एक रूमाल, एक अंगूठी, एक छलनी

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

कच्ची पहली से लेकर आठवीं तक बनती हमारे साथ पढ़ती रही थी।

अभी वह पाँचवीं में पहुँची ही थी, उसके पिता उसे स्कूल से छुड़ाने के लिए आ गए।

हमारे स्कूल की बड़ी उस्तादनी ने बनती की फीस माफ कर दी और यों उसे स्कूल न छोड़ने दिया।

सातवीं और आठवीं कक्षा की लड़कियाँ देखने में एकसाथ एक कमरे में बैठती थीं, पर आधी छुट्टी के समय आठवीं की लड़कियाँ हम सातवीं की लड़कियों को अपने पास नहीं फटकने देती थीं।

हमेशा अलग होकर बातें करती रहतीं। हम सातवीं की लड़कियाँ जब उनके निकट जातीं तो वे हमें दूर हटा देतीं हमें आठवीं की लड़कियों पर गुस्सा आता था और हम सोचती थीं कि हम जब आठवीं में होंगी तो सातवीं की लड़कियों के साथ कभी इस तरह नहीं करेंगी।

और फिर हम आठवीं कक्षा में चढ़ीं।

गर्मियों की छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुले, हमसे भी वही बात हो गई, जो हमने सोचा था कि हम कभी नहीं करेंगी। यह तेरहवॉँ-चौदहवाँ वर्ष, पता नहीं, कैसा होता है! यह शायद एक देहलीज़ होती है बचपन और जवानी के बीच में । इस वर्ष लड़कियों का एक पाँव देहलीज़ के इधर और एक पाँव देहलीज़ के उधर होता है।

इन गर्मी की छुट्टियों में बनती को एक पड़ोसी लड़का सवाल समझाता रहा था। हर रोज़ छुट्टी के समय बनती हमें छिप-छिपकर उसकी बातें सुनाया करती थी। अब हम आठवीं की लड़कियाँ आधी छुट्टी के समय सातवीं की लड़कियों को पास फटकने नहीं देती थीं।

जिस दिन बनती हमें उस लड़के की बात न सुनाती, हमें ऐसा लगता जैसे उस दिन स्कूल में आधी छुट्टी हुई ही नहीं थी।

“मेरी तो हँस-बोल लेने की प्रीत है, और मुझे क्या लेना है उससे! और उसने क्या लेना है मुझसे!” कभी-कभी बनती हमें इस तरह कहकर टालने लग गई थी।

बनती लाख टालती, पर उसके चेहरे से हमें प्रतीत होने लगा था कि वह हँस-बोल

लेने की प्रीत अब बनती के कण्ठ में से होकर उसके दिल में उतरने लग गई थीं। तभी तो अक्सर उसकी जुबान खुश्क हो जाती और वह ज़्यादा बातें नहीं कर पाती धी!

एक दिन उस पगली ने अपने हाथ में पेंसिल पकड़ी और गणित की कापी पर कोई बीस जगह उसका नाम लिख दिया-'राजू...राजू...राजू / हमारी उस्तादनी ने उसकी कापी देख ली। कक्षा में तो उसे कुछ न कहा, पर जब आधी छुट्टी हुई तो उसे अपने कमरे में बुलाया और कमरे का दरवाज़ा बन्द कर लिया। बनती की मानो शामत आई हुई थी। पर हम तो बनती की सहेलियाँ थीं। हम सबके चेहरे उतरे हुए थे। काफी समय के बाद जब बनती बाहर आई तो रो-रोकर उसकी आँखें लाल हो चुकी थीं। कापी पर जहाँ-जहाँ राजू का नाम लिखा था, उस्तादनी ने रबर से उसे मिटा दिया था।

आठवीं कक्षा जब एक नाव की तरह वार्षिक परीक्षा के किनारे लग गई तो सभी लड़कियाँ यात्रियों की तरह एक-दूसरे से अलग हो गईं। हमारा यह स्कूल तो आठवीं कक्षा तक ही था। बहुत-सी लड़कियाँ अलग-अलग स्कूलों में दाखिल हो गईं । बनती सिलाई के स्कूल में चली गई।

दो साल बाद मुझे बनती के विवाह का कार्ड मिला। और लड़कियों को भी गया होगा। मैंने जल्दी से कार्ड पर लड़के का नाम पढ़ा, लिखा हुआ था- कर्मचन्द!

