पाँच बहनें

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

एक विशाल देश की बात है।

एक दिन ठंडे बिल्लौरी जल ने “ज़िन्दगी” के सुन्दर अंगों को मल-मल कर धोया। फूलों ने जी भरकर सुगन्ध लगाई, और सातों रंग ज़िन्दगी के लिए एक पोशाक ले आए। सूर्य ने अपनी किरणों से फूलों में रस भरा, और ज़िन्दगी ने अपनी आँखों में एक पूर्णता-सी भरकर पवन से कहा-

“सुना है इस शताब्दी की पाँच पुत्रियाँ हैं, जवान और सुन्दर ?”

हाँ!

“आज मैं उनके घर जाऊँगी,” ज़िन्दगी ने कहा।

पवन हँस दिया।

“मेरे पास पाँच सौगातें हैं-एक-जैसी मूल्यवान मैं उन सबको एक-एक सौगात दूँगी। तुम चलोगे मेरे साथ ?”

“जैसी तुम्हारी इच्छा।”

“सबसे पहले पाँचों बहनों में से में बड़ी बहन के पास जाऊँगी।”

“अच्छी बात है। परन्तु उसके घर में खिड़कियाँ और दरवाज़े नहीं हैं। बस, एक ही दरवाज़ा है। उसका पति जब बाहर जाता है, तो जाते हुए वह बाहर से दरवाज़े में लोहे का ताला लगा जाता है। और फिर जब घर आता है, तो वही ताला बाहर से खोलकर घर के भीतर लगा देता है।”

“तुम मुझे अपने अन्दर भर लो, एक सुगन्ध की तरह। मैं तुम्हारे साथ उसके घर चली जाऊँगी ।”

“न, न, सुगन्धियों के साथ मैं भारी हो जाता हूँ। तब मैं किसी दराज़ में से भी भीतर नहीं जा सकता। जितने समय में मैं दीवारों को लाँघकर उसके घर जाता हूँ, उतने समय में तो मेरा अंग-अंग टूटने लगता है ?”

पवन ज़िन्दगी को पाँच बहनों में से बड़ी बहन के घर ले गया।

“इस बड़ी दीवार पर तो बहुत-सी तस्वीरें बनी हुई हैं-सैकड़ों तस्वीरें, हज़ारों तस्वीरें,” ज़िन्दगी ने हैरान होकर देखा।

“यह दीवार सदियों से बनी हई है। जब भी इस घर की कोई स्त्री इन सीमाओं को लाँघे बिना इस घर में मर जाती है, तो इस देश के लोग उसकी तस्वीर इस दीवार पर बना देते हैं।”

“इस घर की कोई भी स्त्री इन सीमाओं से बाहर नहीं आती ?”

“नहीं, कभी नहीं ।'

“इन दीवारों का नाम कया है?” ज़िन्दगी ने पूछा।

“परम्पराएँ-कोई कुल की परम्परा है, कोई धर्म की परम्परा है, तो कोई समाज की परम्परा...”

“मैं इस घर की स्त्री को एक बार देखना चाहती हूँ।”

“सूर्य की किरणों ने भी कभी इस घर की औरतों को नहीं देखा, तुम भला कैसे देखोगी!”

“यह बीसवीं सदी है, पवन! तुम कौन-सी बात कर रहे हो ?”

“यहाँ सदियाँ घर के बाहर से ही निकल जाती हैं। भले ही दस सदियाँ इधर से उधर हो जाएँ, इस घर में रहनेवालों को कोई अन्तर नहीं पड़ता ।”

“मैं उसके लिए भेंट लाई हूँ।”

“तुम्हारी भेंट उस तक पहुँच भी जाए तो भी वह उसे हाथ न लगाएगी।”

क्यों ?

क्योंकि, दुनिया की सब चीज़ें उसके लिए वर्जित हैं।”

“वह मेरी आवाज़ नहीं सुनेगी ?”

