धुआओं ओर लाट

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

हरदेव ने जब पीली तहमत उतारकर पैण्ट पहन लिया और टाई की गाँठ डालने लगा तो उसे लगा, पिछले सात दिनों वाला हरदेव कोई और था और आज का हरदेव कोई और।

पिछले सप्ताह वाले हरदेव को उसने चौंककर आवाज़ दी, “देव...!” देव उसने इसलिए कहा कि सारा सप्ताह ब्रह्मी उसे देव कहकर ही पुकारती रही थी। हरदेव कहना उसे मुश्किल लगा था।

“हाँ, हरदेव!” देव की आवाज़ आई।

“मुझसे ऐसे बिछुड़ जाएगा, दोस्त ?”

“शायद बिछुड़ना ही पड़े हरदेव, हम एक धरती पर रहकर भी एक ही धरती के आदमी नहीं लगते ।'

“मैं तेरा इतना गैर हूँ

“गैर ? हाँ, गैर ही कह सकता हूँ। मुझसे तू पहचाना भी नहीं जाता ”

“वस्त्रों के रंग और उनकी बनावट इतना अन्तर डाल देती है ?”

“नहीं हरदेव, सिर्फ वस्त्रों की बात नहीं। तू एक लेखक है, लेखक भी वह जिसका नाम हज़ारों आदमियों की ज़बान पर है, और मेरा नाम-मेरा नाम शायद ब्रह्म के सिवा और कोई नहीं जानता।”

हरदेव को उसकी बात पर कुछ ईर्ष्या-सी हुई। एक बार तो उसकी इच्छा हुई कि कहे-देव, मेरे दोस्त! तू मुझसे कहीं अधिक भाग्यशाली है। हज़ारों लोग मेरा नाम लेते हैं, पर मुझे कभी नहीं लगा कि मुझे कुछ जरूरत है। तेरा नाम कोई नहीं लेता, सिर्फ ब्रह्मी ने इस पिछले सप्ताहभर तेरा नाम लेकर तुझे पुकारा है, और तुझे लगता है कि ब्रह्मी तुझे जानती है। पर सचमुच हरदेव ने कुछ कहा नहीं।

“इतनी उदासी क्‍यों हरदेव ? हर शहर तेरी बाट देखता है, हर कालेज तुझे सम्मान देता है। कल धर्मशाला के गवर्नमेंट कालेज में तेरा स्वागत होना है। कितने ही लड़के-लड़कियाँ तेरे इर्द-गिर्द घूमेंगे, कितनों की तेरे साथ बातें करने की इच्छा होगी। कापियों का झुरमुट तेरे चारों ओर मंडरायेगा कि तू उनपर अपना नाम लिख दे।

कितनी लड़कियाँ जब अपने दोस्तों को पत्र लिखेंगी तो तेरे गीत लिख-लिखकर अपने हृदय की बात कहेंगी। तुझे याद नहीं, तेरा नाम॑ सुनकर तेरी सीट बुक करने वाले कलक का चेहरा चमक उठा था? प्लेटफार्म पर घूमते लोग डिब्बें के बाहर तेरा नाम पढ़कर तुझे देखने के लिए जमा हो गए थे”

“कुछ न कह देव! यह सब ठीक है, पर इससे हृदय में पड़ा हुआ गढ़ा नहीं भरता ।"

फिर ?

“तू मेरे साथ चल, जहाँ मैं रहूँगा, तू भी रहना। मैं अपने कामों की भीड़ से फुरसत पाकर तेरे साथ बातें किया करूँगा। मैं बहुत अकेला हूँ, बिलकुल अकेला। सैकड़ों लोगों की भीड़ में भी अकेला, हज़ारों लोगों की भीड़ में भी अकेला। मैं तुझसे अपने मन की बात किया करूँगा।”

“मुझे तेरा शहर और तेरी सभ्यता झेल नहीं सकती हरदेव! तेरी ज़बान भी तो मेरी समझ में सदा नहीं आती। तू कभी हिन्दुस्तानी कविता की बातें करता हैं, कभी अंग्रेज़ी और रूसी कविता की। अनेकों तू उनके नाम रखता हैः कभी रोमांटिक कहता है तो कभी छायावादी, कभी यथार्थवादी तो कभी प्रतीकवादी, कभी प्रगतिशील तो कभी परम्परावादी और मेरी समझ में कुछ नहीं आता।

