छमक छल्लो

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

तनिक निकट आना छल्लो की माँ!

देखो न ज़रा, आज तो मेरा घुटना बहुत ही सूज गया है।”

कहते हुए छल्लो के वृद्ध पिता ने अपनी टाँग को फैलाकर देखा। टाँग में ज़ोर की टीस हुई और उसने पुनः अपनी टाँग समेट ली।

वृद्ध हुकमचन्द की पहली पत्नी का देहान्त हो गया था।

वह थी छल्लो की माँ। उसके पश्चात्‌ हुकमचन्द ने अपने धन के ज़ोर से एक युवती, करतारो से शादी कर ली थी और विवाह के दो दिन बाद ही वह उसे “छल्लो की माँ” कहकर पुकारने लगा था। करतारो को यह अच्छा नहीं लगा था और उसने कुछ गुस्से में आकर उससे कहा था, “सीधी तरह मेरा नाम लेकर बुलाया करो।

मुझे नहीं अच्छा लगता हर समय छल्लो की माँ, छल्लो की माँ... ।”

“भाग्यवान्‌, मैं जो ठहरा छललो का बाप, तो फिर तू ही बता, तू हुई कि नहीं छल्लो की माँ? मैंने कोई बुरी बात कही है ?”

वृद्ध हुकमचन्द कई बार करतारो के कहने पर “सीधी तरह” उसे उसका नाम लेकर ही पुकारने लगा था, परन्तु फिर भी कभी-कभी भूले-भटके उसके मुँह से निकल ही जाता था, छल्लो की माँ”।

छल्लो उसकी बड़ी लाड़ली बेटी थी।

उसने उसका नाम कौशल्या रखा था।

परन्तु लाड़ से वह उसे “छल्लो” कहकर पुकारा करता था, 'छल्लो की माँ!

का सम्बोधन सुन करतारो क्रोध में आ जाती थी, और तब हुकमचन्द हँसता हुआ उसे कहा करता था, “एक बेटा पैदा कर दो” फिर मैं तुम्हें उसकी माँ कहकर बुलाया करूँगा।

अच्छा, क्या नाम रखोगी उसका ?

चंनन नाम रखना उसका। फिर मैं तुमको आवाज़ दिया करूँगा, चंनन की माँ, ओ चंनन की माँ” यह सुनकर करतारो चाहे कितना ही गम्भीर बनने का प्रयत्न करती, फिर भी उसे हँसी आ जाती।

वर्षों व्यतीत हो गए, परन्तु “ओ चंचन की 'माँ” कहकर हुकमचन्द करतारो को सम्बोधन न कर सका। करतारों के घर कोई चंनन पैदा ही न हुआ।

हुकमचन्द उसे “सीधी तरह” करतारों ही कहता रहा।

हाँ, कभी-कभी उसके मुँह से निकल ही ज़ाता था 'छल्लो की माँ।

फिर देश का विभाजन हो गया।

पश्चिमी पंजाब में रहनेवाला हुकमचन्द पूर्वी पंजाब, करनाल, में आ गया।

हुकमचन्द ने जिस धन के ज़ोर से करतारों के यौवन को अपनी वृद्धावस्था से बांध रखा था, वह ज़ोर भी अब टूट गया था। पति-पत्नी के सम्बन्धों का धागा तो अभी उसी प्रकार था, परन्तु अब इस धागे को स्थान-स्थान पर गाँठ देनी पड़ती थी।

हुकमचन्द के हाथों से अब धन की लाठी छूट गई थी, अतः उसका बुढ़ापा बहुत काँपने लगा था। घुटनों की पीड़ा ने उसे और भी बेकार कर दिया था।

“अय छल्लो की माँ!” इस बार हुकमचन्द ने थोड़ी ज़ोर से आवाज़ दी।

“न छल्लो की माँ मरेगी और न उसका छुटकारा होगा। बोलो, क्या बात है ?” करतारो अपने दुपटूटे से हाथ पोंछती हुई रसोई से बाहर आई।

“यूँ ही बुरे बोल न बोला कर ।

एक 'छल्लो की माँ” तो मर गई-मेरी लाड़ली बेचारी छल्लो की माँ। अब दूसरी को भी क्‍यों मारती है।”

