अमाकड़ी

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

किज्ञर के होंठ जवानी के रोष और बेबसी के गर्म पानियों में उबल रहे थे।

और इन होंठों से जब उसने अपनी विवाह की पहली रात में अपनी बीवी के जिस्म को छूआ, उसे लगा कि वह एक कच्चा शलजम खा रहा था।

किशोर के बाप ने आज सारी हवेली का मुँह - माथा बिजली की रोशनी से सँवारा हुआ था, पर किशोर के सोने के कमरे को आज सारी हवेली से विशिष्ट रूप देने के लिए किशोर की बहनों ने और किशोर की भाभियों ने, जिनमें उसके दोस्तों की बीवियाँ भी शामिल थीं, और जिनके साथ उसके दोस्त भी मिले हुए थे, मोमबत्तियों की रोशनी चुनी थी।

किशोर ने मोमबत्तियों की रोशनी में अपनी बीवी के मुँह की ओर देखा ।

उसकी बीवी के गोरे-गोरे मुख पर एक मुस्कान थी।

फिर किशोर ने मोमबत्तियों के मुख की ओर देखा, मोमबत्तियों के गालों पर पिघलती मोम के आँसू बह रहे थे।

और किशोर का दिल किया, कि वह अपनी सारी की सारी बीवी को झकझोर कर कहे कि यह देख इन मोमबत्तियों के आँसू तुम्हारी एक मुस्कान का मूल्य चुका रहे हैं।

किशोर ने अपनी जुबान दाँतों के नीचे दबा ली।

उसे लगा कि अभी उसकी बीवी खिलखिलाकर हँस उठेगी और कहेगी, “आज इस हवेली की बैठक को तो देखा।

अगर एक कोने में रेडियो-ग्राम पड़ा है तो दूसरे कोने में रेफरीजरेटर रखा हुआ है।

तीसरे कोने में कपड़ों से भरे-पूरे ट्रंक पड़े हैं और चौथा कोना पलंगों और अलमारियों से भरा हुआ है।

और हवेली के दरवाज़े पर खड़ी मोटर-ये सब चीज़ें तुम्हारे दिल का मूल्य चुका रही हैं।'

किशोर ने एक-एक कर सारी मोमबत्तियाँ बुझा दीं जैसे हाथ से उनके आँसू पोंछ लिए हों। और फिर उसे लगा कि इस अँधेरे ने अपने रूमाल से उसकी बीवी की मुस्कान को ढंक दिया था।

काफी देर बाद जब किशोर को यह लगा कि घर के सारे लोग उसकी बीवी की तरह सो गए थे, वह धीरे-धीरे अपने बिस्तर से उठा और हल्के से कमरे का दरवाज़ा खोलते हुए हवेली के बगीचे में चला गया।

हवेली का माथा बिजली की बत्तियों में चमक रहा था।

बड़े मालिक के हुक्म के मुताबिक यह रोशनी पूरी रात इसी तरह रहनी थी।

किशोर ध्यानपूर्वक हथेली को देखने लगा और फिर देखते-देखते उसे अमाकड़ी के गले में पहनी हुई कुड़ती याद हो आई।

काले सूप की छोटी-सी कुड़ती जो सीप के सफेद बटनों से मढ़ी हुई धी।

किशोर को अपनी ननिहाल याद आई।

अपने ननिहाल गाँव का अजरा जाट याद आया। और इस अजरे जाट की बेटी अमाकड़ी याद आई।

किशोर जब कालेज में पढ़ता था, एक बार अपनी माँ के कहने पर गर्मी की छुट्टियों में अपनी ननिहाल चला गया था और फिर पूरे तीन सालों के लिए उसने सारी की सारी छुट्टियाँ अपनी ननिहाल गाँव के लेखे लगा दी थीं।

“अमाकड़ी-यह भला तुम्हारे मा-बाप ने तुम्हारा क्या नाम रखा है?” किशोर ने उससे पूछा था।

