गुलियाना का एक खत

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

टेहनी पत्तों से भर गई थी, पर उस पर फूल नहीं लगते थे।

मैं रोज़ पत्तों का मुँह देखती थी और सोचती थी कि चम्पा कब खिलेगा।

गमला कितना भी बड़ा हो, पर गमले में चम्पा नहीं फूलती-मुझे एक माली ने बताया था और कहा था कि इस पौधे की जड़ों को धरती की ज़रूरत होती है। और मैं उस पौधे को गमले में से निकालकर धरती में रोप रही थी कि एक औरत मुझसे मिलने के लिए आई।

“तुम्हें कहाँ-कहाँ से पूछती और कहाँ-कहाँ से खोजती आई हूँ।”

“तुम ? नीली आँखों वाली सुन्दरी ?”

“मेरा नाम गुलियाना है।”

“फूल-सी औरत ।”

“पर लोहे के पैरों चलकर पहुँची हूँ। मुझे दो साल होने को आए हैं, चलते हुए।

“किस देश से चली हो ?”

“यूगोस्लाविया से ।”,

“भारत में आए कितना समय हुआ ?”

“एक महीना। बहुत लोगों से मिली हूँ। कुछ औरतों से बड़ी चाह से मिलती हूँ। तुमसे मिले बगैर मुझे जाना नहीं था, इसलिए कल से तुम्हारा पता पूछ रही थी।”

मैंने गुलियाना के लिए चाय बनाई और चाय का प्याला उसे देते हुए भूरे बालों की एक लट उसके माथे से हटाई और उसकी नीली आँखों में देखा और कहा-“अच्छा, अब बताओ, गुलियाना! तुम्हारे पाँव में लोहे के ही सही, पर ये क्‍या अभी तुम्हारे हुस्न और तुम्हारी जवानी का भार उठाकर थके नहीं ? ये देश-देशान्तर में भटकते क्‍या खोज रहे हैं ?”

गुलियाना ने लम्बी साँस लेकर मुसकरा दिया। जब किसी की हैँसी में एक विश्वास घुला हुआ हो, उस समय उसकी आँखों में जो चमक उतर आती है, मैंने वह चमक गुलियाना की आँखों में देखी।

“मैंने अभी तक लिखा कुछ नहीं, पर लिखना बहुत चाहती हूँ। मगर कुछ भी लिखने से पहले मैं यह दुनिया देखना चाहती हूँ। अभी बहुत दुनिया बाकी पड़ी है जो मैंने देखी नहीं है, इसलिए मैं अभी थकने की कहीं। पहले इटली गई थीं, फिर फ्रांस, फिर ईशान और जापान... ।

“पीछे कोई तुम्हारी बाट देखता होगा ?”

“मेरी माँ मेरी बाट देख रही है।”

“उसे जब तुम्हारा खत मिलता होगा, तब कितनी चहक उठती होगी वह ।

“वह मेरे हर एक खत को मेरा आखिरी खत समझ लेती है। उसे यह यकीन नहीं आता कि फिर कभी मेरा और खत भी आएगा।”

क्यों ?

“वह सोचती है कि मैं इसी तरह चलती-चलती रास्ते में कहीं मर जाऊँगी। मैं उसे खूब लम्बे-लम्बे खत लिखती हूँ। आँखें तो वह खो बैठी है, पर मेरे खत किसी से पढ़वा लेती है। इस तरह वह मेरी आँखों से दुनिया को देखती रहती है ।”

“अच्छा, गुलियाना, तुमने जितनी भी दुनिया देखी है, वह तुम्हें कैसी लगी ? किसी जगह ने हाथ बढ़ाकर तुम्हें रोका नहीं, कि बस, और कहीं मत जाओ ?”

“चाहती थी कि कोई जगह मुझे रोक ले, मुझे थाम ले, बाँध ले। पर...”

“जिन्दगी के किसी हाथ में इतनी ताकत नहीं आई?”

“मैं शायद जिन्दगी से कुछ अधिक माँगती हूँ--जरूरत से ज़्यादा। मेरा देश जब गुलाम था, मैं आज़ादी की जंग में शामिल हो गई थी।”

“कब?”

