रवि ने अभी-अभी एक नज़म लिखनी शुरू की थी।
लक्कड़ मंडी से काले टोप को जाती हुई पगडंडी चढ़ते हुए उसने पहाड़ की हरियाली को घूँट-घूँट पिया था,
अंजुलि भर कर पिया था, होंठ टेक कर पिया था, और फिर कई मीलों की चढ़ाई के बाद डाक बँगले में पहुँढर उसने जब सामान रखा था, और जब उसकी बीवी ने उसके लिए गर्म काफी का प्याला बनाया था और उसके लिए पलंग पर बिस्तर बिछा दिया था, तो उसे महसूस हुआ था कि मैं अभी सो नहीं सकूँगा।
वह डाक बँगले से अकेला बाहर निकल आया था।
डाक बँगले से बाहर आकर उसे लगा कि जिस हरियाली को उसने घूँट-घूँट पिया था, अंजुलि भर कर पिया था, और होंठ टेक कर पिया था, उसे जज़्ब कर पाना मुश्किल था।
उसने कागज लेकर एक नज़म लिखनी शुरू कर दी थी।
नज़म लिखते-लिखते उसे महसूस हुआ था कि वह नज़म लिखकर हरियाली के तेज़ नशे को उतारने के लिए एक ऐंटी-डोज़” ले रहा था।
कागज़ पर लिखी अधूरी नज़म को उसने नीचे घास पर रख दिया था।
नज़म अभी पूरी नहीं लिखी हुई थी।
पत्थर का छोटा-सा कंकड़ उसने कागज़ पर रख दिया और घास पर लेट गया।
उसे सार्त्र की कही हुई एक बात याद हो आई, “मैं जब लिखता हूँ तो निराशा के जाल में एक खूबसूरती पकड़ने की कोशिश करता हूँ।”
रवि को लगा कि जब मैं नज़म लिखता हूँ तो निराशा के जाल में खूबसूरती नहीं पकड़ता, बल्कि हमेशा खूबसूरती के जाल में निराशा को पकड़ने की कोशिश करता हूँ।
रवि ने अपने मन की गहराइयों में झाँककर देखा।
कहीं मायूसी नहीं थी।
पर कागज़ पर लिखी हुई नज़म में मायूसी थी, रवि इस बात से इन्कार नहीं कर सकता था।
उसे लगा जैसे वह कब्रों की रखवाली में बैठा हो।
उसकी मुहब्बत कब की दम तोड़ चुकी थी।
मुहब्बत का दर्द भी दिल में नहीं रहा था।
वह उस लड़की को नहीं पा सका था, जिसे उसने कभी पाना चाहा था।
पर उसकी दलील पर यह लड़की भी खूबसूरती में पूरी उतरती थी, जिसके साथ उसका विवाह हुआ था।
शायद इसीलिए उसके मन में 'खोए हुए दिनों' का दर्द नहीं रहा था।
पर लिखते हुए उसकी कविता में हर बार दर्द उतर आता था।
पर इस दर्द को दर्द नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह दर्द अब जीवित नहीं था।
इसीलिए आज रवि सोच रहा था कि उसके अन्दर वह रवि जो नज़में लिखता धा-कब्रों की राख में बैठा हुआ था।
रवि को फिर सार्त्र याद हो आया।
सार्त्र ने अपने बारे में लिखा था कि हाथ में कागज़ लेकर हर सुबह कुछ लिखने की उसकी दीवानगी इस तरह थी जैसे वह अपने जीवित होने की माफी माँग रहा हो।
रवि को यह बात सच्ची मालूम हुई। उसने आज तक जो कुछ भी लिखा था, उसे उसने कभी उस लड़की को पढ़ाना नहीं चाहा था, जिस लड़की का ज़िकर वह अपनी नज़मों में करता था।
न ही उसने अपनी कविताओं से नाम खरीदना चाहा था। प्रसिद्धि के विषय में भी उसका विश्वास सार्ज से मेल खाता था कि प्रसिद्धि तब आती है जब मनुष्य मर चुका होता है।
