एक दुखान्त

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

' अपनी आग से खुद ही जल गए कुकनूस की राख में से-यूनानी मिथ के अनुसार-जैसे एक नया कुकनूस जन्म लेता है', सुकुमार को लगा,

“कीर्ति से उसका पहला रिश्ता बिल्कुल खत्म हो गया था, और उसी खत्म हुए रिश्ते की राख में से एक नये रिश्ते ने जन्म ले लिया था... ।'

'एक गैर मर्द से एक जवान हो रही लड़की की वाकफियत हमेशा समय और अपने वर्ग के संस्कारों को साथ लेकर चलती है, सुकुमार ने सोचा, 'उसकी और कीर्ति की वाकफियत भी जिन संस्कारों को साथ ले आगे बढ़ी थी, उसके मुताबिक उनका एक-दूसरे को बहिन-भाई कहना बिलकुल स्वाभाविक था।

“आदमी आगे बढ़ता है”, सुकुमार ने फिर सोचा, "पर संस्कार एक सीमा पर आकर ठहर जाते हैं।

आदमी बुद्धि के सहारे आगे बढ़ता है, संस्कार पाँवों के सहारे... पाँवों की थकावट एक सीमा से आगे बढ़कर पाँव के छाले बन जाती है, जख्म भी बन सकती है...शायद इसीलिए संस्कारों को अपने पाँवों का बहुत ध्यान रहता है

पर सोच कहीं भी पहुँच सकती है”, सुकुमार के होंठों पर एक हल्की-सी मुस्कान आ गई, “एक जन-संघी से सार्त्र तक

'मैंने जब भी राजनीति को अपनाया...', सुकुमार ने अपने बीते दिनों को याद करना चाहा, उस लहर के उद्देश्य से प्रभावित होकर नहीं वह घर के एक खास तरह के माहौल से निकलने का मेरा प्रयास मात्र, था...मेरे बाप ने मुझे समझने की कभी कोशिश नहीं की, सदा अपनी मर्ज़ी के अनुसार चलाने का यत्न किया-डॉँट-डपट से, मार-पीट से।

बाप मेरे हाथों में इंजीनियरिंग के औज़ार पकड़े देखना चाहता था, पर मैं अपने हाथों में आर्ट तथा लिटरेचर की किताबें लिए रहना चाहता था...”

पिता से कुछ कह सकना, उसे समझा या मना सकना जैसे घर के बाहर वाले दरवाज़े की तरह था, और जिसे बन्द कर उसकी चाबी पिता ने अपनी जेब में डाल रखी थी-पर राजनीति घर के पीछे की ओर रात को खुली रह गई खिड़की की तरह थी...और मैंने बाहर खुलने वाले दरवाज़े को एक दिन बड़ी हसरत भरी

नज़र से देखा था, और फिर उस खिड़की में से आधी रात के अँधेरे में कूद गया था, सुकुमार ने आज से सोलह वर्ष पहले की उस घटना के बारे में सोचा, जब उसने एक दिन चुपचाप अपने माँ - बाप के घर से निकल राजनीति का सहारा लिया था।

“आदमी के विचारों तथा आवश्यकताओं को कहने, सुनने और समझने वाला बहिन - भाई का सम्बन्ध भी घर के उस बाहर वाले दरवाज़े की तरह ही होता है, जिसकी चाबी उस रिश्ते ने अपनी जेब में डाली हुई होती है”, सुकुमार को हँसी आ गई पर स्त्री तथा पुरुष का एक-दूसरे के प्रति स्वाभाविक आकर्षण घर के पीछे की ओर रात को खुली रह गई उस खिड़की की तरह होता है, जिसमें से मनुष्य के विचार तथा आवश्यकता किसी न किसी रात को बाहर के अँधेरे में छलाँग लगा देते हैं

और सुकुमार को याद आया कि कीर्ति से जब उसकी वाकफियत हुई थी, वह अपनी राजनीतिक पार्टी के अखबार का सहायक सम्पादक था।

कीत्ति, दसवीं में पढ़ने वाली एक लड़की थी।

एक दिन बड़े उत्साह से एक लेख लिख वह उसके पास आई थी।

अपनी हैड मिस्ट्रैस से एक सिफारिशी चिट्ठी भी साथ लाई थी।

भले ही उसने यह लेख छापा नहीं था, पर और अच्छा लिखने के लिए उसे कई सुझाव दिए थे।

फिर कीर्ति अक्सर उसके पास आती रही थी।

उसने कई किताबें कीत्ति को पढ़ने के लिए दी थीं, और जब कीर्ति ने बड़े भोलेपन तथा सादगी से उसे भाई साहब कहा था, तो उसने उसी सादगी से उस सम्बोधन को स्वीकार कर लिया था।