“नहीं, उसके कानों के लिए इस दीवार के बाहर से आनेवाली सब आवाज़ें निषिद्ध हैं”

“तुम भी क्‍या बातें करते हो पवन, आखिर वह जवान है?”

“तुम वर्षों का हिसाब लगा रही हो। पर इस घर की औरत कभी जवान नहीं होती । जब वह बालिका होती है, तभी उस पर बुढ़ापा आ जाता है।”

ज़िन्दगी के पाँव में एक कम्पन-सा हुआ, और वह हारी-सी, सहमी-सी आगे की ओर चल पड़ी।

“यह इस शताब्दी की दूसरी पुत्री है।” पवन ने कहा।

“कौन-सी ?”

“वह सामने रेल की पटरी पर कोयले चुन रही है।”

तीस वर्ष की एक स्त्री ने बाएँ हाथ से, बगल के पास फटी हुई कमीज़ को दुपट्टे के पल्‍लू से ढाँप लिया। दाएँ हाथ से टोकरी में मुट्ठी भर कोयले डाले। कोई दसेक गज़ की दूरी पर पड़ी हुई अपनी लड़की को देखा। लड़की के रोने की: आवाज़ अब तीखी हो गई थी। स्त्री ने टोकरी को एक ओर रख दिया और लड़की को अपनी

गोद में ले लिया। लड़की ने माँ की छाती पर कई बार मुँह मारा, पर उसे दूध का धोखा न लग सका और वह फिर चिल्लाकर रो पड़ी । ज़िन्दगी ने समीप जाकर आवाज़ दी, “बहन !”

स्त्री ने शायद सुना नहीं ज़िन्दगी और भी समीप आ गई और बोली, “बहन!” स्त्री ने अनजानी दृष्टि से एक बार देखा और फिर ध्यान दूसरी ओर कर लिया, जैसे सोच रही हो कि किसी और को आवाज़ दी है।

ज़िन्दगी के अधर जैसे तड़प उठे, “मेरी बहन!” स्त्री ने तब उसकी ओर देखा और लापरवाही से पूछा, “तुम कौन हो ?”

“मुझे ज़िन्दगी कहते हैं।”

स्त्री ने फिर अपना ध्यान अपनी रोती हुई लड़की की ओर कर लिया, जैसे राह चलते की बात से उसे क्‍या मतलब ?

“मैं तुम्हारे देश आई हूँ, तुम्हारे शहर, तुम्हारे घर ।” देश, शहर और घरवाली बात जैसे उस स्त्री की समझ में न आई।

“आज मैं तुम्हारे घर रहूँगी।

स्त्री ने क्रोध से ज़िन्दगी के मुख की ओर देखा, जैसे ज़िन्दगी को यह न चाहिए था कि इस तरह व्यंग्य करे।

“लड़की को दूध क्‍यों नहीं दे रही हो, बेचारी रो रही है ?”

स्त्री ने एक बार अपने सूखे हुए शरीर पर निगाह दौड़ाई, दूसरी बार लड़की के रोते हुए मुख पर। फिर भी वह समझ न सकी कि इस सवाल का मतलब क्‍या था ?

“यदि उसके पास दूध होता तो बच्ची को देती न।”

“तुम्हारा घर कितनी दूर है?”

“उस गन्दे नाले के पार।”

“मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।”

“पर वहाँ घर नहीं, फूस का छप्पर है।”

“वही सही |”

“पर वहाँ चारपाई कोई नहीं, बस दो बोरियाँ हैं।”

“तुम्हारा पति”

“वह बीमार है।

“वह काम करता है?”

“कारखाने में मज़दूर था, पर पिछले वर्ष जब छटनी हुई थी, तब उसे निकाल दिया गया था

फिर ?

“एक वर्ष हो गया उसे बुखार आते।”

“तुम्हारी यह एक पुत्री ही है ?”

“एक मेरा पुत्र भी है पर...”

