरों पर सिकुड़ी हुई उसकी आँखें, कई बार अचानक सहम से फैलकर लोकनाथ का चेहरा ताकने लगती थीं।

और फिर जब लोकनाथ उसे दिलासा देता था तो जैसे मिन्‍नत सी करती हुई उसकी आँखें पिघलने लग जाती थीं।

और अब नेवी का अफसर बनकर वह नई-नई बन्दरगाहों पर जाता था और वहाँ से तस्वीरें खींचकर लोकनाथ को भेजता था तो लोकनाथ को उसके साथ बिताए हुए पलों की याद ऐसे आती थी जैसे एक छोटा - सा पिल्ला पूँछ हिलाते हुए अपनी गीली जीभ से उसकी तली को चाटने लगा हो।

उसने किसी राजनीतिक पार्टी में कभी दखल देना नहीं चाहा था।

पर अनुभव की भूख कई बार उसे मीटिंगों में ले जाती थी।

वह नहीं जानता कब खुफिया पुलिस ने अपने कागज़ों में उसका नाम दर्ज कर लिया था और उसके बारे में अपनी लम्बी-चौड़ी राय बना रखी थी।

उसकी डिग्रियों से घचराकर जब भी कभी कोई सरकारी दफ्तर उसे नौकरी का वचन दे देता तो पुलिस की यही लम्बी-चौड़ी राय उस वचन को एक ही झटके में तोड़कर रख देती।

अब जब कि लोकनाथ एक कालेज प्रोफेसर था और अपने लिए उसने एक निश्चित स्थान बना लिया था तो कई परेशान लमहों की याद उसे उन चीलों और बन्दरों की सूरत में याद आती थी जो न जाने कहाँ से आते थे और उसके हाथों को खरोंचकर रोटी का डुकड़ा छीनकर ले जाते थे।

सरकारी दफ्तरों की ढीली रफ्तार उसे केंचुओं - सी लगती किसी भी काबलियत के रास्ते में पेश आने वाली ईर्ष्या उसे साँप की तरह फुँकारती सुनाई देती।

कईयों की ईर्ष्या और जलन को उसने अपने शरीर पर झेला था-मैंसे के सींगों की तरह ।

अपने सगे-सम्बन्धियों के फ़िजूल उलाहनों और रूठने के पल उसे अलमारी में घुसे चूहे मालूम होते थे जो कीमती कागज़ों को कुतरते चले जाते हैं।

लोकनाथ को अपनी बीवी बहुत पसन्द थी।

इसी बीवी को, लोकनाथ का दिल कहता था, कि उसने किस्सा-कथाओं के इश्क से भी ज़्यादा इश्क किया था।

उसके साथ बिताई और बीत रही घड़ियाँ लोकनाथ की नज़र में ऐसे थीं जैसे नन्ही -नन्ही चिड़ियाँ उसके आसपास चहकती हों, जैसे कुंजों की एक कतार बादलों को काटकर गुजरी हो, जैसे घुग्गियों के कुछ जोड़े उसकी खिड़की में आकर बैठ गए हों, जैसे सुग्गों का एक झुण्ड उसके आँगन के पेड़ पर आ बैठा हो।

अपनी बीवी के खत, और बीवी के नाम लिखे हुए अपने खत लोकनाथ को हमेशा उन कबूतरों-से लगते थे जो किसी दीवार की ओट में घोंसला बनाने के लिए तिनके जोड़ते रहते हैं।

विवाह से पहले लोकनाथ अपनी बीवी को उसके जन्मदिन पर एक किताब भेंट किया करता था।

विवाह के बाद हर साल उसके जन्मदिन पर उसके होंठ चूमता था और कहता था, “मेरी उमर का यह साल एक किताब की तरह तुम्हारी नज़र ।”

इस तरह लोकनाथ अपनी बीवी को अब तक अपनी उमर के पच्चीस साल पच्चीस किताबों की तरह सौगात में दे चुका था।

उसे यकीन था कि उसके जीते जी उसकी बीवी का कोई ऐसा जन्मदिन नहीं जाएगा जब कि वह अपनी ज़िन्दगी का कोई साल एक खुली किताब की तरह उसे भेंट नहीं करेगा।

सिर्फ एक बार ऐसा हुआ था-बाईस साल पहले की बात है-एक सुबह लोकनाथ चारपाई से उठा तो उसका बदन तप रहा था। रात को वह अच्छा-भत्ना सोया था।