वह उसकी कब्र को सजाने के लिए आती है।
और अगर कहीं वह पहले चली आए, मनुष्य के जीते जी चली आए, तो पहले वह अपने हाथों से मनुष्य को कतल करती है, फिर उसकी कब्र को सजाती है।
रवि ने अपनी कविताओं को कभी इनामी प्रतियोगिताओं में नहीं भेजा था।
ये प्रतियोगिताएँ उसे ऐसे लगती थीं जैसे कुछ अमीर अपने धन या पदवी के ज़ोर से कलाकारों को बटेरों की तरह लड़ाकर देखते हों, और अपने प्रतियोगियों को घायल कर जो जीत जाता है उसका जुलूस निकालते हों। और रवि को महसूस हुआ कि वह न किसी महबूब के लिए लिखता है, और न मशहूरी के लिए।
वह रोटी खाता था ताकि जीवित रह सके, और कविता लिखता था ताकि जीवित रहने के कसूर की माफी माँग सके।
और फिर रवि को अत्यन्त घृणित विचार ने आ घेरा कि नज़में केंचुआ होती हैं।
केंचुए पृथ्वी की जलन में से जन्म लेते हैं और नज़में मन की तपश में से। रवि को वास्तव में अपना विचार घृणित नहीं लगा था।
उसे केंचुए की पिलपिली और लिज़लिज़ी शक्ल याद हो आई थी और नज़म की तुलना केंचुए से करते हुए उसे लगा था कि उसके इस ख्याल का बदन भी लिज़लिज़ा गया था। 'पर बात सच्ची है' रवि ने सोचा और हँस पड़ा।
फिर रवि को ख्याल आया कि हर नज़म खामोशी की औलाद होती है। जब आदमी एक तरफ से इतना गूँगा हो जाता है कि एक शब्द भी नहीं बोल पाता, तो उसे अपनी खामोशी से घबराकर कविता लिखनी पड़ती है।
“और फिर रवि को ख्याल आया कि नज़म लिखना खुदा के बाग से सेब चुराने के बराबर है।
आदम ने सेब चुराया तो उसे हमेशा के लिए बाग से निकाल दिया गया था।
इस तरह जो भी इन्सान नज़म लिखता है उसके मन का कुछ हिस्सा भले ही इस दुनिया में रहता है पर कुछ हिस्सा हमेशा-हमेशा के लिए जलावतन हो जाता है।
पर नहीं' रवि ने सोचा, “इन दोनों पहलुओं का एक-दूसरे से नफरत का रिश्ता
होता है। दोनों शायद एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं, इसलिए दोनों एक-दूसरे से घृणा करते हैं। यह नियमित घृणा आक्रमणात्मक स्थिति में बदल जाती है। कविताएँ इस युद्ध में हथियार बनती हैं' और फिर यह बात सोचकर रवि को अपनी हँसी में दर्द महसूस होने लगा, 'और नज़मे ही शायद इस युद्ध में खाए हुए जख्मों की खरोंचें होती हैं ।'
नेज़मों के इतने रूप अख्तियार कर सकने की ताकत से रवि को नज़मों के दीर्घ आयाम का विचार आया, इन्सान इस धरती पर कितनी कम जगह रोक पाता है।
इन्सान के चारों ओर माहौल का ज़िरहबख्तर इतना कसा हुआ और पेचीदा होता है कि वह आज़ादी से अपने हाथ-पैर भी नहीं संचालित कर सकता ।
पर उसकी कविता का आयाम इतना विस्तृत होता है कि वह एक ही समय अपना एक पाँव इन्सान के पालने में रखकर, दूसरा पाँव इन्सान की कब्र में रख सकती है।'
ख्यालों की नदी बहती जा रही थी।
नदी में बरसात के पानी की बाढ़ नहीं थी। यह दोनों किनारों की मर्यादा को स्वीकार किए चुपचाप बह रही थी और रवि इसके पानियों में निर्बाध तैरता जा रहा था।