“बह कहाँ है ?”

“एक दिन वह भूखा था, बहुत भूखा। उसने एक अमीर आदमी की मोटर में से सेब चुरा लिया था। पुलिस वालों ने उसे जेल में डाल दिया ।”

“मैं तुम्हारे घर चलूँ ?”

“पर तुम हो कौन ?”

“मुझे ज़िन्दगी कहते हैं।'

“मैंने तो कभी तुम्हारा नाम नहीं सुना।”

“कभी, कभी छोटी उम्र में, छुटपन में तुमने कहानियाँ सुनी होंगी ।”

“मेरी माँ को बड़ी कहानियाँ याद थीं। मेरा पिता किसान था। पर वह उन किसानों में से था जिनके पास अपनी कोई ज़मीन नहीं होती। मेरी बड़ी बहन के विवाह पर हमने कर्ज़ लिया था, जो हमसे वापस न किया जा सका। साहूकार ने हमारा सब माल, हमारे पशु आदि, सब-कुछ छीन लिया था...और मेरा पिता कहीं दूर किसी रोज़ी की तलाश में चला गया था। मेरी माँ को रात-भर नींद न आती थी। वह रात को मुझे जगाकर कहानियाँ सुनाया करती थी-शभूतों की, प्रेतों की, देवों की कहानियाँ। पर मैंने तुम्हारा नाम तो कभी नहीं सुना ”

“फिर तुम्हारा पिता क्या कमाकर लाया था ?”

“मेरी माँ कहा करती थी कि जब वह आएगा, बहुत-सा सोना लाएगा। पर वह कभी आया ही नहीं लौटकर।” और स्त्री ने ज़रा घबराकर कहा, “ (तुम क्‍या करोगी मेरे घर जाकर ?”

“मैं...” ज़िन्दगी और कुछ न कह सकी। स्त्री कोयले की टोकरी थामे उठ खड़ी हुई।

“मैं तुम्हारे लिए सौगात लाई हूँ, ज़िन्दगी ने रंग और सुगन्ध-भरी एक पिटारी स्‍त्री के सामने रख दी।

“न बहन, यह तुम अपने पास ही रखो स्त्री ने जैसे भयभीत हो आँखें दूर हटा लीं।

“मैं तुम्हारे लिए ही लाई हूँ।'

“न बहन, कल पुलिस वाले कहेंगे, तूने किसी की चोरी कर ली है।” स्त्री शीघ्रता से अपने घर की ओर मुड़ी। पर थोड़ी दूर जाकर जब उसने देखा कि ज़िन्दगी अब भी उसके पीछे-पीछे आ रही है, तो वह डर कर थम गई।

“तुम लौट जाओ बहन! मेरे साथ मत आओ मुझे बेगानों से बहुत डर लगता

है। पहले भी एक बार...एक बार एक जवान-सा शहरी आया थां। कहने लगा, में तम्होरे पति को काम दिला दूँगा, तुम्हारे बेटे को जेल से छड़ा दँगा...पड़ोसियों से आटा माँगकर मैंने उसके लिए रोटी पकाई...पर जब मैं अपने पुत्र को देखने के लिए उसके साथ शहर गई...तो रास्ते में...रास्ते में वह

स्त्री का अंग-अंग जल उठा और वह बेतहाशा वहाँ से भाग गई।

ज़िन्दगी की आँखों में छलक रहे आँसुओं को पवन ने अपनी हथेली से पोंछ दिया, “चलो मैं तुम्हें तीसरी बहन के घर ले चलता हूँ।'

ज़िन्दगी जब महल-सरीखे एक घर के सामने से गुजरी, तो पवन ने धीमे-से उसके कान में कहा, “यही है उसका घर”