कार्ड पर 'राजू” की बजाय यद्यपि 'कर्मचन्द' लिखा हुआ था तो भी वह विवाह का कार्ड था, और हरएक विवाह को बधाई लेने का हक होता है। मैं भी बनती के विवाह पर गई, उसे बधाई देने के लिए।

बनती के हाथों में मेहंदी, बनती की बाँहों में कलीरे। मैंने बन्ती को बधाई दी।

मैं बनती से उस हँस-बोल लेने की प्रीत के बारे में कोई बात नहीं करना चाहती थी, पर कुछ देर बाद वही मुझे एक तरफ ले गई और बोली :

“मेरी एक चीज़ सम्भालकर रख लोगी ?”

“क्या ?”

“एक रूमाल ।”

मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं थी कि रूमाल किसका है। रूमाल राजू का ही हो सकता था।

“इसमें ऐसी कौन-सी बात है। रूमाल तुम अपनी और चीज़ों के साथ ही कहीं रख लो न!”

“पर उसके एक कोने में उसका नाम लिखा हुआ है।”

“किसी को क्‍या पता, वह किसका नाम है ?”

“सिर्फ 'राज' लिखा होता-कोई देखता, पूछता, तो मैं कह देती, मेरी सहेली का नाम है। पर 'राजू' लिखा हुआ है। राजू तो लड़कियों का नाम नहीं होता!”

“किस चीज़ से लिखा हुआ है ?”

“उसने एक दिन पेन्सिल से लिख दिया था। मैंने सुई लेकर धागे से कढ़ाई कर दी!”

“धागा उधेड़ डालो!”

“उधेड़ डालूँ? यह तो मुझे ख्याल ही नहीं आया!” बनती ने एक लम्बी साँस भरी। कहने लगी, “तुम्हें याद है, एक दिन हमारी उस्तादनी ने रबर लेकर मेरी कापी में से उसका नाम ही मिटा डाला था? आज मैं उसी तरह से उसका नाम उपधेड़ देती हूँ।”

मेरा मन भर आया। बनती ने मेरे सामने ट्रंक में से सुर्ख रेशमी रूमाल निकाला और सुई लेकर उसपर कढ़ा राजू का नाम उधेड़ने में लग गई। बनती ने ही तो उसका नाम काढ़ा था! बनती ही की कापी पर से उसकी उस्तादनी ने राजू का नाम मिटा डाला था। विवाह के कार्ड पर समाज ने राजू का नाम न लिखने दिया; और आज वही बनती मेंहदी लगे हाथों से रूमाल पर से उसका नाम उधेड़ रही है।

“चलो, छोड़ो अब इन बातों को। तुम खुद तो कहा करती थीं, 'यह हँस-बोल लेने की प्रीत है'

“सोचा तो यही था पर यह हँस-बोल लेने का प्यार मेरी हड्डियों में समा गया है। लहू में रच गया है।” बनती की आँखें भर आईं।

“सुना है तुम्हारे ससुरालवाले बहुत अमीर हैं! अच्छे कर्मोवाली हो तुम? उसका नाम भी कर्मचन्द... ।” कितनी देर बाद मैंने बात को मोड़ा।

“नामों से भी कर्म बनते हैं?” बनती ने सिर्फ इतना ही कहा।

“कभी चिटूठी लिखा करोगी, या शाहनी बनकर हम सबको भूल जाओगी ?”

“कहीं भूलना अपने बस में होता!” बनती ने एक लम्बी आह भरी। इस समय भी शायद उसके मन में सहेलियों का ख्याल नहीं था, सिर्फ राजू का ख्याल था।

“राजू को तुम चाहे भूलो, न भूलो, पर चिट्ठी तो तुम उसे लिख नहीं सकोगी! हमें कभी-कभी लिख दिया करना, चाहे चिट्ठी में राजू की ही बातें लिखना!”

“अच्छा, कभी-कभी मन की भड़ास निकाल लिया करूँगी, पर एक बात है ”

“क्या ?”