“हमारे गाँव में आम बहुत होते हैं। लोग उन्हें चूसते भी हैं, उनका अचार भी डालते हैं, उनका मुरब्बा भी डालते हैं, उनकी चटनी भी बनाते हैं और उनकी फॉकें सुखाकर मर्तबान भर लेते हैं-मेरी माँ ने मुझे भी आम की एक फॉँक समझ लिया और मेरा नाम अमाकड़ी रख दिया था ।”

उस तीखी, पतली और साँवली लड़की ने बड़े भोलेपन से किशोर को जवाब दिया।

पहले साल की छुट्टियाँ तो पूरी हँसी-खेल में बीत गई थीं, सिर्फ इतना फरक पड़ा था कि शहर से गाँव जाते समय किशोर ने माँ को जो बात कही थी, “मैं तुम्हारी बात नहीं मोड़ता, पर इतनी बात अभी बता देता हूँ कि मुझसे गाँव में अधिक दिन नहीं कटेंगे। पाँच-सात दिन रहूँगा और फिर बाकी की छुट्टियाँ बिताने के लिए मैं किसी दोस्त के पास चला जाऊँगा /” वह बात किशोर को याद न रही।

गाँव में बहुत-से-आम के बाग थे। एक बाग अमाकड़ी का भी था।

किशोर सारा दिन आम के उस बाग मैं बैठा रहता था।

यहीं बैठकर पढ़ता था और दुपहर को आमों की छाया में चारपाई डालकर वहाँ सो रहता था।

दुपहर को चलती लू में चाहे ज़मीन गर्म हो जाती थी पर घड़ों का पानी ठंडा हो जाता था।

अमाकड़ी ने उसके लिए अपने बाग में एक कोरा घड़ा ला रखा था, जिस पर उसने “चप्पनी' के स्थान पर काँसे का एक चमकता कटोरा औंधा धरा हुआ था।

न मालूम दुपहर की लू के हाथों, या कोरे घड़े की सुगन्ध के हाथों, या काँसे के चमकते कटोरे के हाथों, किशोर को बार-बार प्यास लग आती थी। और जब

वह आमों की रखवाली करती बैठी हुई अमाकड़ी को पानी पिलाने के लिए कहता था तो अमाकड़ी हर बार उसे कहती थी “किशोर बाबू, तुम्हें हट समय प्यास ही लगी रहती है ?” और अमाकड़ी की हँसी उसके हाथ में पहनी हुई चूड़ियों की तरह खनक उठती थी।

किशोर को पूरी की पूरी अमाकड़ी आम की एक टहनी जैसी लगती थी।

अमाकड़ी अपने गले में कच्चे हरे रंग की कमीज़ पहनती थी, जो किशोर को टहनी के हरे पत्तों जैसो लगती थी।

और जिस दिन जब कभी यह अपनी कमीज़ बदल आती थी, किशोर उसे उस कमीज़ की याद दिला दिया करता था और फिर अगले दिन अमाकड़ी उस कमीज़ को धो-सुखाकर फिर पहन आती थी।

बस, इस तरह पहले साल की छुट्टियाँ हँसी-खेल में ही बीत गई थीं। किशोर शहर लौट आया था।

और शायद कोई नन्ही - सी, कोयल-सी अमाकड़ी का आकर्षण भी अपने साथ ले आया था, जिसे उसने सिर्फ उस समय महसूस किया जब अगले साल की छुट्टियाँ हुई और किशोर फिर ननिहाल चला गया था।

इस बार जब उसने गाँव जाकर अमाकड़ी को देखा, उसे लगा कि पिछले साल तो तीखी-सी, पतली-सी और साँवली-सी अमाकड़ी आम की टहनी-सी लगती थी, इस बार वह पूरे आम का पौधा बन गई थी।

घने पत्तों जैसे बाल अमाकड़ी के माथे पर गिर रहे थे। और इस बार उसकी आँखें बिल्कुल ऐसी थीं जैसे किसी ने आम की फॉकें काटकर उसके मुख पर रख दी हों।