द्वार पर खड़े दरबान ने ज़िन्दगी की राह रोक ली। दासी के हाथ भीतर सन्देशा भेजा गया। ज़िन्दगी बाहर प्रतीक्षा में खड़ी रही, खड़ी रही...और जब उसे भीतर से इशारा हुआ, तो वह उस दासी के पीछे-पीछे काँच के कई द्वारों को लॉघती, रेशम के कई परदे हटाती खास कमरे में पहुँची।

सफेद मर्मरी पत्थर की एक औरत की मूर्ति कमरे के एक कोने में खड़ी थी। पानी की फुहार उसके बदन को ढॉप रही थी। सफेद मर्मरी पत्थर-सी एक औरत की मूर्ति एक कोमल-सी कुरसी पर पड़ी थी। रेशम के तार उसके बदन को ढॉपने का यल-सा कर रहे थे। औरत की खड़ी मूर्ति में से तो कोई आवाज़ न आई, पर औरत की बैठी हुई मूर्ति में से आवाज आई-

“तुम कौन हो ? मैं पहचान नहीं पाई ।” ज़िन्दगी ने भौंचक-सी चारों ओर देखा। पर वहाँ कोई स्त्री न थी। तब उसने खड़ी हुई मूर्ति को हाथ लगाया। वह पत्थर-सी सख्त थी। तब ज़िन्दगी ने बैठी हुई मूर्ति को स्पर्श किया। वह रबड़-सी मुलायम थी।

“मुझे ज़िन्दगी कहते हैं,” ज़िन्दगी ने धीरे से कहा।

“याद नहीं आ रहा, यह नाम कहीं सुना हुआ प्रतीत होता है, शायद छुटपन में किसी पुस्तक में पढ़ा था।”

“पुस्तक में ? ”

“हाँ । मुझे याद आ गया, मेरे साथ एक लड़का पढ़ता था। वह गीत लिखता था, एक बार उसने मुझे अपने गीतों की एक किताब दी थी। उसमें यह नाम आया था ।”

“वह अब कहाँ रहता है ?”

“गरीब-सा लड़का था। पता नहीं कहाँ रहता है ?”

“उसकी किताब ?”

“इस नई कोठी में आते समय पुराना सामान मैं साथ नहीं लाई थी। यह सारा सामान हमने नया खरीदा है।

“बहुत महँगा खरीदा है।”

'गैरा पति देश का बहुत बड़ा व्यक्ति है। अब के चुनाव में भी, मुझे आशा है, वह फिर बड़ा व्यक्ति चना जाएगा। हम जब भी चाहें, ऐसा या इससे भी अच्छा सामान खरीद सकते हैं।'

रबड़-जैसी मुलायम स्त्री की मूर्ति ने मेज पर रखे हुए फल ज़िन्दगी की ओर बढ़ाए। फलों को छूते ही ज़िन्दगी को उनमें से एक गन्ध-सी अनुभव हुई।

“मैंने अभी मज़दूरों से ताजे फल तुड़वाएं हैं। दासी ने शायद धोए नहीं । मज़दूरों के हाथों की गन्ध आती होगी, आज गरमी है। मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं, आज... ।”

“यदि तुम्हें अच्छा लगे तो मैं तुम्हें बाहर ठंडी और खुली हवा में ले चलती हूँ ।' ज़िन्दगी ने एक साँस भरकर कहा।

“नहीं, नहीं। मैं इस तरह बाहर नहीं जा सकती। अपनी श्रेणी से बाहर के लोगों में उठने-बैठने से हमारा आदर नहीं रहता...असल में जब मेरा ऑपरेशन हुआ था, कुछ कसर रह गई थी। कभी-कभी मुझे दर्द होता है

“ज़िन्दगी ने उठकर उस रबड़ जैसी मुलायम स्त्री की भुजा पकड़ी । फिर उसके बदन पर हाथ रखा। तुम्हारा दिल क्यों नहीं धड़कता! पत्थर की तरह खामोश और ठंडा है...”