“हाँ, पहली को भी जैसे मैंने ही मारा है-तुम्हारी लाड़ली छल्लो की माँ को।

न वह पहली मरती न यह दूसरी आती। आप तो वह मरकर सुख की नींद सो गई और यह सब काँटे बटोरने के लिए मुझे छोड़ गई।”

“तू काँटे न बटोरा कर भाग्यवानूं, यह तेरे बस की बात नहीं। तू अपना काम किया कर-काँटे चुभोया कर।”

“मैं तुम्हें भी काँटे चुभोती हूँ और तुम्हारी नाजुक छललो को भी ।

तुम्हें चारपाई पर बैठे को थाली परोसकर देती हूँ, तुम्हारी लाड़ो बेटी को खाना बनाकर खिलाती हूँ।

यह सब मैं बाप-बेटी को काँटे ही तो चुभोती हूँ।”

“तुम क्‍यों कष्ट सहती हो करतारो! मैंने तुम्हें कई बार कहा है, अब आप ही लड़की चार रोटियाँ बना लिया करेगी ।”

“रोटियाँ बनाने की उसकी नीयत भी हो। चार टोकरियाँ लेकर जाती है और सारा दिन घर से बाहर ही बिताकर आती है।”

मैंने तुम्हें कई बार कहा है कि अब उसे टोकरियाँ बेचने मत भेजा करो। स्थान-स्थान के यात्री खरे-खोटे सभी यदि उसके साथ कुछ अच्छी बुरी हो गई तो-”

“छल्लो के बापू, मैंने तुम्हें कई बार कहा है कि यह नसीहत तू मुझे उस समय देना, जब चार पैसे कमाकर मेरी हथेली पर रखे। यहाँ चारपाई पर बैठे-बैठे ऐसे ही बोलते रहते हो। मैं... /” और करतारो सिसकियाँ लेकर रोने लगी।

सच कहती है करतारो।

मैं इसे किस मुँह से कहूँ।

पैसे ने भी साथ छोड़ दिया शरीर ने भी।

अब यह मीठा बोले अथवा कड़वा, दो रोटियाँ तो समय पर सेंक ही देती है !

हुकमचन्द के मन में टीस उठने लगी। फिर उसने बड़ी नम्नता से करतारो से कहा, “मेरे लिए लहसुन डालकर तेल गर्म कर दो।

मैं बैठकर घुटनों को मलता रहूँगा।

साथ ही ईश्वर के लिए उड़द-चने की दाल मत बनाना। यह साली मेरे शरीर को खाये जा रही है।”

“उड़द-चने की दाल क्यों? मैं आज माँस पकाऊँगी ।”

“माँस! सच, तुमने तो आज मेरे मन की बात पकड़ ली! शायद एक वर्ष हो गया, माँस की शक्ल नहीं देखी। प्रतिदिन यह जली हुई दाल...वैद्य भी कहता आ, 'हुकमचन्द, यदि तंदुरुस्त होना है, तो शोरबा पिया करो । ज़रूर पकाओ आज माँस” फिर हुकमचन्द ने अपने घुटनों की ओर देखा और उसे ऐसा महसूस हुआ, जैसे उसके मुँह की जगह उसके घुटनों को माँस का स्वाद आ गया हो।

“हाँ, हाँ आज शोरबा पीना। मैं अपना सिर काटकर उबाल दूँगी।”

'आय-हाय तुम जब भी बोलोगी, बुरे बोल ही बोलोगी। शायद मेरे भाग्य से चार की बजाय आज बीस टोकरियाँ बिक जाएँ। अरी छल्लो, मेरी छमक छल्लो! ले बेटा, आज तू मेरी बात रख लेना। मेरी बीस टोकरियाँ बेचना, पूरी बीस, और आते समय कोने वाली दुकान से पूरा आधा सेर माँस ले आना। जा बेटा, जा। मोटरों के आने का समय हो गया है। और देखना, आते समय प्याज, लहसुन, अदरक, हरी मिर्च सब कुछ लेकर आना नहीं तो यह तेरी माँ माँस को उबालकर ऐसा ही रख देगी।”