गरीवाला एक केक लाकर उसने अपनी अलमारी में रखा था।

इस बार न जाने कैसे उसकी बीवी को अपना जन्मदिन याद नहीं रहा था।

शायद इसलिए कि उसकी एक बहुत पुरानी सहेली कई सालों बाद उस दिन विदेश से लौट रही थी और उसने उसे मिलने के लिए जाना था।

लोकनाथ ने सुबह अपनी बीवी को चौंकाने के लिए केक लाकर आलमारी में छुपा दिया था।

पर सुबह जब वह उठा तो उसके माथे में ज़ोरों का दर्द हो रहा था।

बीवी के साथ उसने चाय भी पी और केक भी खाया, उसे चौंकाया भी, उसके होंठ चूमकर उसे अपनी उमर का एक साल किताब की तरह सौगात में भी दिया। पर उसके बाद वह सारा दिन चारपाई से नहीं उठ सका।

उस दिन वह सोच रहा था कि जो किताब इस बार उसने अपनी बीवी को दी थी, उस किताब का एक पन्‍ना उसमें से फटा हुआ था ।

उस रात वह फटा हुआ पन्ना किसी जानवर के टूटे हुए पंख की तरह उसकी छाती में हिलता रहा।

लोकनाथ की ज़िन्दगी के कुछ पल मासूम उड़ते परिन्दों की तरह थे, कुछ पालतू परिन्दों की तरह और कुछ जंगल के जानवरों की तरह।

पर किसी पल से वह कभी डरा नहीं था, चौंका भी नहीं था।

पर एक-लोकनाथ की ज़िन्दगी में एक वह घड़ी भी आई थी - मुश्किल से पन्द्रह मिनटों के लिए-जो एक बार एक चमगादड़ की तरह उसके मन में चली आई थी और बेशक होश-हवास की सारी खिड़कियाँ खुली थीं, पर वह घड़ी एक अन्धे चमगादड़ की तरह बार - बार दीवारों से टकराती रही थी और बार-बार लोकनाथ के कानों पर झपटती रही थी।

लोकनाथ ने घबराकर कानों पर हाथ रख लिए थे और कुछ मिनटों के लिए उसे आवाज़ें सुनाई नहीं दी थीं, उसकी जमीर की आवाज भी नहीं, पर एक आवाज थी जो उस समय भी कनपटियों में उसे सुनाई देती रही थी, और खून की इस आवाज़ से छुटकारा पाने के लिए उसने... ।

बाईस साल बीत गए थे। पर वह घड़ी, मुश्किल से पन्द्रह मिनटों की वह घड़ी, लोकनाथ को जब कभी याद आ जाती-याद नहीं आती थी बल्कि चमगादड़ की तरह उसके सिर पर उड़ती थी - तो लोकनाथ घबराकर उसे जल्दी बाहर निकाल देने के लिए उसके पीछे दौड़ने लगता था।

इस चमगादड़ जैसी घड़ी के आने का कोई समय नहीं था।

कभी 'फ्रायड' के पन्‍ने उलटते हुए वह अचानक आ जाती थी तो कभी किसी खूबसूरत कविता को पढ़ते हए वह अचानक आ जाती थी।

एक बार अपने नए जन्मे बेटे की गर्दन में से दूध की महक सूँघते हुए भी लोकनाथ को वह चमगादड़ दिखाई दिया था।

और आज जब लोकनाथ की बड़ी बेटी सुचेता, मायके के प्रसूत-काल काटकर ससुराल जाने लगी थी, और नन्‍हें से बालक को झोली में लेकर जब उसने अपने बाप से मिन्‍नत की थी कि उसकी छोटी बहन रीता को वह कुछ दिनों के लिए उसके साथ ससुराल भेज दे क्‍योंकि छोटा-सा बालक शायद उससे अकेले न सँभले, तो लोकनाथ के चेहरे का रंग पीला पड़ गया था।

एक चमगादड़ उसके सिर पर मँडराने लगा था।

आँगन में बैठी उसकी बीवी, उसकी बेटी, उसे लेने आया उसका खाविन्द, झोली में पड़ा बच्चा, कुछ दूर पर बैठी उसकी दूसरी बेटी, आँगन में कैरम खेल रहा उसका बेटा-सारे के सारे जैसे ओझल हो गए।