“यही तो कसर रह गई है। मेरा पति कहता है, अब हम किसी बाहर के देश जाएँगे...शायद अमेरिका; वहाँ के डॉक्टर बड़े कुशल हैं। मेरा ऑपरेशन शायद फिर होगा...”

“किस बात का ऑपरेशन है ?”

“जब कोई लड़की बड़े घर में ब्याह कर आती है, विवाह की पहली रात को देश के कुशल डॉक्टर उसका ऑपरेशन करते हैं। यह बड़े घरों की रीति है

“विवाह की रात को ऑपरेशन !”

“हाँ, उस लड़की के बदन को चीरकर उसका दिल बाहर निकाल लेते हैं। उसकी जगह स्वर्ण की एक शिला रख देते हैं, बड़ी सुन्दर शिला! बड़ी मूल्यवान्‌ होती है। मेरे ऑपरेशन में थोड़ी-सी कसर रह गई थी। कभी-कभी कसक-सी उठती है। इन चुनावों में मेरा पति यदि जीत गया, तो हम आगामी मास में हवाई जहाज द्वारा बाहर जाएँगे। फिर ऑपरेशन होगा, और मैं ठीक हो जाऊँगी।”

“मैं तुम्हारे लिए एक सौगात लाई हूँ।”

“नहीं, नहीं । मेरे पति ने कहा है कि आजकल किसी से कोई चीज़ नहीं लेनी है। चुनाव निकट आ गए हैं...और देश की बड़ी-बड़ी मिलों में हमारी पत्ती है। हमें ये छोटी-छोटी चीज़ें लेने की क्या आवश्यकता है ?”

टेलीफोन की घन्टी बजी और रबड़-जैसी मुलायम स्त्री ने टेलीफोन में दो-तीन मिनट बात करके पास बैठी हुई ज़िन्दगी से कहा-

“बहन, तुम्हें यदि मुझसे कोई काम है तो कभी फिर आ जाना। इस समय मेरा पति और उसकी पार्टी के कुछ लोग घर आ रहे हैं..."

पवन ने ज़िन्दगी का हाथ थाम लिया और उसे सहारा देकर चौथीं बहन के घर ले आया। बड़ा साधारण-सा घर था। पर घर के द्वार के सामने एक चमकती हुई गाड़ी का मुँह आँखों को चौंधिया रहा था। सन्ध्या होने वाली थी। ज़िन्दगी ने घर की सीमा लाँघकर भीतर की ओर झाँककर देखा। बाईस-तेईस वर्ष की जवान स्त्री एक बालक को थपकी देकर सुला रही थी। कमरे का सारा सामान मुश्किल से गुज़ारे लायक था, तो भी युवती के वस्त्र झिलमिल-झिलमिल कर रहे थे।

ज़िन्दगी ने धीरे से द्वारा खखखटाया।

“कौन ?”...धीरे से युवती दहलीज़ के पास आई, “बच्चा जग जाएगा ” तब युवती ने चौंककर कहा, “तुम...तुम...””उसके बोल लड़खड़ा गए।

“मुझे ज़िन्दगी कहते हैं।

“मुझे मालूम है।”

“तुझे मालूम है ?”

“मैं सारी उम्र तुम्हारी परछाईं के पीछे भागती रही हूँ...अब मैं थक चुकी हूँ। अब मैंने तुम्हारा रास्ता छोड़ दिया है। तुम चली जाओ। जहाँ से आई हो वहीं लौट जाओ। देख नहीं रही हो, मेरे द्वार पर शाप की एक रेखा खिंची हुई है। इस रेखा को तुम नहीं लॉघ सकतीं। इस रेखा को मिटा नहीं सकतीं। तुम चली जाओ। चली जाओ...” युवती की साँस फूल गई।

“मेरी अच्छी बहन!”