ऐसा लगता था कि छल्लो अपने बाप के मुँह से यह बातें सुनकर बहुत हँसेगी, परन्तु छलल्‍लो उसी प्रकार सिर नीचा किए टोकरियों को निरखती रही।

“किसी को टोकरी खरीदनी भी हो, तो वह इसकी सूरत देखकर नहीं खरीदता। हर समय तने घूँसे की तरह मुँह बनाकर रखती है।” करतारो के खौलते गुस्से ने जैसे अब हुकमचन्द का पीछा छोड़ दिया हो और छल्लो के पीछे पड़ गया हो।

“क्या हुआ है लड़की की सूरत को करतारो ? तुम तो हर समय इसको टोकती रहती हो...। तुमसे तो अच्छा ही मुँह है इसका ”हुकमचन्द ने जैसे करतारो के सारें गुस्से को फिर अपनी ओर मोड़ना चाहा।

परन्तु करतारो का गुस्सा इतनी जल्दी मुड़ने वाला नहीं था। वह उसी तरह छल्लो की ओर देखकर कहने लगी, “ज़रा हँसकर किसी से बात करे तो कोई एक की जगह दो चीज़ें खरीद ले। इतनी मोटरें यहाँ से गुजरती हैं। अन्दर भी सामान और बाहर भी सामान। क्या वे लोग दो टोकरियाँ खरीदकर नहीं रख सकते? इन टोकरियों का भी कोई भार होता हैं। फिर ऐसी रंग-बिरंगी टोकरियाँ। पर यह कुछ मुँह से बोले तभी न। जितनी देर मोटरवाले बाहर खड़े होकर चाय-पानी पीते हैं उतनी देर यह ज़रा उनसे मीठी बात करे, हँसकर बोले, तो देखो कौन टोकरी नहीं खरीदता... ।”

छल्लो सब कुछ इस तरह सुनती रही, जैसे उसने अपने कानों में रूई नहीं, कपड़ा ढूंस रखा हो। आगे वह कई बार कह चुकी थी, “माँ, कोई नहीं खरीदता

ये टोकरियाँ। ये लारी और बस वाले तो चाहे कोई टोकरी खरीद भी लें, पर ये मोटर वाले तो इनकी ओर देखते भी नहीं। इनके पास जाओ तो खाने को दौड़ते हैं और कहते है, हाथ मत लगाओ शीशे को, मैला हो जाएगा, ज़रा दूर खड़ी रहो। उनके पास जाने की कोई कैसे हिम्मत करे?” परन्तु माँ ने छल्‍लो की कोई दलील नहीं सुनी। जो गुस्सा उसे मोटरवाले पर आना चाहिए था, वह छल्लो पर ही आ जाता था। वह हमेशा यही कहती, तुझे ढंग भी हो बेचने का! थोड़ा हँसकर बात किया कर। तू तो लोटे की तरह मुँह बनाकर खड़ी हो जाती है। कौन तेरे हाथों टोकरी खरीदेगा !!”

छल्लो ने सचमुच कई बार कोशिश की थी कि उसका मुँह लोटे की तरह न बने और वह मोटरों के शीशे के पास खड़ी हो कितने ही दिन मुस्कराती रही, एक बार नहीं, पूरे तीन बार उसे किसी न किसी मोटरवाले ने कहा था, “ऐसे क्‍यों दाँत निकाल रही है। आजकल कौन खरीदता है इन टोकरियों को! कोई जाट गँवार लेते होंगे।” और अब कई दिनों से छललो लाख यत्न करती, परन्तु उसका मुँह लोटे की तरह ही बना रहता।

“वह खसमखाना, क्‍या नाम है उसका? वह जो अखबार बेचता है? रत्ना... रत्ना। उसे देखकर तो इसके होंठ अपने-आप ही फड़क उठते हैं। उस समय इसे कैसे हँसने का ढंग आ जाता है ?”

“करतारो! यों ही मुर्गे की तरह मिट्टी न उड़ा ।” हुकमचन्द ने धमकाकर कहा।

“मैं कोई बुरी बात कह रही हूँ? रानी को शौक तो चढ़ा है इश्क करने का, पर अपने आशिक का घर-बाहर तो देख लेती। टके-टके के अखबार बेचता है वह। कल को कहाँ से खिलायेगा इसे ?”