किशोर अमाकड़ी के मुख की ओर देखता रह गया था और किशोर को उस समय होश आई जब अमाकड़ी ने घबराकर अपने दोनों हाथों से अपनी आँखें दँक ली थीं।

आम की फॉँकें ढँक ली थीं और फिर जल्दी से आमों के बाग से भाग गई थी।

वैसे दूसरे दिन किशोर ने देखा था कि पेड़ों की छाया में उसके लिए एक नई खाट डाली हुई थी और खाट के पाए के पास पानी से भरा हुआ एक कोरा पड़ा रखा हुआ था।

और उस दिन दुपहर को अमाकड़ी जब अपने बाग में आई थी उसने गले में कच्चे हरे रंग की कमीज़ पहनी हुई थी और हाथों में उसी रंग की काँच की चूड़ियाँ पहनी हुई थीं।

इन छुट्टियों में अमाकड़ी के लिए किशोर की भूख जगी हुई थी और फिर यह भूख उसकी आँतों में सुलगने लगी थी।

इसी भूख के हाथों दुखी होकर एक दिन किशोर ने अमाकड़ी की बाँह पकड़ ली थी, अमाकड़ी ने बाँह छुड़ाकर कहा था, “किशोर बाबू! आम की इस फॉँक को खाकर तुम्हारा क्या सँवरेगा ?

आज तुम इसे चखोगे और दूसरे दिन एक छिलके की तरह फेंक जाओगे।” अमाकड़ी ने अपना मुँह परे कर लिया था और किशोर का मुँह भूख से तड़पता रह गया था

यूँ छुट्टियाँ हँसी-खेल में नहीं बीती थीं, बल्कि आँसुओं की तैयारी में बीती थीं।

इस बार किशोर जब शहर लौटा था, कुछ आहें वह अपने साथ ले आया था, और कुछ आहें वह अमाकड़ी को दे आया था।

और फिर वह अगले साल की गर्मियों का इन्तज़ार न कर पाया था।

सर्दी की छुट्टियाँ चाहे थोड़ी थीं, पर वह कॉपते पैरों से अपनी ननिहाल पहुँच गया थी और अपनी जेब में वह दुनिया के सारे इकरार भर कर ले गया था।

और इस बार रा अमाकड़ी ने उसके लिए अपने मन की फॉँक चीरकर अपने तन की थाली में परस दी थी।

और फिर अगले साल जब गर्मी की छुट्टियाँ हुई थीं, किशोर फुर्ती से अपनी ननिहाल गया था, तो उसने अमाकड़ी को, आम की फाँक को, अपनी दोनों आँखों से चूमकर कहा था :

“आज तुम्हारे पुँघराले बाल मुझे शहद के छत्ते-से दिखाई देते हैं और तुम्हारे. होंठ कोरा शहद!

“और मेरी आँखें ? ये शहद की मक्खियाँ नहीं लगतीं तुम्हें? छत्ते को सम्भालकर हाथ डालना।

अमाकड़ी ने उत्तर दिया था और किशोर को सचमुच लगा कि जैसे आँखें शहद. की मक्खियों की तरह उसके दिल को लड़ गई हों और अब उसके दिल पर एक सूजन चढ़ी जा रही थी।

आम की फॉक को शहद का छत्ता बने अभी थोड़े ही दिन हुए थे जब किशोर... ने एक दिन उसके ताज़े धुले बालों को सूँघकर उससे कहा था :

“शराब मैंने कभी पी नहीं, पर तुम्हें देखते ही मेरे होश-हवास खो जाते हैं।

और इस तरह अमाकड़ी का रूप इस तरह हो गया था जैसे वह आमों के रस को, शहद की बूँदों को और शराब की घूँटों को मिलाकर खा गया हो।

उस बार किशोर जब अमाकड़ी से बिछड़ने लगा था, अमाकड़ी की बाँहें उसके. बदन से छूटते समय ऐंठ गई थीं। और बावरी हुई अमाकड़ी ने किशोर की बाँहों . पर जगह-जगह अपने दाँत सटाकर लाल निशान उघाड़ दिए थे और कहा था, “ये अनार के फूल जितने दिन तुम्हारी बाँहों पर खिले रहेंगे, मुझे उतने दिन तो याद करोगे!