“बहन! मैं किसी की बहन नहीं। मैं किसी की बेटी नहीं। मैं किसी की कुछ नहीं ।”

“यह तुम्हारा बच्चा...” ज़िन्दगी ने कमरे में सोए पड़े बच्चे को देखा।

“मेरा बच्चा! मेरा बच्चा!! पर इसका बाप कोई नहीं।”

“मैं समझी नहीं।”

“जब मेरे देश में आज़ादी की नींव रखी गई थी, उसकी नींव में मेरी हड्डियाँ चुनी गई थीं। जब मेरे देश में स्वतन्त्रता का पौधा लगाया गया था, मेरे रक्त से उस पौधे को सींचा गया था। जिस रात मेरे देश में ख़ुशी का चिराग जलाया गया, उसी रात मेरी इज़्जत और आबरू के पल्‍लू को आग लगी थी। यह बच्चा उसी रात की निशानी है, उसी आग की राख है, उसी जख्म का दाग है

“मेरी दुखी बहन!”

“फिर मेरी सब रातें उस रात जैसी हो गईं...मैं तुम्हारे सपने देखा करती थी। मैं सोचती थी, तुम मेरे कुँआरे सपनों को मेंहदी लगाकर रंग दोगी; मेरी माँ के सहन में देश के गीत गाए जाएँगे; और मैं अपने कानों से शहनाई की आवाज़ सुनूगी... ।”

मैरे गौंव का एक ज़वान लड़का मेरे सपनों का राजा था। मैं तुम्हारी परछाईं से खेलती फिरती थी। जब मेरा गाँव लूटा, मेरा पिता बुरी तरह मारा गया। मेरे भाई मारे गए और मझे एक सौंप ने काट लिया। फिर एक और साँप ने। एक और साँप ने...। मनुष्य-जैसे मूँहवाले ये कैसे साँप हैं, जिनका काटा कोई मरता तो नहीं, पर उम्र-भर उनके विष से जलता रहता है...। फिर मैंने तुम्हारी एक और परछाई देखी। मेरे देश के लोग कहने लगे, इन साँपों से मुझे बचा लिया जाएगा। इनका ज़हर मेरे शरीर में से दूर कर दिया जाएगा। मैं फिर पहले जैसी भोली और स्वच्छ लड़की बन जाऊँगी। मैं भागी, तुम्हारी परछाईं के पीछे भागी...पर यह सब झूठ था, सब झूठ। मेरे सपनों के राजा ने मुझे स्वीकार न किया। मुझे अपने घर की सीमाओं से वापस लौटा दिया....मैं फिर उसी विष में जलने लगी। उन्हीं साँपों जैसे और साँप मेरे इर्द-गिर्द लिपट गए ।...बाहर वह गाड़ी देख रही हो! कितनी चमक रही है...वह एक बहुत बड़े साँप की मोटर गाड़ी है...आज रात मुझे यह काटेगा... ।”

ज़िन्दगी बोल न सकी। उसके हाथों में जो सौगात थी वह उसके आँसुओं से भीग गई।

“यह तुम कया लाई हो सौगात मेरे लिए? देख नहीं रही हो, मेरा सारा शरीर विष से बुझा हुआ है। मैं जब तुम्हारी सौगात को हाथ लगाऊँगी, यह भी विषैली हो जाएगी। ये सुगंधियाँ... ! यह रंग...मेरे रोम-रोम में विष रचा हुआ है, विष...विष...”

पवन ने बेसुध ज़िन्दगी के मुख पर अपने वस्त्र से हवा की । और जब ज़िन्दगी को कुछ सुध आई, पवन उसे पाँचों में से सबसे छोटी बहन के घर ले गया... ।

बीस वर्ष की एक मानवी युवती के आस-पास बहुत-सी पुस्तकें, साज़ और रंग बिखरे पड़े थे।

ज़िन्दगी ने सुख की एक साँस भरी। सामने बैठी हुई उस युवती ने अपनी उंगली से साज़ के तार को छेड़ा और एक मीठा-सा गीत वातावरण में बिखर गया। युवती गाती रही...उसकी आँखों में सितारों जैसे आँसू चमक रहे थे। और फिर उसने रंगों की बारीक रेखाओं से एक कागज़ पर बड़ी रंगीन तस्वीर बनाई।