करतारों की बात अभी समाप्त नहीं हुई थी कि छल्लो ने सिर पर चुन्नी ली और टोकरियों का ढेर सिर पर उठा मोटरों के अड्डे की ओर चल पड़ी।

“टकें-टके के अखबार बेचता है!! माँ की बात छल्लो के कानों में एक फुँसी की तरह दर्द करने लगी। पर जब वह मोटरों के अडूडे पर पहुँची, तो उसे आती-जाती और खड़ी मोटर का ध्यान न रहा। वह अपनी टोकरियों के ग्राहक ढूँढने के स्थान पर उसकी सूरत ढूँढ़ने लगी जो टके-टके के अखबार बेचता था।

“आज तू देर से आई है छल्लो ?” रत्ना पीछे की ओर से आकर छल्लो के सामने खड़ा हो गया।

“मैं...” छल्लो तबक गई, फिर रत्ना के मुँह की ओर देखकर उसे महसूस हुआ कि अब मुँह लोटे की तरह नहीं रहा। “मैं एक टोकरी बुन रही थी। यह देख, आज मैंने इसमें हरे फूल डाले है। कितनी सुन्दर है यह टोकरी!”

“छल्लो!”

“टोकरी तू हमेशा ही सुन्दर बनाती है, पर हर ऐरे-गैरे के पास जाकर तेरा टोकरी दिखाना मुझे अच्छा नहीं लगता।”

“तू भी हर ऐरे-गैरे के पास जाकर अखबार दिखाता है।” और छल्लो हँस पड़ी ।

“मेरी बात और है छल्लो। मैं मर्द हूँ। मेश अखबार कोई खरीदे या न खरीदे, पर मेरे मुँह की ओर कोई नहीं देखता।”

“और मेरे मुँह की ओर कौन देखता है ? मेरा तो लोटे जैसा मुँह है।” छल्लो खिलखिलाकर हँस पड़ी।

“इस तरह किसी पराए के सामने मत हँसना । टोकरियों के स्थान पर वह ...।

“हश !” और फिर छल्लो का हँसता हुआ चेहरा गम्भीर हो गया। “क्या करूँ रले, लोगों के सामने तो मेरा मुँह लोटे की तरह बन जाता है और माँ कहती है कि तू सबके साथ हँसा कर।”

रत्ना ने छल्लो के हाथ से सब टोकरियाँ छीन लीं “मैं तुझे नहीं बेचने दूँगा ये टोकरियाँ ।” एक बन्द दुकान की ओर इशारा करके वह बोला, “तू वहाँ चुपचाप बैठ जा। मैं आज सभी अखबार बेच लूँगा।

“और फिर उन पैसों से तू मेरी टोकरियाँ खरीद लेगा। आगे भी तू कई बार. इस तरह कर चुका है, रत्ना! कब तक इस तरह करेगा? क्या तुझे घर में टोकरियों अर का अचार डालना है ?”

“हाँ, हाँ, मुझे टोकरियों का अचार डालना है। नहीं तो किसी दिन तेरी माँ ज तेरा अचार डाल देगी। यह एक लारी आई है, तू यहीं ठहर, मैं अभी आता हूँ अखबार. बेचकर ।” रल्ना शीघ्रता से टोकरियाँ छल्‍लो को पकड़ाकर उस लारी की ओर चला गया।

छल्लो के मन में आया कि वह भी उसके पीछे-पीछे उस लारी की ओर जाए। शायद वहाँ कोई टोकरी का ग्राहक भी हो। पर छल्लो से रत्ना के हुकम जैसी बात टाली न गई। वह टोकरियों को एक ओर रखकर उस दूकान के तख्ते पर बैठ गई।

“ताराचन्द नाम के आदमी ने छुरी से अपनी औरत की नाक काट दी। बाईस वर्ष की सुन्दरी की नाक काट दी। पूरी खबर पढ़िए... ।” दूर रत्ना की आवाज़ आ रही थी।

लोग जल्दी-जल्दी रत्ना से अखबार खरीद रहे थे। छल्लो की हँसी फूट रही थी। “गरम-गरम खबरें...साइन्स की एक नई ईज़ाद... !” कई बार रत्ना कहा करता था और वह तिब्बत के दलाईलामा की और रूस के राकेटों की बातें ऊँची-ऊँची

आवाज़ में सुनाया करता था, परन्तु आज छल्लो की हँसी फूट रही थी, “भला यह भी कोई सुनने लायक बात है? किसी बेवकूफ ने अपनी सुन्दर पत्नी की नाक काट दी...”