“तुम मुझे उसकी बात कभी न लिखना। पता नहीं वे लोग कैसे हैं! बिल्कुल गाँव में रहते हैं। सुना है, चिटूठी भी वहाँ हफ्ते में दो बार जाती है। पते पर जिला, तहसील, डाकखाना, गाँव और न जाने क्या-क्या लिखना पड़ता है! शायद वे लोग मेरी चिट्ठी को पढ़कर ही मुझे दिया करेंगे!”

बन्ती को ससुराल गए आज पन्द्रह वर्ष हो गए हैं। पहले चार-पाँच वर्षों में उसने मुझे कुछ पत्र लिखे। ज्यादां नहीं, पर जितने भी लिखें उनमें उसके मन की भड़ास थी। मैं बन्ती को हमेशा जवाब देती रही, पर उसके कहने के मुताबिक सिर्फ रसमी किस्म के ही जवाब उसके पांस पहुँचते रहे। कभी उसके मन की बातों कॉ जवाब नहीं लिखा।

फिर दस वर्ष, बन्ती को पता नहीं क्‍या हुआ, उसने मुझे कोई पत्र न लिखा। मैंने समझा, अब वह अपने परिवार में खो गई होगी। मैंने भी कभी उसे पत्र न लिखा। सोचा, कहीं मेरा पत्र उसकी किसी सोई हुई पीड़ा को न जगा दे।

पर आज बन्ती का अचानक पत्र आया है। पता नहीं यह कैसा पत्र है! इसमें सिर्फ उसके मन की आवाज़ नहीं, इसमें जैसे हर स्त्री के मन की आवाज़ हो।

मेरा मन भरा हुआ है। उसने मुझे जवाब देने से रोका है, नहीं तो आज मैं उसे बहुत लम्बा पत्र लिखती और मेरा मन हल्का हो जाता।

आज मैंने उसके सारे पुराने पत्र निकाले हैं, (बीच के दो-तीन पत्र नहीं मिल रहे) और आज का पत्र भी सामने रखा हुआ है। एक बार सारे पत्रों को पढ़ रही हूँ। एक स्त्री के मन की आवाज़... ।

कि आज कौन-सा दिन है! सिर्फ जब गाँव में डाकिया आता है तो पता लगता है कि आज मंगलवार है या शनिवार। यहाँ पूरे हफ्ते में दो-बार डाकिया आता है, जैसे शहरों में तेल-ताँबा माँगनेवाले हफ्ते में दो बार आते हैं।

जब डाकिया आता है, मुझे ऐसा लगता है मानो वह कह रहा है, “मंगलवार, टले भार तेल-ताँबे का दान!” या “शनिवार, टले भार तेल-ताँबे का दान! पर वे लोग पता नहीं कैसा तेल-ताँबा दान करते हैं जिन्हें उनके मित्रों के, प्यारों के पत्र आते हैं। मैं किसके पत्र के लिए डाकिए का रास्ता देखूँ ?

अच्छा तुम्हीं मुझे दो शब्द लिख देना। कोई बात न लिखना पत्र में। बस,

इतना ही कि तुम्हें मेरा पत्र मिल गया। मैं इतनी बात के लिए ही डाकिये का रास्ता देखूँगी।

तुम्हारी बन्ती

तुमने बारात में मेरा ससुर देखा था, खिजाब-रंगीन दाढ़ीवाला! अगर तुम मेरी सास को देखो तो सच कहती हूँ, हैरान रह जाओ। सास तो क्या, अभी वह पुत्रवधू भी नहीं लगती, बिलकुल क्वारी लगती है। उम्र में वह मुझसे तीन-चार ही वर्ष बड़ी

होगी, पर शारीरिक तौर पर बहुत कोमल है, पतलीं-सी लचकतीं हुई हिरनी जैसी । चाहे वह मेरी सौतेली सास है, पर है तो सास ही न! अगर वह मेरी सास न होती तो सच कहती हूँ उसे अपनी सहेली बना लेती।

आज मंगलवार था। डाकिये को आना था। मुझे ख्याल आया, शायद तुम्हारा पत्र आए। मैं दरवाजे में खड़ी होकर डाकिये का रास्ता देखने लगी। मेरी सास भी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