हरदेव ने सिर झुका लिया। पिछले कितने ही दिन उसे याद हो आए। बरसों से उसके भीतर एक धुआँ सुलगता रहा है और पिछले कुछ महीनों से उसे लगा है कि जैसे उस धुँए में उनकी सांस घुटने लग गई थी। धर्मशाला के गवर्नमेंट कालेज ने उससे अनुरोध किया था कि वह उनके कालेज में आकर तीन भाषण दे-एक प्राचीन हिन्दुस्तानी कविता पर, एक आधुनिक हिन्दुस्तानी कविता पर और एक दूसरे देशों के साथ हिन्दुस्तानी कविता की तुलना पर। उसने हाँ कर दी थी। आठ दिन वह पुस्तकों पर सिर झुकाए बैठा रहा था। कितने कागज़ उसने तैयार किए थे, और फिर पन्द्रह दिनों के लिए समय निकालकर वह दिल्ली की शोरगुल से भरी सड़कों को छोड़कर धर्मशाला के एक खामोश कोने में आ बैठा था। उसकी इच्छा थी कि दस-बारह दिन एकान्त में रहकर ज़माने से मन में पड़ी हुई कड़ानियों को टटोलेगा और गीतों को शक्ल देगा और फिर अपने तीन भाषण खतम करके दिल्ली लौट जाएगा।

लेकिन धर्मशाला में होटल का एकान्त कमरा भी उसके मन को चैन न दे सका। वह रोज़ सुबह बस में बैठ जाता और जिस गाँव में उसका दिल करता, उतर जाता। उसके साथ छोटा-सा थैला रहता था, जिसमें वह डबल रोटी, मक्खन, अण्डे और कुछ फल रख लेता, थर्मस में चाय डाल लेता, सिगरेट की दो डिब्बियाँ रख लेता, थोड़े-से कागज़ और एक कलम सम्भाल लेता और खादी की नीली चहर तथा

हवा तकिए को तह करक थैले में डाल लेता। जहाँ दिल होता घूमता, जहाँ दिल होता अपनी नीली चहर तथा हवा तकिए में हवा भरकर सो जाता...और साँझ तक फिर गाँव के समीप आ जाता और किसी गुज़रती हुई बस में बैठकर रात को होटल लौट आता। तीन दिन इसी तरह गुजर चुके थे। चौथे दिन साँझ को वह सारा दिन पास के गाँव नूरपुर के खेतों में गुज़ारकर लौट रहा था तो एक चिकने पत्थर से उसका पैर ऐसा फिसला कि सम्भलते-सम्भलते भी गिर पड़ा और चोट लग गई। टखना सूज गया और जहाँ बैठा हुआ था, बैठा रह गया। अँधेरा हुआ जा रहा था और उसके पैर ने एक भी कदम आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया।

अँधेरा साँवले से काला हुआ जा रहा था कि उसे पास ही बाँस के पेड़ से पत्ते तोड़ती एक लड़की दिखाई दी। वह सोच रहा था-उस लड़की के स्थान पर कोई मर्द होता तो वह आवाज़ दे लेता। उस लड़की ने पत्तों का एक गट्ठर बाँधा और हाथ में लिए पानी के मटके को सम्भालती हुई उसके पास से गुज़री तो कहने लगी-क्यों बाबू, रास्ता भूल गया ?”

लड़की की बोली पहाड़ी थी, पर उसकी बात आसानी से समझ में आ जाती थी। हरदेव ने उसे बताने की कोशिश की कि उसके पैर में चोट लग गई है और वह चल नहीं सकता। हरदेव उसे आगे बताना चाहता था कि अगर वह गाँव से किसी आदमी को भेज दे, तो वह उसके कन्धे का सहारा लेकर गाँव तक पहुँच सकता है। लड़की ने पत्तों पर गट्ठर वहीं छोड़ दिया और हरदेव का थैला अपने पानी के मटके पर रखकर उससे कहा कि वह उसके कन्धे का सहारा लेकर चलने की कोशिश करे।

कोई तगड़ा मर्द होता तो भी हरदेव उसका सहारा लेकर इतनी आसानी से नहीं चल सकता था जैसा कि उस युवती के कन्धे पर हथेली रखकर चल सका था। हर कदम पर उसे ख्याल रहता था कि कहीं उसके कन्धे पर अधिक बोझ न डाल दे । अपने लँगड़ाते पैर की वह मिन्‍नत करता रहा कि कुछ तो सहनशक्ति दिखाए। बेशक पैर लँगड़ाता था, पर आख़िर वह एक मर्द का पैर था। और अब उसे एक लड़की के सामने ललकार पड़ी तो उसका दिल दुगुना हो गया।

काफी गहरा अँधेरा घिर आया था जब हरदेव गाँव की सीमा में पहुँचा । युवती उसे अपने घर ले गई।

“मैं तुझे क्या कहकर पुकार?” हरदेव ने पूछा था।

“मेरा नाम ब्रह्मी है, बाबू।”

“तू मुझे बाबू क्यों कहती है? मेरा नाम हरदेव है।”

“तेरा नाम बड़ा मुश्किल है, बाबू!”