“मेरी जंगली बिल्ली, मेरी हलकाई बिल्ली,” और किशोर ने अपनी बाँहों पर उभरे लाल फूलों को चूमकर एक आम की फॉक का, एक शहद के छत्ते का, और जहर एंक शराब की सुराही का एक नया रंग देखा था।

उन गर्मियों में बरसात कुछ जल्दी पड़ गई थी।

और उस दिन अमाकड़ी ने शाम की हल्की सर्दी में अपने गले में काले सूप की वह कुड़ती पहनी हुई थी, जिसकी सारी छाती सीप के सफेद बटनों से मढ़ी हुई थी।

अमाकड़ी के कानों में चाँदी की बालियाँ थीं, और हाथों में कौँच की चूड़ियाँ थीं, बस यही मुट्ठी भर बटनों का, तोला भर चाँदी का और थोड़े-से काँच का श्रृंगार करके अमाकड़ी खड़ी हुई थी।

उस दिन किशोर को पहली बार एक अल्हड़ गँवारिन लड़की के श्रृंगार का और पढ़ी-लिखी शहरी लड़कियों के श्रृंगार का फर्क समझ में आया।

उस दिन से लेकर किशोर को अपने शहर की और अपने कालेज की सभी लड़कियाँ कोट-हैंगरों की सी दिखाई देने लगी थीं, उन हैंगरों पर कोई तरह-तरह के फैशनों के कपड़े सीकर टाँग देता है।

फिर किशोर के मन की यह खुशबू और अमाकड़ी के मन की यह खुशबू गाँव से उड़ती-उड़ती शहर में आ पहुँची थी, और जब किशोर के बाप को इस बात का पता लगा था, तो उसने किशोर की माँ को पास बिठाकर कहा था, “ एक बार अगर कोई मुहब्बत के कुएँ में गिर पड़े तो फिर वह किसी से नहीं निकाला जाता यूँ ही बेटे को न गँवा लेना। जल्दी से विवाह का रस्सा डाल दे और इसे कुँए से निकाल ले।”

यह नहीं था कि किशोर ने हाथ-पाँव नहीं मारे थे, पर उसके माँ-बाप की जिद एक तैराक की तरह हाथ में शादी का रस्सा लेकर इस कुँए में उतर पड़ी थी और किशोर को कस-बाँधकर इस कुएँ में से निकाल लाई थी।

आज विवाह की पहली रात थी और किशोर अमाकड़ी को इस तरह याद कर रहा था जैसे कुएँ की जगत पर खड़ा होकर कूएँ में झाँक रहा हो। अब उसे मालूम था कि अगर वह चाहे तो लौटकर वह इस कुएँ में नहीं गिर सकता था, क्योंकि अब उसकी गर्दन में उसके विवाह का रस्सा बँधा हुआ था।

पर फिर भी अभी वह कुएँ की जगत से नहीं उतर पा रहा था। शायद इस कुएँ का जो पानी उसने पिया था, वह पानी उसकी नाड़ियों से अपना हक माँग रहा था।

रात शायद खत्म होने पर आई थी। हवेली की बत्तियाँ एक-एक कर बुझने लगी थीं। और किशोर को लगा कि अमाकड़ी के गले में पहनी हुई कुड़ती से कोई सीप के बटनों को एक-एक करके उतार रहा था।

सबेर-सार जब किशोर की बहनों और भाभियों ने रात के जगने से किशोर की लाल हुई आँखें देखीं-तो वे हँसी से दुहरी होती किशोर को छेड़ने लगीं, “आपकी ही दुल्हन थी, कहीं भाग तो नहीं चली थी।