होश-हवास की सारी खिड़कियाँ खुली थीं, पर एक अन्धा चमगादड़ दीवारों से सर पटक रहा था, लोकनाथ के कानों पर झपट रहा था, और लोकनाथ उसे जल्दी से बाहर निकाल देने के लिए अपने मन की चारों नुक्कड़ों में दौड़ने लगा।

यह चमगादड़ एक स्मृति थी। बात बाईस साल पहले की थी-लोकनाथ के घर जब पहला बच्चा हुआ था, यही सुचेता। लोकनाथ की बीवी बेहद कमज़ोर हो आई थी।

अपनी बीवी को मायके से अपने घर लाने की जगह वह उसे पहाड़ पर ले गया था।

छोटा-सा बच्चा न उससे सम्भल पा रहा था न उसकी बीवी से इसलिए वह अपनी बीवी की छोटी बहन को भी अपने साथ पहाड़ पर ले गया था।

पन्द्रह सालों की वह उर्मी उसे बिलकुल अपनी बहन-सी दिखाई देती थी या अपनी बेटी की तरह जो कुछ सालों बाद उसी की उमर की हो जानी थी।

कई बार बच्ची जब सो रही होती थी तो उर्मी को घुमाने के लिए वह अपने साथ ले जाता था। उसकी बीवी अभी चल नहीं सकती थी।

कहीं-कहीं चीड़ के पेड़ों के नीचे झरे हुए तिनकों की तहें बैठ जाती थीं।

उर्मी दौड़ पड़ती थी तो लोकनाथ उसे फिसलने से बचाने के लिए हाथ पकड़ लेता था।

उसने यह कभी नहीं सोचा था कि इस उर्मी को उसके हाथों कभी ठेस भी लग सकती थी।

एक बार सैर के लिए जाते वक्‍त उसने अपनी बच्ची की गर्दन को चूमा।

सो रही बच्ची में से सौँफिया दूध और पाउडर की अजीब-सी गन्ध आ रही थी।

बच्ची की माँ भी बच्ची के पास लेटी हुई थी।

लोकनाथ ने उसके कान के पास होकर धीरे से अपने होंठ छुलाए तो बच्ची वाली गन्ध उसे अपनी बीवी के बालों में से भी आई।

और फिर उसी दिन की बात है, सैर करते हुए जब उसने उर्मी का हाथ पकड़कर उसे फिसलई चढ़ाई पर चढ़ने के लिए सहारा दिया तो उसके कन्धे को छूती हुई उसकी साँस में से भी उसे वही गन्ध आई।

लोकनाथ अपनी बीवी को मज़ाक करता आया था और उर्मी से भी बोला, “बेबी का सौंफिया दूध लगता है तुम दोनों को भी अच्छा लगने लगा है।”

इसके आगे लोकनाथ को नहीं मालूम कि क्‍या, कैसे हुआ।

एक गन्ध थी जो उसके गले सिमट आई थी-सौंफिया दूध की, पाउडर की, गुदाज़ चमड़ी की, औरत के अंगों की, और चीड़ के पेड़ों की।

और लोकनाथ को लगा कि जंगल की खुली हवा में भी उसका दम घुट रहा था। और फिर यह गन्ध कुहासे की तरह उठी और उसके गले से होकर माथे में छा गई।

और फिर सारे चेहरे उस कुहासे की ओट में छुप गए-उर्मी का चेहरा, उसकी बीवी का चेहरा, उसकी बच्ची का चेहरा।

चेहरों का अहसास होता था-पर पहचाने नहीं जाते थे।

फिर लोकनाथ को लगा कि दूर-पास कहीं कोई बस्ती नहीं थी।

जहाँ तक नज़र जाती थी-वहाँ तक सिर्फ खंडहर ही थे।

फिर किसी खंडहर में से चमगादड़ों की एक तेज गंध उठी और उसके सिर में छा गई।

फिर उसे लगा कि किसी दीवार की ओट से निकलकर एक चमगादड़ उसके कानों पर झपटने लगा था।

उसने घबराकर दोनों हाथ कानों पर रख लिए थे।

कुछ मिनटों के लिए उसे कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी थी - ज़मीर की आवाज़ भी नहीं, पर एक आवाज़ उसे अब भी सुनाई दे रही थी - सुनाई कानों से नहीं दे रही थी बल्कि खून की हर एक बूँद से उठ रही दिखती थी।