फिर दो वर्ष वे मिलते रहे थे। तब वह कीर्ति के शहर बम्बई में था।

और फिर उसे वह शहर छोड़ना पड़ा था।

वह शहर-शहर घूमता रहा था, पर कीर्त्ति के पत्र उसे सब जगह मिलते रहे थे।

फिर दो वर्ष पश्चात्‌ एक दिन कीर्ति का ऐसा पत्र आया था, जिसमें वही पहले वाला सम्बोधन था-'भाई साहब! पर खत की बाकी इबारत कुछ इस प्रकार थी जैसे बहिन-भाई के रिश्ते वाले बन्द दरवाज़े को उसकी इन्सानी ज़रूरतों ने एक बार बड़ी हसरत से देखा हो, और फिर मर्द और औरत के स्वाभाविक आकर्षण वाली पीछे की खिड़की में से बाहर अँधेरे में छलाँग लगा दी हो...खत में लिखा था-'मेरी माँ और मेरा बड़ा भाई मेरा विवाह कर देने के लिए उतावले हो रहे हैं।

आप चाहते हैं, मैं पढूँ, बहुत पढूँ।

मैं विवाह नहीं करना चाहती, पर कोई मेरी बात नहीं सुनता। बड़ी उदास हूँ, सोचती हूँ..अगर आप पास हों तो आपकी छाती से लग खूब रोऊँ। दोनों बाँहें आपके गिर्द डाल दूँ, फिर आप मुझे अपनी बाँहों में कस लें। मेरी छाती में धड़कता सब-कुछ अपनी छाती में भर इस दौरान सुकुमार की सोच के कदम बड़ी तेज़ी से आगे बढ़े थे।

उसके अन्दर का राजनीतिक वर्कर बहुत पीछे रह गया थां।

और अब जो कुछ उसके गिर्द था, या उसके साथ था, उसे भी वह केवल दूर से ही देख रहा था। उसके अन्दर रहकर भी दूर से देख रहा था...कामू के 'आउटसाइडर” की तरह...वैसे इन्सान के मन को देखने-समझने की उसकी दिलचस्पी कायम थी...किसी एक व्यक्ति में, भले ही वह एक हसीन औरत ही क्‍यों न हो, उलझ्यकर और उसके बीच जज़्ब होकर, या उसे खुद में जज्ब कर, देखने या समझने की तरह नहीं...एक फासले पर खड़े हो एक दर्शक की तरह देखने और समझने की मानिन्द!

पत्र के साथ कीत्ति ने उसे अपनी एक तस्वीर भेजी थी छोटी-सी। उत्तर में सुकुमार ने उससे उसकी एक बड़ी तस्वीर की माँग की ।

उसके बाद एक और तस्वीर की माँग की-वे तस्वीरें कभी सामने से ली हुई होतीं, कभी दाईं ओर से, कभी बाई ओर से, कभी बहुत करीब से, कभी बहुत दूर से...सुकुमार उसे हर तरफ से, हर कोण से, हर अंग तथा हर नज़रिए से जानने का यत्न कर रहा था।

फिर कीर्ति की तस्वीरें वह कुछ ऐसे देखता रहा जैसे किसी किताब की हर लाइन बड़े ध्यान से पढ़ रहा हो।

सारत्र के फलसफे की तरह सार्त्र का अस्तित्व उसके अपने अस्तित्व में उतरता जा रहा था। सार्त्र ने अस्तित्ववाद को जिस ठौर पर पहुँचा दिया था, सुकुमार ने अपनी सोच को भी उसके समकक्ष जा खड़ा किया था...इतनी मंज़िल उसने तय कर ली थी। केवल इस मंज़िल का कोई प्रमाण उसके पास नहीं था।

'मन की अवस्था प्रमाण नहीं हुआ करती, प्रमाण तो रचना हुआ करती है।'

सुकुमार जानता था, और जानता था कि वह अगर सार्त्र है तो बिना किसी उपलब्धि के।

“आइरन इन द सोल' सार्त्न ने भोगा भी था और उसे कागज़ पर भी उतारकर दिखाया था, पर सुकुमार ने केवल भोगा भर था।