“मुश्किल है? तू आसान बना ले...कह तो, देव ।”

“देव!” ब्रह्मी ने कहां। ; “यहाँ गाँव में कोई सराय या मन्दिर होगा? मैं वहाँ सो रहूँगा। ब्रह्मी ने कुछ नहीं कहा। पर जब उसे दरवाज़े के आगे छोड़कर वह भीतर चली गई, तो एक क्षण भी नहीं बीता था कि ब्रह्मी के बापू ने आकर हरदेव का बाजू पकड़ लिया। “कोई फ्रिक की बात नहीं बांबू! रात-भर यहीं रहो, पैर सेकेंगे, कल ठीक हो जाओगे।”

दिनों वह कल अगले दिन नहीं आया। उसके अगले दिन भी नहीं। बड़े दिनों पर जा पड़ा। हरदेव के पैर की सूजन तीन दिन वैसी ही रही। ब्रह्मी का बापू हर रोज़ उसके पैर पर गर्म तेल की मालिश करता और फिर कसकर बाँध देता। हरदेव को यह भी ख्याल आया था कि किसी बस वाले के हाथ पत्र भेजकर अपने होटल में खबर कर दे, किसी डाक्टर को बुलावा ले, या अपने होटल में से कुछ चीजें ही मँगवा ले। पर फिर उसे लगा कि यह सब कुछ ब्रह्मी की सेवा कर निरादर है। वह जिस खाट पर पड़ा था, वहीं पड़ा रहा।

अपनी नीली चह्दर को उसने तहमत बना लिया था। रोज़ दुपहर के समय ब्रह्मी उसकी कमीज़ धो देती। खालिस ऊन के दो पटूटू ब्रह्मी के बापू ने उसकी खाट पर बिछा दिए थे। ब्रह्मी की माँ उसके लिए चावल उबालती, दाल बनाती, पेठे की सब्ज़ी बनाकर देती, फिर भी ब्रह्मी को सन्‍्तोष नहीं होता था।

उसने अपने पड़ोसियों को धान और मक्‍की देकर थोड़ा-सा गेहूँ का आटा ले लिया था, जिसकी वह रोज़ पतली-पतली रोटियाँ सेंकती थी।

चार दिन बाद हरदेव को इतनी शक्ति आ गई कि वह खाट से उठकर ब्रह्मी के चूल्हे के पास आकर बैठ जाता। गीली लकड़ियाँ बार-बार धुआँ छोड़तीं, ब्रह्मी रोटी बनाती और हरदेव लकड़ियों को फूँक मारता।

दीपावली समीप आ रही थी।

ब्रह्मी की माँ अपने मिट्टी के घर को लीपने-पोतने लगी। हरदेव को पहली बार गीली मिट्टी की सुगन्‍्ध इतनी प्यारी लगी, उसे महसूस हुआ जैसे इसके आगे सब सुगन्धियाँ तुच्छ हों। आँगन लीपकर ब्रह्मी की माँ ने गेरू घोलकर सारे आँगन में किसी के पैरों के निशान बनाने शुरू कर दिए। “यह क्‍या ब्रह्मी?” हरदेव ने पूछा।

“यह कहती है, इन्हीं निशानों पर पैर रखकर लक्ष्मी आएगी ।” ब्रह्मी ने बताया।

हरदेव का मन उसके भोले विश्वास के प्रति सम्मान से भर गया, पर उसने हँसकर फिर पूछा-“सच ब्रह्मी ? लक्ष्मी आएगी ? मुझे दिखाओगी?” न ब्रह्मी ने कभी लक्ष्मी आती देखी थी, न उसकी माँ ने, और न ब्रह्मी की माँ की माँ ने ही देखी होगी। ब्रह्मी हँस पड़ी - लक्ष्मी भी कभी दिखाई देती है ? “हाँ, कभी-कभी नज़र आती है।” हरदेव ने कहा।

“कब ?”

“जब वह दिखाई देती है, उसका नाम बदल जाता है।

ब्रह्मी उसके मुँह की ओर देखती रह गई।

“कभी-कभी उसका नाम ब्रह्मी भी हो जाता है।” हरदेव ने कहा। सुनकर ब्रह्मी के मुँह पर जो झेंप आई और उसका मुँह जिस तरह सुलग उठा-हरदेव को लगा-उसने सँसार-भर के चित्रकारों की कला देखी है, पर ऐसा पवित्र रूप कहीं नहीं देखा था।

ब्रह्मी के बापू ने अपने बाबू के स्वागत के लिए एक दिन शहर से डबल रोटी और अण्डे मुँगवाए। हरदेव मिन्‍्नतें करता रहा कि अब उसे मक्की की रोटी और उबले हुए चावलों से बढ़कर कुछ अच्छा नहीं लगता, पर ब्रह्मी को और उसके घर वालों को अपनी मेहमान-नवाज़ी काफ़ी नहीं लग रही थी।