इतनी क्‍या पड़ी थी सारी रात जगने की!” तो किशोर ने मुँह नहीं खोला था।-पर फिर जब किशोर की बहनों ने दहेज में आए हुए रेफरीज़रेटर को बड़े चाव से खोलते हुए किशोर से पूछा था, “आज

वीरजी, इसमें कौन-कौन सी चीजें रखें?” तो किशोर का भींचा हुआ मुँह खुल गया, “इसमें शलजम रख दो।” किशोर ने कहा और एक ओर चला गंयां।

कितने ही दिन बीत गएं।

आमों का मौसम आया। घर के सब लोगों ने आमों को दिल भरकर फ्रिज में ठंडा किया, पर किशोर ने आम को मुँह न लगाया।

सवेरे की चाय के समय अगर मेज़ पर शहद पड़ा होता, किशोर बिना चाय पिए कमरें से चला जाता।

किशोर के दोस्त आते, फ्रिज में शराब की बोतलें रखते, पर किशोर ने कभी कसम खाने को भी एक पूँट न भरा-और जब एक बार उसकी बहन खीझे उठी, उसकी भाभियाँ गुस्से हो गईं, और उसके दोस्त उसपर बरस पड़े, तो सिर्फ एक बार किशोर के मुँह से निकला, “तुम मुझे कोई चीज़ न दिया करो खाने के लिए, बस शलजम दे दिया करो, शलजम। मैं सिर्फ शलजम खाने लिए जन्मा हूँ।” फिर गर्मियाँ आ गईं।

किशोर के ससुराल वालों ने किशोर का और उसकी बीवी का कमरा एयर-कण्डीशण्ड करवा दिया। उन्होंने कहा था हमारी गुल्लो को गर्म कमरे में रहने की आदत नहीं।

किशोर जब कारखाने से उठकर, दुपहर का खाना खाने के लिए घर आता तो रोज़ उसकी बीवी उसे ठण्डे कमरे में थोड़ा आराम करने को कहती।

किशोर ने अपने मन में धार लिया था कि मैं एक मर्द नहीं, मैं एक बैल हूँ। मैं सारी उमर चुप रहकर शलजम चरता रहूँगा, और आँखों पर पट्टी बॉँधकर उसी जगह पर घूमता रहूँगा जहाँ मेरी बीवी मुझे घुमाएणी। इसलिए किशोर ने कभी अपनी बीवी का कहा नहीं मोड़ा था।

फिर कुछ दिन के बाद किशोर को लगा कि उसके सारे अँग सोते जा रहे हैं।

वह घड़ी-पल के लिए आराम को लेटता तो सारा दिन पलंग पर पड़ा रहता। अब उसे अमाकड़ी भी याद नहीं आती थी।

उसका लहू ठंडा होता जा रहा था।

उसके ख्याल सुन्न होते जा रहे थे। वह बर्फ का एक टोटा बनता जाता था।

किशोर की सेहत की सबको चिन्ता हुई। एक डाक्टर आता तो एक जाता। बड़ी गर्म दवाइयाँ किशोर के गले से उतरतीं। वह भी गले से नीचे उतरते-उतरते बर्फ की गोलियाँ बन जाती थीं।

फिर एक घटना घट गई ।

किशोर की ननिहांल से खत आया कि किशोर को शायद गाँव की खुली हवा माफिक आ जाएगी, और उसकी ननिहाल वालों ने उसे बुला भेजा।

किशोर ने खत पढ़ा, पर उसके सुन्न अँगों में कोई हरकत न हुई। पर उस रात किशोर को एक सपना आया। सपने में उसकी खाट आम के पेड़ों के नीचे डाली हुई थी।

खाट के पाए के पास एक कोरा घड़ा रखा हुआ था। घड़े पर कॉँसे का कटोरा औंधा पड़ा था और अमाकड़ी जब कटोरे में पानी डालकर किशोर को