इस फर्क को वह जानता था...आत्मा में चुभ रही लोहे की नोक की तरह जानता था। और इस चुभन की पीड़ा से व्याकुल हो सुकुमार ने सोचा कि उसे एक ऐसी औरत की जरूरत थी जो न उसकी बहिन हो सकती थी, न बीवी, वह केवल 'सिमन' हो सकती थी...सार्त्र की ज़िन्दगी में ज़िन्दगी भर के लिए आई 'सिमन” जो

“र्तज़ की ज़िन्दगी के एकदम भीतर भी थी और बिल्कुल बाहर भी। और जिसका अश्त्व तात्रे का 'सब कुछ” भी था और “कुछ भी नहीं! भी था।

यह “कुछ” बहुत जरूरी है - सुकुमार ने कीर्त्ति को लिखा-“क्योंकि यह एक आदमी क कदमों को आगे बढ़ाने वाली जुम्बिश है।

और यह सिला भी बहुत ज़रूरी है क्योंकि इसके बिना सब कुछ महदूद हो जाता है और आदमी के पास कोई ऐसा स्थान नहीं बचा रहता जहाँ वह ज़िन्दगी के तजुर्बे और ज्ञान को रख सके...” और सुक॒ुमार ने कीत्ति को लिखा-“विवाह का सवाल पैदा नहीं होता।

केवल साथ का सवाल पैदा होता है।

यह सवाल मैं तुम्हारे सामने रखता हूँ, अगर बन सके तो जवाब ज़रूर देना ।

'मर्दों और औरतों के जिस्म बाँसों के जंगल की तरह होते हैं'-लुकुमार ने कीत्ति को खत लिखने के बाद सोचा -' आग कहीं बाहर से नहीं आती, बाँसों की रगड़ में से ही पैदा हो जाती है।

और आज अगर सालों बाद सुकुमार और कीर्नि की वाकफियत, बाँसों की तरह टकरा, आग बन भड़क उठी है, और अगर उसका पहला, वह बहिन-भाई का रिश्ता, उसमें जल खत्म हो गया हो, तो यह स्वाभाविक है।

'कुकनूस के पंखों को लगने वाली आग भी कहीं बाहर से नहीं आती”- सुकुमार के भीतर जैसे कुछ थिरक उठा-“बहार के सफेद फूलों को देख उसके गले में जो व्याकुलता उठती है, वही व्याकुलला आग की लपट बन जाती है...इस आग में कुछ जलना जरूरी है ! और सुकुमार को लगा कि पुराने संस्कार जलकर राख हुए जा रहे थे, और यूनानी मिथ के अनुसार राख में से एक नया कुकनूस जन्म ले रहा था-यह नया कुकनूस कीत्ति का वह रूप था - एक औरत का वह रूप-जिसे पीने के लिए उस दिन सुकुमार ने अपने होंठ बढ़ा दिए।

कीर्त्ति बहुत दूर थी। कल्पना बिल्कुल पास। सुकुमार ने दोनों बाँहें फैला, जो कुछ उनमें समा सकता था, भर लिया।

अपने होंठों से, कीर्त्ति के होंठों को छू लेने वाला, वह पल था जो लम्बा होता जा रहा था-या शायद एक ही जगह ठहर गया

धा सुकूमार के होंठ थक गए और सुकुमार को लगा कि कीर्ति के होंठ भी इस बीच नीले पड़ चले थे...

दो दिन बाद कीर्ति का खत आया-भींचे-तने हुए नीले छोंठों में से फड़कते हुए शब्दों से भरा। कीर्ति ने अपने सपने में सुकुमार का सब कुछ, शायद कुछ इस तरह छुआ था, कि खत लिखते वक्त भी उसके हाथों में उसके शरीर का कंपन जैसे कागज़ पर उतर आया था।

सपने का एक-एक शब्द उसने लिख भेजा था। केवल उन शब्दों के स्थान पर, जो बहुत संकोचशील हो उठे थे, उसने बिन्दु डाल दिए थे-शब्द जैसे सिकुड़ गए थे। केवल बिन्दु बनकर रह गए थे...