ब्रह्म ने आग जलाई। हरदेव ने तवा रखकर ब्रह्मी को अण्डे बनाने बताए। ब्रह्मी चाय बना रही थी। लकड़ियाँ बुझ-बुझ जाती थीं। हरदेव ने कितनी फूँकें मारी, पर धुआँ घना हुआ जा रहा था। ब्रह्मी ने एक ज़ोर की फूँक लगाई, धुएँ के बादल में से एक लाट निकली और चूल्हे के पास झुकी हुई ब्रह्मी का मुँह चमक उठा। यह पहली बार था जब हरदेव को लगा, बरसों से उसके मन में जो धुआँ सुलगता रहता था, आज किसी ने उसे ऐसी फूँक मारी थी कि उसमें से रोशनी की एक सुर्ख लाट निकल पड़ी थी-और उस लाट में ब्रह्मी का मुँह चमक उठा था। ब्रह्मी एक लड़की नहीं थी, मनुष्य का पवित्र प्यार थी।

अगले रोज़ ब्रह्मी ने एक अजीब बात की। उसने हरदेव से पूछा-“देव बाबू, तुमने कहा था कि लक्ष्मी जब दिखाई देती है, उसका नाम बदल जाता हैः

“हाँ!

“कभी-कभी लक्ष्मी मर्द भी बन जाती है ?”

यह पहली बार थी जब हरदेव को उत्तर देने के लिए कुछ नहीं सूझा। वह ब्रह्मी के मुँह की ओर देखता रह गया।

हरदेव के हवा-तकिए में ब्रह्मी बड़े चाव से फूँक लगाती और जब वह भर

जाता, हरदेव उसके साथ इस तरह मुँह लगा लेता गोया उसमें से ब्रह्मी की साँस आ रही हो।

सोच में डूबे हरदेव ने सिर उठाया। देव उसके सामने खड़ा था। हरदेव ने अपनी

गर्म स्‍लेटी पैण्ट पहन रखी थी और देव ने अपनी कमर के गिर्द नीली तहमत बाँध रखी थी।

“तू मेरे साथ नहीं चलेगा ?”

"मेरे लिए और कहीं जगह नहीं हरदेव, मैं यहीं रहूँगा।”

"यहां ? ब्रह्मी के घर ? क्‍या करेगा यहाँ ?”

ब्रह्मी जंगल के चश्मे से अकेली पानी लेने जाती है, मैं उसके साथ जाया करूगा । वह खेतों में जाकर धान काटती है, मैं उसका गट्‌ठर उठवाया करूँगा। बह चूल्हे क॑ आगे बैठकर रोटियाँ सेंकती है, मैं आग जलाया करूँगा!”

“वह थोड़े दिन बाद ससुराल चली जाएगी!”

डर मैं उसकी डोली के साथ जाऊँगा। वह अपना नया घर बनाएगी मैं उसे सजाया करूँगा ।'

“पर देव! तेरा उसके साथ रिश्ता क्‍या होगा ?”

“यही तो दुनिया वालों की बुरी आदत है, कि वे आदमी का आदमी के साथ रिश्ता जानना चाहते हैं। वे आदमी को पीछे देखते हैं, रिश्ते को पहले। क्या औरत का मुँह औरत का नहीं होता? क्‍या वह जरूर माँ का मुँह होना चाहिए? बहन का मुँह होना चाहिए? बेटी का मुँह होना चाहिए? बीवी का मुँह होना चाहिए? औरत का मुँह औरत का क्‍यों नहीं रह सकता ?”

“तू ठीक कहता है, देव, मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं।”

“कम से कम तुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए।”

मैं कुछ नहीं पूछता ।”

“आज तूने अपने हवा-तकिए को खाली नहीं किया हरदेव ?”

“इसे ब्रह्मी ने अपने हाथों से भरा है।”

“तो फिर ?

“जितने दिन हो सका उसकी साँस के साथ सिर लगाकर साँस लूँगा।”

“कितने दिन हरदेव? तेरी दुनिया की हवा इस दुनिया से अलग है। वह सभ्यता की हवा है। उसमें हर समय घृणा और युद्ध के कीटाणु होते हैं। यह सभ्यता की दौड़ में पीछे छूट गई दुनिया की हवा है, इसमें मुँजी और मक्की की बालियाँ साँस लेती हैं। तेरी दुनिया की हवा में ब्रह्मी की साँस घुट जाएगी।”

हरदेव ने कुछ नहीं कहा, तकिए का पेंच खोल दिया। ब्रह्मी की साँस ने एक बार हरदेव की साँस को स्पर्श किया, फिर मकक्‍्की की बालियों को छूकर आती हवा में मिल गई।...