ड्राइवर ने लारी का हार्न दिया। सभी सवारियाँ पुनः लारी में बैठ गईं। रत्ना शीघ्रता से छल्‍लो के पास वापस आ गया और बोला,“आज बहुत-से अखबार पहली और दूसरी लारी में ही बिक गए।”

“तू तो प्रार्थाा करता होगा कि रोज़ कोई मर्द अपनी औरत की नाक काट दिया करे!” छल्लो हँस पड़ी।

“औरत की नाक कटे या अपनी अकल, अखबार तो इसी तरह की खबरों से बिकता है। देख नहीं रही थी, लोग कैसे मेरे हाथों-से अखबार छीन रहे थे ।”

“क्यों रत्ना, लोगों को यह बात इतनी मज़ेदार क्‍यों लगी? औरत की जाने कोई गलती थी भी कि नहीं। अगर हो भी, तो भी इसमें क्‍या मर्दानगी है कि औरत का दिल न जीता गया तो उसकी नाक ही काट दी। ऐसा लगता है, जैसे यह खबर सुनकर इन लोगों के मन में भी मर्दानगी जाग उठी हो।”

रत्ना हँसने लगा। दोनों शायद इसी प्रकार अभी बातों में ही लगे रहते, परन्तु इसी समय एक लारी और आ गई, साथ ही एक-दो मोटरें भी आ गई।

“मैं भी तनिक चक्कर लगा आरऊँ,” रत्ना ने कहा।

में भी ज़रा मोटर देख आर्ऊँ शायद कोई

“नहीं, छल्लो, तू नहीं... ।”

“पागल हो गया है रत्ना! ऐसे हाथ पर हाथ धरकर बैठी रहूँगी, तो... ।”

“मैंने तो तुम्हें कहा है। आज मैं तुम्हारी छः टोकरियाँ खरीद लूँगा, मेरी छमक छल्लो ।” और रला ने प्यार से मुँह चिढ़ाया।

“नहीं, रत्ना नहीं, रोज़-रोज़ ऐसे नहीं। और आज तो बापू ने कहा था कि पूरी बीस टोकरियाँ बेचना ।” यह कहती हुई छलल्‍लो मोटर की ओर चली गई और रत्ना लारी की ओर दौड़ गया।

“पूरा आध सेर माँस, प्याज, लहसुन, अदरक... ।” छल्लो सोच रही थी कि कितना अच्छा हो, आज यदि वह अपने बापू के लिए यह सब कुछ खरीदकर ले जा सके!

“किसी को टोकरी खरीदनी भी हो, तो वह इसकी सूरत देखकर नहीं खरीदता। तनिक किसी से हँसकर बात करे, तो कोई एक की जगह दो खरीद ले। यह तो लोटे जैसा मुँह बनाए रहती है...!” माँ करतारों के सभी बोल छल्लो के कानों में तिनकों की तरह चुभ रहे थे।

छल्लो ने मोटरवाले बाबू की ओर देखा और सोचा, यदि सामने मोटर में रत्ना

बैठा हो, तो वह उसे देखकर कितनी खुश हो! साथ ही छल्लो ने महसूस किया कि अब उसका मुँह लोटे की तरह नहीं था।

“बाबू, बहुत सुन्दर टोकरी है।”

“कौन-सी टोकरी?” बाबू गाड़ी में बैठे-बैठे ही बोला, और फिर कहने लगा, “मुझे तो सिर्फ सोडा चाहिए, टोकरी-वोकरी नहीं । जाओ, सामने की दुकान से एक गिलास में सोडा ओर बरफ डलवा लाओ ”

“सोडा और बरफ,” छल्लो ने सामनेवाले दुकानदार को बाबू का सन्देश दे दिया। वह फिर मोटर के पास वापस आ गई। “बहुत सुन्दर टोकरी है, बाबू!” छल्लो ने खिड़की के खुले शीशे में से अपनी सबसे सुन्दर टोकरी बाबू के आगे करते हुए कहा।

बाबू ने टोकरी की ओर नहीं देखा। वह छल्लो को देखते हुए कहने लगा, “टोकरी है तो बड़ी सुन्दर !”