ज़िन्दगी का दिल चाहा कि उस युवती के कलाकार हाथों को चूम ले। स्वर, शब्द और चित्रों का एक जादू वातावरण में घुल रहा था।

ज़िन्दगी ने एक गहरी साँस भरी। और हाथ में रंग और सुगन्ध की पिटारी लिये आगे बढ़ी। युवती की आँखों में एक अचम्भा-सा भर गया।

“मुझे मालूम है,” युवती बोली। पर उसके स्वागत के लिए उठकर आगे न बढ़ी । अचानक ज़िन्दगी के पाँव अटक गए। लोहे के बारीक तार कमरे के दरवाज़े के सामने ऊँचे उठ रहे थे।

“मैं इस समय तुम्हारा स्वागत नहीं कर सकती,” युवती ने सिर झुका दिया।

क्यों ?” ज़िन्दगी हैरान थी।

यदि तुम रात को आओ, जिस समय में सो जाऊँ, मेरे सपनों में; या फिर जाग रही होऊँ मेरी कल्पना में, मैं तुम्हारे साथ बहुत-सी बातें करूँगी, बहत कछ सुनाऊँगी...वैसे मैं नित तुम्हारी परछाईं पकड़ती हूँ। ...यह देखो, इन रंगों से में ने तुम्हारा आँचल बनाया है, इन तारों के स्पर्श से मैंने तुम्हारे गीत गाए हैं...इस लेखनी से मैंने तुम्हारे प्याः की कहानियाँ रची हैं।”

“आज जब मैं स्वयं तुम्हारे पास आई हूँ...तुम... ।”

“धीरे, बहुत धीरे। मेरे घर की सभी दीवारों में छेद हैं...सैकड़ों और हज़ारों आँखें मेरी रखवाली करती हैं । उधर देखो उन छेदों में...तुम्हें हर एक छेद में दो भयानक आँखें दिखाई देंगी। ये आँखें लावे से भरी हुई हैं, और एक-एक ज़बान...इनमें से सैकड़ों तीर निकलते हैं।...यदि मैं तुम्हारे पास बैठ जाऊँ, तुम्हारे पास!...इनके तीर अभी मेरी रंग-भरी प्यालियों को उलट देंगे... मेरे साज़ के तार उलझा देंगे...मेरे गीतों के एक-एक स्वर को बींध देंगे...और इन आँखों का लावा... ।”

“पर ये लोग तुम्हारे गीत सुनते हैं, तुम्हारी कहानियाँ पढ़ते, हैं, तुम्हारे चित्रों को देखते हैं।'

“यहाँ के कलाकार तुम्हारी बातें कर सकते हैं, तुम्हारा मुँह नहीं देख सकते । और जो तुम्हारा मुख देख ले, उस मंसूर को मौत की सजा दी जाती है।...अब तुम चली जाओ, ज़िन्दगी! कोई देख लेगा...मेरे सपनों के अतिरिक्त ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ मैं तुम्हें बिठा सूँ... '

“मैं तुम्हारे लिए एक सौगात लाई थी।”

“यह भी मैं उसी समय लूँगी...ज़रूर आना...मैं सातों स्वर्ग रचाऊँगी, तुम आना, तुम्हारी सौगात से अपने स्वर्ग सजाऊँगी । तुम ज़रूर आना...और फिर सुबह उठकर मैं तुम्हारे प्यार का गीत लिखूँगी, तुम्हारे रूप का चित्र बनाऊँगी, तुम्हारी सुन्दरता के गीत गारऊँगी...पर अब तुम चली जाओ, कोई देख लेगा... ।” और युवती ने ज़िन्दगी की ओर से मुँह फेर लिया।