“1941 में हमने लोकराज्य के लिए बगावत की। मैंने इस बगावत में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था, चाहे मैं तब छोटी-सी ही रही हूँगी।”

“वे दिन बड़ी मुश्किल के रहे होंगे ?”

“चार साल बड़ी मुसीबतों भरे थे। कई-कई महीने छिपकर काटने होते थे।

“कई बार दुश्मन हमारा पता पा गए। हमें एक पहाड़ी से चलकर दूसरी पहाड़ी पर पहुँचना होता था। एक रात हम साठ मील चले थे।”

“साठ मील! तुम्हारे इस नाजुक-से बदन में इतनी जान है गुलियाना ?”

“यह तो एक रात की बात है। तब हम करीब तीन सौ साथी रहे होंगे। पर सारी उमर चलने के लिए कितनी जान चाहिए, और वह भी अकेले!”

“गुलियाना”

“चलो, कोई खुशी की बात करें। मुझे कोई गीत सुनाओ ।

“तुमने कभी गीत लिखे हैं, गुलियाना ?”

“पहले लिखा करती थी। फिर इस तरह महसूस होने लगा कि मैं गीत नहीं लिख सकती। शायद अब लिख सकूँगी”

“कैसे गीत लिखोगी, गुलियाना ? प्यार के गीत ?”

“प्यार के गीत लिखना चाहती थी, पर अब शायद नहीं लिखूँगी। हालाँकि एक तरह से वे प्यार के गीत ही होंगे, पर उस प्यार के नहीं जो एक फूल की तरह गमले में रोपा जाता है। मैं उस प्यार के गीत लिखूँगी, जो गमले में नहीं उगता, जो सिर्फ धरती में उग सकता है।”

गुलियाना की बात सुनकर मैं चौंक उठी। मुझे वह चम्पा का पेड़ याद हो आया जिसे अभी-अभी मैंने गमले से निकालकर धरती में लगाया था। मैं गुलियाना के चेहरे की ओर देखने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे इस धरती को गुलियाना के दिल का और गुलियाना के हुस्न का बहुत सा कर्ज़ा देना हो । गुलियाना मुझे लेनदार प्रतीत हो रही थी। पर मुझे उसकी ओर देखते लगा कि यह धरती कभी भी उसका ऋण नहीं चक्रा पाई थी।

“गुलियाना !”

“मैं इसलिए कहती थी कि मैं शायद ज़िन्दगी से कुछ अधिक चाहती हूँ-ज़रूरत से ज़्यादा।”

“यह ज़रूरत से ज्यादा नहीं गुलियाना। सिर्फ उतना, जितना तुम्हारे दिल के बराबर आ सके।”

“पर दिल के बराबर कुछ नहीं आता। हमारे देश का एक लोकगीत है-

“तेरी डोली को कहारों ने उठाया,

खाट को कौन कन्धा दे,

मेरी खाट को कौन कन्धा देगा ?”

“गुलियाना, तुमने क्या किसी को प्यार किया था?”

“कुछ किया ज़रूर था, पर वह प्यार नहीं था। अगर प्यार होता, तो जिन्दगी से लम्बा होता। साथ ही मेरे महबूब को भी मेरी उतनी ही ज़रूरत होती जितनी मुझे उसकी ज़रूरत थी। मैंने विवाह भी किया था, पर यह विवाह उस गमले की तरह था जिसमें मेरे मन का फूल कभी न उगा।”

“पर यह धरती...”

“तुम्हें इस धरती से डर लगता है ?”

“धरती तो बड़ी ज़रखेज़ है, गुलियाना। मैं धरती से नहीं डरती, पर

“मुझे मालूम है, तुम्हें जिस चीज़ से डर लगता है। मुझे भी यह डर लगता है।

पर इसी डर से रूष्ट होकर तो मैं दुनिया में निकल पड़ी हूँ। आखिर एक फूल को इस धरती में उगने का हक क्‍यों नहीं दिया जाता!”