डाकिया आया। उसने मुझे एक पत्र दिया। मैंने सास के चेहरे की ओर देखा। उसका चेहरा बहुत ही उदास था। ऐसे लगता था। जैसे आज जरूर ही किसी का पत्र उसके लिए आना था पर आया नहीं।

“भाभी, कोई चिट्ठी आनी थी तुम्हारी?” मैंने उसे इतनी उदास देखकर पूछा।

“मुझे किसकी चिटूठी आएगी?” पहले तो उसने यह कहा और फिर कहने लगी, “आनी तो थी एक चिट्ठी, पर आई नहीं।”

“किसकी चिटूठी?” मैंने फिर पूछा।

“ईश्वर की चिटूठी! और मुझे किसकी चिट्ठी आएगी?” लगता था वह अभी रो पड़ेगी, पर वह रोई नहीं। या ऐसा रोना रोई जो किसी को दिखाई नहीं दिया! देखा, हम स्त्रियाँ कैसा रोना रो सकती हैं! कभी-कभी मेरा दिल करता है, मैं भी ज़ोर से रोऊँ और वह भी ज़ोर-ज़ोर से रो सके।

तुम्हारी बन्ती

सच मानो, जब से यहाँ आई हूँ, मुझे यह घर कभी अपना नहीं लगा। बिलकुल मेहमान-सी लगती हूँ इस घर में। अब इस घर ने मुझे बाँध लिया है। एक छोटा-सा राजू आ गया है मुझे बाँधनेवाला। घर के सभी लोग उसे दीपक कहकर बुलाते हैं।

शाम के समय काफी ठण्डक उतर आती है। मैं यह लाल रेशमी रूमाल उसके

सिर पर बाँध देती हूँ। लाल रूमाल में वह और भी सुन्दर लगता है। मैं उसे गोद में लेकर देर तक उसका मुँह देखती रहती हूँ।

तुम्हारी बन्ती

मेरा राजू तीन वर्ष का हो गया। तुम्हें अपने मन की बात बताऊं कभ-कभी जब मैं राजू के मुख की ओर देखती हूँ तो देखते-देखते उसका मुँह बड़ा हो जाता है। उसका कद भी बड़ा हो जाता है। जैसे मेरा राजू पच्चीस वर्ष का हो गया हो और मैं अभी बीस वर्ष की हूँ। देखा, मैं कितनी पागल हूँ!

बड़ा शरारती है मेरा राजू। अभी मेरे पास खेल रहा थां। अभी रसौई में जा पहुंचा है। गर्म चूल्हे में पानी का गिलास उंडेल दिया है। सारा चूल्हा फट गया हैं। मेरी सास बेचारी को दिन-भर लगकर बनाना पड़ेगा।

हाँ तुम्हें एक बात बताऊँ। मेरी सास चूल्हा क्या बनाती है, जैसे कोई बुत तराशती हो। तुमने कहीं ऐसा बॉका चूल्हा नहीं देखा होगा! उसे चूल्हा बनाने का बहुत चाव है। थोड़े-थोड़े दिनों के बाद चूल्हा तोड़कर फिर से बनाने लगती है। जिस दिन कि अन्दर का चूल्हा बनाती है उस दिन मैं बाहर के चूल्हे पर रोटी बनाती हूं। वैसे जहाँ तक बन पड़ता है, वह खाना पकाने का सारा काम स्वयं ही करतीं है। जब वह पन्द्रह-बीस दिन बाद रसोई का चूल्हा तोड़कर नया बनाने लगती है, उस दिन खाना पकाने के काम को हाथ नहीं लगाती । चूल्हा बनाने का तो उसे कोई खब्त है! आए दिन मिट्टी में पानी डालकर बैठ जाती है, रसोई का दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लेती है। मिट्टी गूँधती और साथ में गाती है। वैसे मैंने कभी उसे गाते हुए नहीं सुना। गाना तो एक तरफ, उसे कभी मन भरकर बातें करते भी नहीं सुना; पर चूल्हा बनाते समय वह ऐसे गाती है, जैसे कोई चरखा काते और लम्बा गीत शुरू कर दे! ईश्वर ही जाने उसके मन पर क्या गुज़रती है! माता-पिता ने भी तो उसकी जवानी से धोखा किया है! हीरे जैसी लड़की को तराजू में रखकर चाँदी के रुपयों की एवज कँकड़ के पल्ले बाँध दिया! अच्छा, दो शब्द जल्दी लिखना।

तुम्हारी बन्ती

तुमने गीतों के बारे में पूछा है जो मेरी सास गाती है। पूरा गीत उसने कभी नहीं गाया। जब कभी एक टप्पा गाती है तो घण्टा-भर वही गाती रहती है।

आज भी उसने पुराने चूल्हे को तोड़कर नया बनाना शुरू किया है। रसोई का दरवाज़ा अन्दर से बन्द है। उसकी आवाज़ आ रही है :

आ रे चन्दा! हाथ सेंक ले!