“खरीद लो न, बाबू। सिर्फ छः आने... ।” साथ ही छल्लो ने बड़ा यत्न किया कि उसका मुँह लोटे जैसा न बन जाए।

सामने की दुकान का लड़का सोडा-बरफ ले आया। बाबू ने अपनी गाड़ी में पड़ी हुई एक टोकरी खोली और व्हिस्की की बोतल निकालकर उसमें सोडा मिलाया। फिर वह घूँट पीता हुआ छल्लो से कहने लगा,

“सिर्फ छः आने,”

“हाँ बाबू, सिर्फ छः आने, और दो ले लो, तो दस आने।”

“अगर चार ले लूँ तो ?”

“चार!” छल्लो अपनी उँगलियों पर पैसे गिनने लगी। साथ ही उसे खयाल आया “माँ करतारो सच ही कहती है कि यदि मैं हँसकर किसी से टोकरी खरीदने के लिए कहूँ तो... ।”

बाबू अपना गिलास खत्म कर चुका था। खाली गिलास और सोडे के पैसे सामनेवाले दुकानदार के नौकर को देकर उसने गाड़ी स्टार्ट कर ली।

“बाबू, टोकरी?” छल्लो की आशा बुझने लगी।

“टोकरी तो मैं ले लूँ, लेकिन मेरे पास टूटे हुए पैसे नहीं।”

“में सामने किसी दुकान से नोट तुड़वा लाती हूँ ।” छल्लो ने बड़ी जल्दी से कहा |

“इन छोटी-छोटी दुकानों पर नोट नहीं टूटेगा। मेरे पास कोई छोटा नोट नहीं, सभी सौ-सौ के नोट हैं।” छल्लो ने निराश होकर अपनी बाँह पीछे कर ली।

“हाँ, एक बात हो सकती है,” बाबू ने कुछ सोचकर कहा।

छल्लो की आशा जाग पड़ी।

“बाहर की बड़ी सड़क पर पेट्रोल का एक पम्प है। मैं वहाँ से पेट्रोल भी ले लूँगा और नोट भी तुड़वा लूँगा।”

“लेकिन पता नहीं, वह कितनी दूर है। मैं... ॥”

“तुम वहाँ तक गाड़ी में बैठ चलो। बहुत सुन्दर टोकरियाँ है। मैं बहुत-सी खरीद लूँगा।” और साथ ही बाबू ने कार का दरवाज़ा खोल दिया।

छल्लो के पाँव कुछ रुके। परन्तु उसके पिता की इच्छा उसके पाँवों को आगे ढकेलती रही...। “अरी छल्लो, मेरी छमक छल्लो! ले बेटा, आज तू मेरी बात रख लेना। पूरी बीस टोकरियाँ... ।” और छल्लो शीघ्रता से कार में बैठ गई।

कार चली, तेज़ हुई, और तेज़ हो गई। फिर पक्की सड़क पर जाती हुई कार कच्ची सड़क की ओर हो ली।

“बाबू, कहाँ है पैट्रोल पम्प?” छल्लो ने घबराकर पूछा। फिर उसकी साँस बाबू की बाँहों में घुट गई। छल्लो के सिर में कुछ चक्कर _आए और फिर उसकी बाँहें बाबू की बाँहों से हार गईं।

जब छल्लो को होश आया, तो वह एक वृक्ष के नीचे अस्त-व्यस्त सिकुड़ी पड़ी थी। वहाँ कार नहीं थी। कोई बाबू नहीं था। छल्लो ने अपने कपड़ों की ओर देखा। सामने पड़ी हुई टोकरियों की ओर देखा। सब कुछ मिट्टी में लथपथ हो रहा था।

टोकरियाँ छल्लो से उठाई न गई। मुश्किल से उसकी टाँगों ने उसका ही भार उठाया और वह कच्ची सड़क पर मन-मन के कदम धरती पक्की सड़क तक पहुँच पाई। एक राह चलती लारी खड़ी हो गई। कंडक्टर ने पूछा, “करनाल ?