“वीराजी! आपका कागज़ हवा में उड़कर बहुत दूर चला गया था।
आपको पता भी नहीं चला ।” मोना रवि के पास आकर बोली।
उसने कागज़ रवि के हाथ के पास रख दिया। हवा तेज़ चलने लगी थी।
मोना ने कागज़ पर रखने के लिए आसपास पत्थर का टुकड़ा खोजना चाहा।
क्योंकि कागज़ पर रखा पत्थर का कंकड़ छोटा था और कागज़ उसको उड़ा ले जाता था। मोना ने कागज़ पर अपना हाथ रख दिया। रवि ने धूपढली की हल्की रोशनी में कागज़ की तरफ देखा, और फिर कागंज़ पर टिके हुए मोना के हाथ की तरफ देखा।
पतला और गोरा हाथ।
रवि को लगा कि यह हाथ एक पेपर-वेट था।
हाथ को जिस्म से अलग कर एक पेपर-वेट की तरह मेज़ पर रख सकने का ख्याल रवि को बहुत दिलचस्प लगा।
उसे याद आया कि एक दिन उसकी बीवी ने उसके कोट को अपने कन्धों पर डाला हुआ था तो उसे एक खूबसूरत हैंगर का ख्याल हो आया था।
रवि को आश्चर्य था कि सजीव शारीरिक अंगों की कल्पना वह हमेशा निर्जीव वस्तुओं के रूप में क्यों करता है ?
सुडौल, तने हुए गोरे कन्धों को देखकर उसे कोट हैंगर का विचार क्यों आता है, और पतले गोरे हाथ को देखकर उसे पेपर-वेट का ख्याल क्यों आ जाता है ?
किसी के कन्धों को तलियों में लेकर सहलाने और छाती से लगा लेने का ख्याल उसे क्यों नहीं आता, और किसी के हाथ को उठाकर अपने होंठों पर रख लेने का ख्याल उसे क्यों नहीं आता...
रवि ने अपने इस ख्याल को घेरकर अपने तक ले आना चाहा-अपनी 'समझ' तक बिलकुल उसी तरह जैसे वह बहती नदी में पानी के उल्टे रुख तैरने की कोशिश कर रहा हो।
सजीव अंगों की निर्जीव वस्तुओं के रूप में कल्पना करने से उसे ग्लानि अनुभव हुई।
उसे लगा कि दूसरों के अंग सजीव थे, पर उसके अपने आंगों में कुछ मर गया था।
इसीलिए दूसरों के अंगों को स्पर्श करने का, सूँघने का और अपने अंगों में कस लेने का ख्याल उसे नहीं आता था। रवि ने जो कुछ उसके दिल में मृत था, उसे जिला कर देखना चाहा, और उसने आँखों पर ज़ोर देकर, नज़र गड़ाकर मोना के चेहरे की ओर देखा।
मोना रवि की बीवी की छोटी बहन थी।
चौदह-पन्द्रह सालों की। पर रवि को आज तक वह एक छोटी-सी बालिका के रूप में ही दिखाई देती रही थी।
वह माना का हमेशा बच्चों की तरह डॉटता था और बच्चों की तरह ही दलारता था।
ओर रांवे ने अपने ख्यालों को घेरकर मोना की तरफ इस तरह देखा जैसे बहती नदा क पानी म॑ उलटे रुख जाकर मोना की एक झलक ले रहा हो।
उसने पहली बार देखा कि मोना भरपूर जवान लड़की थी। जवानी ने उसकी छाती को भर दिया था, उसकी गर्दन को भर दिया था, उसके कपोलों को भर दिया था और जवानी ने उसके होंठों पर लाली फूँक दी थी।
और रवि को लगा कि उसके अपने मन का रंग अब फीका पड़ चुका था। इस फाक रग का गहराने के लिए रवि के मन में आया कि वह मोना के लाल रंग म॑ डूब हुए हाठी का अपने हाॉंठों में लेकर चूम ले ।