पाँच दिन भी नहीं गुज़रे थे-कीर्तति का खत आया।

इस लिफाफे में सिर्फ एक राखी थी। उस तरह ही जिस तरह हर साल कीर्ति उसे राखी भेजा करती थी । अभी-अभी डाकिया खत देकर गया था, अभी-अभी फिर बाहर वाला दरवाज़ा खटखटाया गया।

सुकुमार ने दरवाज़ा खोला-एक लड़की जस्सी, उसके दोस्त की बहिन थी, जिसे सुकुमार की मदद से कालिज में पढ़ने का मौका मिला था, और जो बतौर शुक्रिया हर साल सुकुमार को राखी बाँधने आया करती थी, और दूसरी लड़की उसके एक दूर के चाचा की बेटी। दोनों ने मिठाई का एक-एक टुकड़ा सुकुमार के मुँह में डाला और

फिर उसके हाथ पर अपनी-अपनी राखी बाँध दी।

मेज़ पर कीर्ति का थोड़ी ही देर पहले आया लिफाफा पड़ा हुआ था।

जस्सी ने देखा और कीत्ति की तरफ से उस लिफाफे वाली राखी भी सुकुमार की बाँह पर बाँध दी।

'जिस रिश्ते को कीर्त्ति ने खत्म कर दिया, खत्म कर देना मान लिया, उसकी निशानी उसने क्‍यों भेजी ?

सुकुमार जब अकेला रह गया तो सोचने लगा, और सोचते-सोचते उसे लगा कि कीर्ति किसी भी पकड़ में से स्वतंत्र हो, अपने सहज रूप में खिलने के स्थान पर, इकहरी पकड़ की बजाय दुहरी पकड़ में बँध खड़ी हो गई थी, और उसी तरह ही सिकुड़ गई थी जैसे पिछले खत में उसके शब्द सिकुड़कर बिन्दु मात्र रह गए थे...इन्सानी रिश्तों की दुहरी पकड़ में बँधी कीर्ति ने सुकुमार के जलते खत के जवाब में एक वैसा ही खत लिख दिया था, और व्यवहारों तथा संस्कारों की एक ठंडी रम्म के जवाब में उसने लाल धागे का एक ठण्डा टुकड़ा भेज दिया था...

पिछले कुछ दिनों से सुकुमार, शाम के धुँधलके में, कीर्ति को अपने करीब महसूस करने का आदी हो गया था-पतली नाजुक-सी कीर्त्ति कभी सुकुमार की बिखरी किताबों को अलमारी में सजाकर रख रही होती...कभी सुकुमार की किताबों में से अभी-अभी लिए गए नोट्स टाइप कर रही होती...कभी सुकुमार की कुर्सी के पाए के पास घुटनों के बल बैठ, उसकी टाँगों पर सिर टिका देती...और कभी सुकुमार द्वारा चूमे गए अपने होंठों को धीरे से शीशे में देखती...और कभी धीमे से सुकुमार के बिस्तर में सरक उस दिन दुनिया-भर में हुए हादसों को कितने ही अखबारों में से पढ़कर सुनाती, और उनपर बहस करती...और फिर गहराती रात की ठंडक में कॉपती, सुकुमार की बाँहों में गुच्छा हुई सुलग उठती...

बाजू से बँधे लाल-पीले धागों को खोल, जब सुकुमार अपने बिस्तर में लेटा, उस दिन भी रोज़ की तरह उसने कीत्ति को याद किया।

कीर्त्ति हौले से उसकी बाँहों में आ गई-आई नहीं ढलक-सी पड़ी।

कीर्ति के गिर्द लिपटी हुई अपनी बाँहें सुकुमार ने कसनी चाही, बाँहें बेजान-सी हो गईं।

कीर्ति का सिर सुकुमार के कन्धे से सटा हुआ था-सटा हुआ नहीं-गिरा-सा।

सुकुमार ने होंठ आगे बढ़ा कीर्त्ति के होंठों को छूना चाहा-होंठ माँस के ज़िन्दा धड़कते टुकड़े की तरह नहीं - एक चीज़ की तरह शिथिल थे।

और फिर सुकुमार ने कीर्त्ति के अंगों को नहीं, अपने अंगों को जगाना चाहा, पर सुकुमार को लगा कि आज उसके अपने अंग भी उसके जिस्म में से उभरे हुए जिस्म का हिस्सा नहीं थे, जिस्म से टॉके हुए कुछ टुकड़ों की तरह थे...

और सुकुमार ने परेशान हो सोचा, आज की रात - आज की रात वह वारों-त्यौहारों तथा संस्कारों से स्वतन्त्र एक सहज मर्द नहीं था, आज वह वारों-त्योहारों और संस्कारों की चौखट में कसा हुआ “भाई” नाम का जीव था।

आज वह खुद भी चौखट में जड़ी हुई एक तस्वीर की तरह दीवार पर टंगा हुआ था, और सामने कीर्त्ति चौखटे में कसी हुई कागज़ की तस्वीर-सी दीवार पर टँगी हुई थी...