बिरहा की आग हमने आंगन में जलाई है।

और मैं तुम्हें पत्र लिखने लग गई हूँ। मैं बाहर आँगन में बैठी हुई हूँ। उसने कोई और टप्पा शुरू किया, तो मैं तुम्हें लिखूँगी। गत

दिन ढल चला है। वही टप्पा सारे दिन गाती रही है। आज उसकी आवाज़ भी रुँधी हुई थी। कितनी देर तो उसकी आवाज़ निकली ही नहीं रुक-रुककर आवाज़

आई है :

'अगर नौकरी पर चले हो तो हमें जेब में डाल लो।

गहीं रात पड़े, हमें निकालकर कलेजे से लगा लेना!

हाँ, मुझे उसका एक गीत याद आया है। वह उसने आज तो नहीं गाया पर

पहले गाया करती थी :

आपने न सुख का सन्देशा भेजा

न आपने चिट्ठी भेजी है!

किसके हाथ मैं सुख का सन्देशा भेजूँ,

किसके हाथ मैं चिट्ठी भेजूँ?

लिखने के लिए कागज़ नहीं है

कलम के लिए “काही” नहीं है

दिल का टुकड़ा मैं कागज़ बनाती हूँ

ओर अँगुलियों को काटकर काही

आँखों का काजल स्याही बनाती हूँ.

और आँसुओं का पानी डालती हूँ.

परछाइयाँ ढलने पर चिटूठी लिखने बैठी हूँ

मेरी आँखों से आँसू बरस रहे हैं।

रसोई का दरवाज़ा अभी भी बन्द है। बन्द दरवाज़े से भी जैसे गुज़रकर मेरा

मन उसके मन में समा गया है। इन गीतों में भला कौन-सा गीत है जो उसके मन

का नहीं और मेरे मन का नहीं ?

तुम्हारी बन्ती

एक बात मैं तुम्हें लिखना भूल गई थी। मेरी सास को कई दिनों से रोज़ थोड़ा-थोड़ा बुखार हो जाता है। लाख मिन्नतें करो, वह एक पल के लिए भी आराम नहीं करती।

“भाभी, इस तरह तो डाकिया सचमुच ही एक दिन ईश्वर की चिट्ठी ले आएगा! तुम खुद ही अपनी जान की दुश्मन बनी हो”-एक दिन मैंने उससे कहा। पता है क्या कहने लगी? “तुम्हारा मुँह मीठा करूँ, अगर सचमुच ही कोई डाकिया उसकी चिटूठी ले आए!” सच कहती हूँ, उसका दुःख देखकर तो मेरे मन का भी दुःख मामूली बन जाता है।

ये इतने वर्ष और बीत गए! मैंने जान-बूझकर ही तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा। वैसे तुम्हारे नए शहर का पता मैंने ढूँढ लिया था। पता है, जब कभी मैं तुम्हें पत्र लिखने की सोचती थी तो मुझे लगता कि अगर मैंने तुम्हें पत्र लिखा तो पता नहीं कौन-सी यादें मुझे चारों ओर से घेर लेंगी! तब तो मैं कई दिन होश न सम्भाल सकूँगी।

भेरे होथों से चीजें गिरने लंगेंगी और तरंकारियाँ जलने लगेंगीं। अब तो सारा घर मुझे ही सम्भालनां पड़ता है।

इतने वर्ष मेरी सास रस्सी की तरह बल खाती रहीं। चारपाई पर लेंटी हुई जैसे उसी में ख़ो जाती थी। उसका रंग कपास जैसा सफेद हो गया था।