छल्लो ने एक बार लारी को देखा, फिर सर हिलाया, “हाँ ।”

और जब छल्लो से किसी ने पैसे माँगे, तो वह चौंक पड़ी। उसके पास तो लारी का भाड़ा नहीं था। एकाएक उसे याद आया, कल जेब में तीन-चार आने थे। उसने जेब टटोली। जेब में पैसे तो नहीं थे, परन्तु एक दस रुपए का नोट था।

छल्लो के मन में आया कि अच्छा हो, यदि वह लारी से कूद जाए, गिरकर मर जाए और नोट के भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ।

कंडक्टर न छल्लो को सोच में पड़ी देख खुद ही उसके हाथ से नोट ले लिया और बोला, “भाड़ा तो कुल पाँच ही आने है, लेकिन मैं तुम्हारा नोट तोड़ देता हूँ।” और फिर उसने जितने पैसे छल्‍लो को वापस दिए, उसने चुपचाप जेब में डाल लिए।

“गिन लो अच्छी तरह,” कंडक्टर ने कहा। छलल्‍लो शायद उस समय खिड़की में अपना सिर रखकर सो गई थी।

लारी करनाल के अड्डे पर खड़ी हो गई। कुछ सवारियाँ उतरीं, छल्लो भी

उतरी और फिर अनमनी-सी घर की गली की ओर चल पड़ी। गली के कोने में माँस की दुकान थी। छल्लो के पाँव रुक गए।

“आधा सेर माँस” छल्लो ने धीरे से कहा और जेब से पैसे निकाले।

छल्लो ने घर जाकर जब रसोई में माँस रखा और साथ ही प्याज, लहसुन, अदरक और हरी मिर्च भी रखी, तो उसकी माँ करतारो पुलकित हो उठी, “आज तूने कितनी टोकरियाँ बेच लीं ?”

“सभी,” छल्लो ने धीरे से कहा और फिर वह नहाने के लिए बाल्टी भरने लगी।

“वह रत्ना आया था, तेरी तलाश करता... ।”

“अच्छा ।” छल्लो ने आगे कुछ नहीं पूछा। माँ ने भी और कुछ न कहा। छल्लो डुयोढ़ी का दरवाज़ा बन्द करके नहाने लगी।

छललो जिस समय नहा-धोकर, कपड़े बदलकर रसोई में आई, करतारो हॉडी में मास भून रही थी।

“देख लो, आज घर बसता हुआ दिखाई दे रहा है न! जिस घर में छौंक की सुगन्ध नहीं आती, धरम की बात है, वह घर घर ही नहीं!” छल्लो का बापू बोला और फिर छललो की ओर देखकर उसने बड़े लाड़ से कहा, “मेरी छमक छल्लो”

छल्लो ने जलते चूल्हे की ओर देखा। चूल्हे का सारा बदन आग की तरह जल रहा था। ऊपर हॉडी रखी थी। छल्लो को महसूस हुआ, जैसे उस हॉडी में उसकी मुस्कराहट भूनी जा रही है।

“उठ, मेरी बेटी, नई टोकरी बनानी शुरू कर दे। मैंने पत्ते पानी में भिगो रखे हैं ।” जिस प्रकार करतारो ने छल्‍लो को आज बेटी कहा था, इस प्रकार पहले कभी नहीं कहा था।

हुकम की बाँधी छल्लो मूढ़े पर बैठ गई। उसने हाथ में पत्ते पकड़ लिए और सुआ भी । परन्तु उसे महसूस हुआ कि आज से खेतों में वे पत्ते उगेंगे, जिससे टोकरियाँ बनाई जाती हैं...आज से रत्ना के बेचने के लिए अखबार नहीं छपेंगे...और यह खबर भी कहीं नहीं छपेगी कि “एक बाबू ने एक लड़की की हत्या कर दी।”