यह जैसे एक बहुत बड़ी साज़िश थी।

ज़मीर की आवाज़ के खिलाफ खून की आवाज़ की साज़िश थी-चेहरे की हर पहचान के खिलाफ एक बूँद की साज़िश थी-जंगल की खुली हवा के खिलाफ एक गन्ध की साज़िश थी-हर आबादी के खिलाफ हर खंडहर की साजिश थी।

लोकनाथ किसी की कोई साज़िश न समझ सका पन्द्रह मिनटों का वह समय जब उसकी उमर से टूटकर एक अंग की तरह दूर जा पड़ा तो लोकनाथ को लगा कि उसकी सारी ज़िन्दगी अपाहिज बनकर रह गई थी।

उस शाम जब वह घर लौटा, उसकी बीवी के कमरे में जो मोमबत्ती जल रही थी, लोकनाथ को लगा, उस मोमबत्ती की लपट, उसके चेहरे की तरफ देखकर थरथराती हुई जैसे जल्दी से बुझ जाना चाहती थी।

जब रात घिर आई तो अँधेरा लोकनाथ को अच्छा लगा।

पर फिर उसे लगा कि एक अँधेरा उसकी छाती में घिर आया था।

अँधेरे का एक टुकड़ा रात के अँधेरे से टूटकर अलग जा पड़ा था। रात का अँधेरा तालाब के पानी की तरह ठहरा हुआ था जिसमें से एक गन्ध उठ रही थी।

उस रात लोकनाथ को कितने ही ख्याल आए। उसे लगा कि वे सारे ख्याल इस तालाब में तैरते हुए मच्छरों जैसे थे।

दूसरे दिन वह पहाड़ से लौट आया था । उर्मी को उसके माँ-बाप के पास छोड़ आया था। और फिर उर्मी को उसके विवाह के दिन, एक बार भरे आँगन में मिलने के सिवा, वह कभी नहीं मिला था।

यह एक माफी थी, जिसे वह सारी उमर अपने को गैरहाज़िर रखकर उर्मी से माँगता रहा था।

“पापाजी !” सुचेता ने एक मिन्‍नत से लोकनाथ की खामोशी तोड़नी चाही। और धीरे से बोली, “आप क्या सोच रहे हैं पापा ? वैसे मैं जानती हूँ आप न नहीं करेंगे ।”

“क्या ?” लोकनाथ ने हैरान होकर अपनी बेटी की तरफ देखा। यह बेटी उसे बहुत प्यारी थी। उसकी बात उसने कभी नहीं टाली थी।

पर वह हैरान था कि अगर कोई होनी वक्‍त के साथ मिलकर एक साज़िश करने लगी थी, तो उसकी बेटी को इस साज़िश की समझ क्‍यों नहीं लग रही थी।

“रीता को कुछ दिन मैं अपने साथ ले जाऊँ? यह सोनी मुझसे सम्भलती नहीं...” सुचेता फिर कह रही थी।

साथ में माँ ने भी हामी भरी, “एक महीने तक रीता का कालेज खुल जाएगा यही छुट्टियों का एक महीना ही है...एक महीना ही सही...राजेन्द्र भी ज़ोर डाल रहे हैं।”

“राजेन्द्र बड़ा होनहार है,” लोकनाथ को ख्याल आया और फिर अपने जंवाई के चेहरे की तरफ देखते हुए उसे लगा कि कोई होनी एक पागल कुत्ते की तरह - इस

अच्छे लड़के को काटने के लिए तिलमिला रही थी।

वह तनकर खड़ा हो गया ऐसे जैसे वह उसे पागल कुत्ते से बचा सकता था।

“मैं अगले महीने खुद आकर रीता को छोड़ जाऊँगा,” राजेन्द्र ने धीरे से कहा।

“नहीं, बिल्कुल नहीं ।” लोकनाथ ने ज़रा सख्ती से कहा सबने घबराकर पहले लोकनाथ की ओर देखा, फिर एक-दूसरे की ओर, ऐसे जैसे उन्होंने लोकनाथ की आवाज़ नहीं सुनी थी, किसी बड़े अजनबी की आवाज़ सुनी थी।