राव का पहले कभी ऐसा ख्याल नहीं आया था, जिससे इस विचार के आते ही उसे दहशत हुई ।...और उसे लगा कि एक पल पहले वह ख्यालों की जिस खामोश
बहती हुई नदी में तैर रहा था, अब उस नदी के पानी पर एक साँप तैर आया था। यह अपने से दो हाथ दूर तैर रहे साँप को देखने की दहशत थी।
“वीराजी! सो रहे हो या जागते हो?” मोना कागज़ के पास घुटनों के बल वृठ गई।
रवि न नज़र गड़ाकर मोना के चेहरे की ओर देखा। मोना का चेहरा उसी की तरह मासूम और अल्हड़ था-जैसा रवि हमेशा देखता आया था, यह चेहरा जवानी का भड़काली रोशनी में न खुद दहक रहा था, न ही किसी दूसरे में दहक पैदा कर रहा था।
रवि ने एक बार फिर ख्यालों की बहती हुई नदी की तरफ देखा। अब नदी में तेरता सॉप नहीं दिख रहा था।
रवि माना को गाल पर एक हल्की-सी चपत लगाते हुए बोला, “बलाई! चलो भागो यहाँ से! तुम यहाँ क्या कर रही हो ?”
आपका कागज़ उड़कर कहीं का कहीं चला गया था। अगर मैं पकड़कर न लाती तो आप जाने कब तक खोजते रहते...लिखी-लिखाई नज़म हवा हो जानी थी...” मोना ने रोष से कहा।
“अच्छा बलाई! तुम्हारा शुक्रिया करे देता हूँ! अब तुम कमरे में जाओ। मैं कुछ ठहरकर आऊँगा।”
मोना रवि का हाथ पकड़कर उसे खींचकर उठाती हुई बोली, “आप भी चलिए न कमरे में। दीदी बहुत थकी हुई थीं। वे सो गई हैं। मैं वहाँ अकेली जाकर क्या करूँ ?”
रवि का हाथ काँप गया। उसे लगा जैसे नदी में तैरता हुआ साँप उसके पास आकर उसके नंगे बदन को छू गया हो।
रवि ने घबराकर आँखें बन्द कर लीं।
मोना का साँस रवि के माथे को छू रहा धा।
रवि को अपने बदन में एक गर्म लकीर चकराती महसूस हो रही थी।
और फिर रवि को लगा कि उसने मोना को खींचकर अपनी छाती से लगा लिया था।
मोना की गर्म और भरी हुई छातियों पर रवि की उँगलियाँ काँप रही थीं और मोना के पतले होंठों को छूकर उसके मर्द होंठ भी कॉपने लगे थे ! और फिर रवि को महसूस हुआ कि नदी में तैरता हुआ साँप उसे केवल छूकर ही नहीं गुजर गया था - बल्कि उसे रस भी गया था और उसका बदन अब आग की तरह तपने लगा था।
“वीराजी! क्या हुआ है आपको! फिर सो गए क्या ?” मोना ने मासूमियत से कहा और रवि की बन्द आँखों को अपनी उँगलियों से खोलने की कोशिश करने लगी।
रवि को अपना सिर घूमता हुआ महसूस हो रहा था।
उसके कानों में सन्नाटा भर गया था।
उसे बाहर से कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
जो सुनाई दे रहा था वह उसके अपने अन्दर की आवाज़ थी।
उसका बदन लमहा दर लमहा साँप के जहर में डूबता जा रहा था।
ज़हर की इसी बढ़ती रफ्तार में रवि को महसूस हुआ कि उसने मोना की कमीज़ को फाड़कर उसके गले से उतार कर फेंका था। मोना का बदन अँधेरे में संगमरमर की तरह बेपर्दा दहहक रहा था।
रवि की आँखों में मोना की निरावृत देह का रंग इस तेजी से कौंधा कि रवि की आँखें काँप गई।