दीवारों, तस्वीरों और चौखटों में से निकल सुकुमार कहीं चला जाना चाहता था, कीर्त्ति को भी ले जाना चाहता था।

पर जैसे-जैसे वह सोचता जा रहा था, उसे लग रहा था कि तस्वीर को फाड़ा जा सकता है, तस्वीर को बोलने वाले होठों में नहीं बदला जा सकता।

चौखट को तोड़ा जा सकता है, उसे चलकर कहीं जाने वाले कदम नहीं बनाया जा सकता।

दीवार को गिराया जा सकता है, पर दीवार को किसी मंजिल का साया नहीं बनाया जा सकता...

कुछ दिनों बाद कीर्ति का खत आया कि उसकी माँ और उसके भाई ने उसके विवाह का फैसला कर लिया था।

वह न अपनी माँ को नाराज़ कर सकती थी, न अपने भाई को।

और उसने सुकुमार से सदा के लिए बिछड़ने की इजाज़त चाही थी।

सुकुमार ने हँसकर एक खत लिख दिया-बिल्कुल वैसा ही जैसा कीर्ति ने चाहा था।

यह सब एक दुखान्त था-जो धीरे से रेंगकर सुकुमार के अंगों और कलम को हरकत से चिपक गया था।

पर वह सोच रहा था, 'यह दुखान्त एक आम और जाने-पहचाने दुखान्त जैसा नहीं था-इश्क की नाकामी जैसा जाना-पहचाना कुछ भी नहीं था-पर फिर भी वह हो गया था, एक अजीब शक्ल में हो गया था।

और उसका सबसे अजीब पहलू यह था कि यह एक लड़की कीर्ति की सूरत में से नहीं उभरा था बल्कि हर लड़की की सूरत में से उभर आया था और उसे लग रहा था कि भविष्य में भी उसके जीवन में आने वाली हर लड़की कीत्ति की तरह बोलेगी,

कीर्त्ति की तरह सुनेगी और फिर कीर्ति की तरह ही चली जाएगी... ज़िन्दगी के अर्थों को वह सार्त्र की तरह ही पकड़ने की कोशिश कर रहा था और उसे लगा कि वह सार्त्र जैसा नहीं था, वह खुद सार्त्र था...

वह स्वतन्त्र था-किसी भी ऐसी थ्योरी को ढूँढ़ निकालने के लिए स्वतन्त्र था जो समूचे सामाजिक तथा राजनीतिक ढाँचे को कोई अर्थ दे सकती थी।

और वह मर्द और औरत के उस रिश्ते की बुनियाद को भी जान लेने के लिए स्वतन्त्र था, जिसे वेदों से लेकर कामशास्त्र तक कइयों ने जानने की कोशिश की थी, पर वे अभी तक कुछ नहीं जान सके थे।

और सुकुमार को लगा कि उसकी स्वतन्त्रता निराकार थी।

स्वतन्त्रता के प्रयोग के लिए और उसे छूकर हाथ लगाकर, देख सकने के लिए, उसका एक आकार चाहिए... और सुकुमार को लगा कि उसमें और सारत्र में एक फर्क था-सात्त्र के पास अपनी स्वतन्त्रता को आकार दे सकने के लिए दो हथियार थे-एक उसकी कलम और दूसरा उसकी दोस्त औरत । पर उसके अपने पास कोई भी हथियार नहीं था, और यही फर्क उसका दुखान्त था...

'भयानक दुखान्त' सुकुमार रो नहीं सकता था इसलिए हँस दिया। और उसका मन हुआ कि वह इस भयानक दुखान्त से एक भयानक मज़ाक करे

कितनी देर तक उसके मन का पानी खौलता रहा। कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक और दूसरे कोने से फिर पहले कोने तक आते-जाते हर बार सुकुमार का ध्यान उस छोटे-से शीशे पर पड़ा जो दीवार के एक कोने में खड़ा बार-बार उसके साए को पकड़ने की कोशिश कर रहा था। और फिर एक बार सुकुमार के कदम रुक गए-शीशा जैसे उसके साए को पकड़ पाने में सफल हो गया हो!

उसने शीशे में झाँका और अपने भयानक दुखान्त को एक भयानक मज़ाक करना चाहा। खौल-खौलकर सूख चुके पानी की तरह उसे अपने सामने कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।

मन में सूख चुके पानी की एक सफेद और गर्म तह जमी हुई थी-होंठों की तरह हौले से फड़कती। और उसे लगा, वह अपनी ओर देखकर स्वयं से कह रहा था-सो माई डियर...यू आर सार्त्र...सार्त्र होशियारपुरी...