तुम्हें याद है या नहीं, एक बार मैंने तुम्हें लिखा था कि मेरी सास मिट्टी का चूल्हा क्या बनाती है मानो कोई बुत तराशती हो। आए दिन, पुराना चूल्हा तोड़कर नया चूल्हा बनाने का उसका खब्त बीमारी में भी नहीं गया था। मैं उसे ज़्यादा रोकती नहीं थी। जिस दिन वह मिट्टी गूँधती थी, उस दिन उसमें पता नहीं कहाँ से जान आ जाती थी! हॉ

लगभग पन्द्रह दिन की बात है, उसे खून की उल्टी आई थी। तब न तो हमें उसके जीने की आशा थी, न स्वयं उसे ही। दिन के समय जब मेरा देवर हकीम को बुलाने गया (मेरे ससुर का स्वर्गवास हो चुका है) तो मेरी सास ने मुझे अपने पास बुलाया, बोलीः

“मेरा कहना मानोगी ?”

“बताओ भाभी जो कुछ भी हो!” मेरा मन छलक रहा था। मैं उसकी चारपाई से सिर टेककर रोने लग गई थी।

“पगली कहीं की! रोती क्‍यों है? मैं तो एक-एक मिनट करके राह देख रही हूँ कि कब यह प्राणों का पिंजरा टूटे और कब मेरी रूह आज़ाद हो जाए!”

“बताओ भाभी, क्‍या कहती हो!” “तुम मुझे मिट्टी गूँध दो

“पागल हो गई हो? साँस तुम्हारे खत्म हो रहे हैं...”

“मुझे पता है, तभी तो मैं कह रही हूँ। आखिरी बार, बस एक बार! वरना अभी वह सड़ियल हकीम आ जाएगा!”

“भाभी, तुमने दुनिया के सारे मोह तोड़ डाले हैं। दुनिया से तुम्हारा मोह कभी हुआ ही नहीं। न तुम्हें रुपए से प्यार, न तुम्हें अपनी जान की परवाह, फिर तुम्हें इस चूल्हे से ऐसा मोह क्‍यों ?

“चूल्हे के नीचे मैंने कुछ दबाया हुआ है,”-मौत के बिस्तर पर पड़ी मेरी सास हँसी और कहने लगी-“तुम यह न समझना कि मैंने मोहरों की हाण्डी दबाई हुई है!”

“भाभी, तुम्हारा दिल मुझसे छिपा नहीं है। जिस घर में तुम्हारा मन भर गया है, उस घर में तुम मोहरें क्यों दबाओगी ? और मुझे भी मोहरों से कोई मोह नहीं!”

“यह मुझे पता है, तभी तो मैं तुम्हारे...”

“जो मन में है, निःसन्‍्कोच कह दो, भाभी! मैं तुम्हारी पुत्रवधू हूँ, बेटी भी हूँ और तुम्हारी सहेली भी तो हूँ!”

भाभी आँखों से रोई मगर होंठों से कहने लगी, “कभी-कभी मैं तुम्हें कहा करती धी न कि आओ तुम्हें दाने भून दूँ, मैं बहूत बड़ी भटियारिन हूँ!”

“हाँ भाभी, मुझे याद है। पर मुझे ख्याल था कि तुम यों ही मज़ाक किया करती थीं। तुम भला भटियारिन कैसे हुईं ?”

“नहीं बनती, मैं सचमुच भटियारिन हूँ, किसी भट्टीवाले की भटियारिन तुम अभी वह चूल्हा उखाड़ो तो नीचे की ईटें भी उखाड़ देना। कच्ची मिट्टी से हीं लींपी हुई हैं।

“नीचे क्‍या है ?”

“छलनी-मेरे भटियारे की निशानी और साथ में एक अँगूठी भी-वह भी उसी की निशानी!”