देने लगी, कटोरा उसके हाथ से गिर गया और अमाकड़ी एक कोयल बनकर उसके पास से उड़ गई।

कोयल की कूकों से किशोर की आँख खुल गई । अपने ठंडे ठरे हाथों से जब किशोर ने अपने मुख को टटोला तो गर्म आँसू उसकी आँखों से बह रहे थे।

किशोर घबराकर पलंग पर उठ बैठा, और उसे ख्याल आया कि अगर वह इसी घड़ी, इसी पल इस कमरे से न निकला तो मुश्किल से पिघले हुए ये आँसू उसकी हड्डियों की तरह, उसके घुटनों की तरह और उसके ख्यालों की तरह जम जाएँगे।

और फिर वह स्टेशन की ओर चल निकला। उस ओर चल पड़ा, जिस ओर से कोयल की कूक आ रही थी।

दूसरे दिन दुपहर के समय किशोर जब आमों के बाग में पहुँचा, सचमुच ही उस जगह पर एक खाट डाली हुई थी, जो जगह पूरे तीन साल उसके लिए रक्षित रही थी। किशोर के पैर ठिठक गए, “जाने आज मेरी इस खाट पर कौन लेटा हुआ है।”

और फिर खाट पर जो कोई लेटा हुआ था, उसने करवट बदली और किशोर के कानों में चूड़ियाँ खनक उरठीं। किशोर ने आगे बढ़कर अमाकड़ी के पाँवों को छुआ और जब अमाकड़ी ने चौंककर अपने पैर परे किए तो किशोर ने देखा कि अमाकड़ी अब आम की फॉक नहीं थीं, आम का छिलका थी। अब शहद का छत्ता नहीं थी, शहद की मक्खी थी। और अमाकड़ी अब शराब की सुराही नहीं थी, सुराही का ठीकरा थी।

“किशोर बाबू...” अमाकड़ी ने कोयल की कूक की तरह कहा।

किशोर ने घुटनों के बल बैठ अपना सिर खाट पर रख दिया।

“अब तू यहाँ किसलिए आया?” अमाकड़ी ने बिलखकर पूछा।

“ठंडी यख दुनिया में मैं जम गया हूँ। मैं गर्म लू की तलाश में आया हूँ- किशोर ने खाट से सिर उठाकर कहा और फिर अमाकड़ी के हाथ को अपने कॉपते हाथ में लेकर कहने लगा, “आखिर मैं एक इन्सान हूँ ।

“एक इन्सान, एक मर्द ।” अमाकड़ी ने धीरे से कहा।

“एक इन्सान, एक मर्द।” किशोर ने अमाकड़ी के शब्दों को दुहराया।

“जो मुहब्बत के आसन से उठकर विवाह की वेदी पर जा बैठे, वह इन्सान होता है ? वह मर्द होता है ?” और अमाकड़ी ने किशोर की बाँह पर एक जानवर की तरह झपटकर अपने सारे दाँत गड़ा दिए।

किशोर अपनी बाँह पर उभरे खून के फूल को देखने लगा और थकी हुई,

टूटी हुई अमाकड़ी सिरहाने पर सिर रखेकर कहने लगी, “यह अनार का फूल नहीं, यह ज़हर का फूल है। तू मुझे जंगली बिल्ली कहा करता था न, हलकाई बिल्ली...”

“मुझे सचमुच तुम्हारे हलकाए होंठों का जहर चढ़ गया है-अमाकड़ी! इस दुनिया में मेरी कोई दवा नहीं ।” किशोर ने तड़पकर कहा। “कोई हलकाया हुआ जानवर काट जाए तो तुम्हें मालूम है कि चौदह टीके

लगवाते हैं। अभी तो तुमने एक ही टीका लगवाया है। अभी तो तुमने एक ही विवाह किया है न। कम से कम चौदह तो कर ले... ।” और अमाकड़ी की आँखें बौरा गईं।