काँपती आँखों से रवि ने देखा कि साँप का ज़हर अब तक उसे इतना चढ़ चुका था कि उसका सारा बदन ऐंठ रहा था।
रवि की चेतना अब भी क्रियाशील थी, बिलकुल उसी तरह जैसे कोई अपनी मौत की असलियत को अपनी आँखों से देख रहा हो। उसके अंग पल-पल अधिक ऐंठते जा रहे थे।
वह तड़प भी रहा था और अपने आप को तड़पते हुए देख भी रहा था। तड़प रहे रवि के मन में बेबसी थी, और तड़पते हुए देखनेवाले रवि के मन में एक खौफ था।
एक रवि ने मोना की ओर तरसकर देखा, और दूसरे रवि ने हाथ के इशारे से मोना को कहा कि वह यहाँ से चली जाए।
मोना कुछ समझ न सकी, पर उसने रवि के हाथ के इशारे को मान लिया और नज़म को रवि के हाथ के नीचे रखकर वहाँ से चली गई।
रवि ने घबराकर मोना को आवाज़ देनी चाही कि वह रुक जाए। पर रवि के अपने गले ने ही जैसे उसकी आवाज़ को रोक लिया। रवि ने थककर अपनी आँखें बन्द कर लीं।
ख्यालों की नदी उसी तरह दोनों किनारों की मर्यादा में चुपचाप बहती जा रही थी।
रवि ने अपने-आपको नदी के हवाले कर दिया।
ठंडे पानी की छुवन की तरह रवि को ख्याल आया कि कहीं एक दार्शनिक ने लिखा है कि आपको जीना पड़ेगा, जीवन को स्वीकार करने से इन्कार नहीं किया जा सकता। रवि को लगा कि यह सारा दर्शन बेबसी का दर्शन है। इन्सान और कुछ नहीं कर सकता तो क्या वह ज़िन्दगी को अस्वीकार कर देने के लिए होंठ भी नहीं हिला सकता ?
रवि ने अपने होंठ हिलाने चाहे, पर नदी के ठंडे पानी से उसके होंठ जड़ हो गए थे।
और रवि को ख्याल आया कि वह एक साधारण कमज़ोर आदमी है।
उसने मुहब्बत का तवारीखी हीरो बनना चाहा था, पर वह नहीं बन सका था ।
उसने एक दर्दनाक आशिक बनना चाहा था जब कि वह एक फटेहाल आशिक भी नहीं बन पाया था।
वह एक साधारण कमजोर आदमी था-वह आदमी, जिसके हॉठ न 'हाँ' कहने के लिए हिलते हैं, न ही 'न' कहने के लिए।
और फिर रवि को लगा कि वह अपने होंठ नहीं हिला सकता था, या सिर्फ नज़म की खूबसूरती के जाल से इन होंठों की निराशा को ही पकड़ सकता था।
रवि के हाथों ने कागज़ उठा लिया और उसपर कुछ पंक्तियाँ लिख दीं।
नज़म पूरी हो जाने पर रवि इतना थक चुका था कि उसे लगा जैसे नदी में तैरते-तैरते उसके अंगों में टूटन भर गई हो। नदी अब भी दोनों किनारों की मर्यादा में चुपचाप बहती जा रही थी।...और नदी में तैरता जो साँप रवि ने देखा, अब वह कहीं नहीं आ रहा था। अब रवि के मन में दहशत नहीं थी, सिर्फ थकावट थी।
अचानक रवि को सर्दी महसूस हुई।
नदी का पानी पल-पल ठंडाता जा रहा था।
वह किनारे को हाथों में कसकर नदी के बाहर आ गया और अपने बदन से ख्यालों के निचुड़ते पानी को पोंछता हुआ डाक बँगले की तरफ बढ़ने लगा।
रवि की नज़म ने उसकी देह का सारा ज़हर चूस लिया था।
अब उसके अंग पहले की तरह स्वस्थ थे। सिर्फ उस थकान और सर्दी महसूस हो रही थी।
वह सोच रहा था कि वह जल्दी-जल्दी कदम वद्गाता हुआ अपनी बीवी के गर्म बिस्तर में जाकर सो जाए।