और भाभी ने अपने उखड़ रहे साँसों में मुझे बताया कि उन्हें अपने गाँव के एक लड़के से प्यार था। मोती नाम था उसका। माता-पिता को नकली ही मोती पसन्द आया। उन्होंने बेटी को कौड़ियों के मोल बेच दिया। विवाह को कुछ ही महीने हुए थे कि उदास मोती ने भटियारा बनकर उसके ससुराल के गाँव में भट्ठी शुरू कर दी।

जब मेरी सास (रूपो नाम था उसका) दाने भुनाने गई तो मोती को भटियारा बना देखकर जैसे उसकी भटूठी में खुद ही भुनने लग गई।

मोती ने जो कदम उठाया था, उससे भला उसका क्या बनता-सँवरता? और रूपो का भी क्‍या सँवरता ? एक दिन रूपो उसके पाँवों पर गिरकर रोई, तुम्हें मेरी कसम है जो तुम अपनी यह हालत बनाओ। भुने हुए बीज अब उंगेंगे नहीं / उसी दिन रूपो ने उसकी भट्ठी तोड़ डाली। कड़ाही उससे उठाई नहीं गई सो वह छलनी ही उठा लाई और उसे हुक्म दे आई कि अपने गाँव वापस लौट जाए।

मोती न उसकी कसम लौटा सका और न उसका हुक्म टाल सका। अपनी अँगूठी, एक निशानी, उसने रूपो को दी और दूसरे दिन पता नहीं कहाँ चला गया! मोती भटियारा क्‍या बना, रूपो को सारी उम्र के लिए भटियारिन बना गया। इसने उसकी छलनी और अँगूठी अपने पास रख ली। अँगूठी पर मोती का नाम लिखा हुआ था। कहाँ छिपाती! चूल्हा तोड़कर उसने दोनों चीज़ें मिट्टी के नीचे दबा दीं। और ऊपर नया चूल्हा बना दिया।

दिन-दिन-भर चूल्हे के पास बैठकर वह रोटियाँ क्या पकाती, जैसे मन के विचारों को बेलती-सेंकती रहती । कभी-कभी उसका दिल बहुत ही उदास हो जाता। वह चूल्हा तोड़ देती, उसकी निशानियों को गले लगाती रोती और गाती। फिर उसी तरह दोनों

निशानियों को धरती के हवाले कर देती और ऊपर नया चूल्हा बनाकर उनकी रखवाली के लिए बैठी रहती।

भाभी की यह कहानी खत्म हुई, तभी उसकी साँस खत्म हो गई। उसे खून की एक और उल्टी आई और प्राणों का पिंजरा टूट गया, पंछी उड़ गया।

जितने वर्ष भाभी प्राणों के पिंजरे में बन्द थी, मोती की अँगूठी कभी अपनी अँगुली में नहीं पहनी। जब उसकी रूह आज़ाद हो गई, तब मैंने चूल्हे को उखाड़ा और अँगूठी निकालकर उसकी अँगुली में डाल दी।

मैंने ही उसे नहलाना था, मैंने ही उसपर कफन डालना था। इसलिए मुझे डर नहीं था कि कोई उसके हाथ में पड़ी हुई अँगूठी पर मोती का नाम पढ़ लेगा। और जब तक दूसरे दिन लोग उसके फूल चुनते, उस अँगूठी पर से उसके मोती का नाम ही मिट जाना था!

छलनी मैंने अभी वैसे ही चूल्हे के नीचे रहने दी है। अगले महीने मेरी माँ हरिद्वार जा रही है और मैंने अपने पति को मना लिया है कि मैं चार दिन को माँ के साथ जाऊँगी। वहाँ भाभी के फूलों को बहा दूँगी। आगे तुम समझ ही गई होगी! किस प्रकार ट्रंक में छलनी रखकर ले जाऊँगी और उसके फूल छलनी में डालकर लहरों में बहा दूँगी!

ओ मेरी सहेली! मेरी अपनी सहेली!! आज तुम्हें न लिखूँ तो और किसको लिखूँ? मैंने भी अपनी यादों को आज ढूँढ़-दूँढ़कर देखा है, एक सुर्ख रूमाल उनके नीचे सम्भालकर रखा हुआ है। चाहे कोई बनती हो, चाहे कोई रूपो या चाहे कोई और, किसने अपने मन की तहों में कोई रूमाल या कोई अँगूठी नहीं दबाई हुई होती!

हम अभागिनें, जो किसीसे प्यार करती हैं, जन्म से भटियारिनें हो जाती है।

दिल की भट्‌ठी पर अपने साँसों को दानों की तरह भूनती हैं और यादों की छलनी में से वर्षों रेत छानती हैं।”

तुम्हारी

बन्ती : एक भटियारिन