“जिस फूल का नाम 'औरत' हो ?” जल “मैंने उन लोगों से हठ ठाना हुआ है जो किसी फूल को इस धरती में उगने है देते, खासकर उस फूल को जिसका नाम औरत हो। यह सभ्यता का युग नहीं। सभ्यता का युग तब आएगा जब औरत की मरजी के बिना कोई औरत के जिस्म को हाथ नहीं लगाएगा।”

“सबसे अधिक मुश्किल तुम्हें कब पेश आई थी ?”

“ईरान में। मैं ऐतिहासिक इमारतों को दूर-दूर तक जाकर देखना चाहती थीं, पर मेरे होटलवालों ने मुझे कहीं भी अकेले जाने से मना कर दिया । मैं वहाँ दिन में भी अकेले नहीं घूम सकती थी।”

“फिर?”

“बीच-बीच में कुछ अच्छे लोग भी होते हैं। उसी होटल में एक आदमी ठहरा हुआ था जिसके पास अपनी गाड़ी थी। उसने मुझसे कहा कि जब तक वह होटल में है, मैं उसकी गाड़ी ले जाया करूँ। वह मेरे साथ कभी नहीं गया, पर उसने अपनी गाड़ी मुझे दे दी। ड्राइवर भी दे दिया। मुझे वह सहारा ओढ़ना पड़ा। पर ऐसा कोई भी सहारा हमें क्‍यों ओढ़ना पड़े?”

“जापान में भी मुश्किल आई ?”

“वहाँ मुझे सबसे बड़ी मुश्किल पड़ी। सिर्फ एक रात एक शराबी ने मेरे कमरें का दरवाज़ा खटखटाया था। मैंने उसी समय कमरे में से टेलीफोन करके होटल वालों को बुला लिया था। एक बार फ्रांस में जाने क्या हो जाता, अगर कहीं ज़ोरों की बरसात न शुरू हो गई होती। मैं एक बगीचे में बैठी हुई थी। सामने कुछ दूरी पर एक पहाड़ था। मैं वहाँ जाना चाहती थी।

दो आदमी काफी देर से मेरा पीछा कर रहे थे। मैं जानती थी कि अगर मैं पहाड़ की किसी निर्जन जगह पर चली गई, तो ये आदमी वहाँ जाकर जाने क्या करें। पर मेरे दिल में गुस्सा खौल रहा था कि मैं इन गुण्डों से डरकर पहाड़ पर क्‍यों न जाऊँ। इसलिए मैं बगीचे में से उठकर उस तरफ चल पड़ी।

कुछ दूर गई कि ज़ोरों से बरसात होने लगी। मुझे अपने होटल में लौटना पड़ा । पर यह सब गलत है। मैं यही सोचती हुई चलती जाती हूँ कि आखिर यह सब अभी तक इतना गलत क्यों बना हुआ है जब मनुष्य अपने को इतना सभ्य और इतना उन्नत मानने लगा है!”

“तुम अपने गुज़ारे के लिए क्‍या करती हो, गुल ?”

“छोटे-छोटे सफरनामे लिखती हूँ। छपने के लिए अपने देश में भेज देती हूँ। कुछ पैसे मिल जाते हैं। कुछ अनुवाद करके भी कमा लेती हूँ। मुझे फ्रेंच अच्छी आती है। मैं फ्रेंच की पुस्तकों का अपनी भाषा में अनुवाद करती हूँ। वापस जाकर मैं एक बड़ा सफरनामा लिखूँगी। शायद गीत भी लिखूँ। आजकल जब मैं सोती हूँ, तो

एक गीत मेरे दिल में मंडराने लगता है। पर जब मैं जागती हूँ, तो मैं उसे खोज नहीं पाती ”।

अच्छा, गुलियाना, और बातें छोड़ो, मुझे उस गीत की बात सुनाओ। मैंने गीत नहीं कहा, गीत की बात कही है।”

“बात ही तो मुझे अभी तक मालूम नहीं है। मैं वह बात खोज रही हूँ जिसमें से गीत उगते हैं। बिना बात के ही दो पंक्तियाँ जोड़ी हैं। इससे आगे नहीं जुड़तीं । बात के बिना भला गीत कैसे जुड़ेगा?” गुलियाना ने कहा और एक टूटे हुए गीत की तरह मेरी ओर देखा। फिर गुलियाना ने गीत की दो पंक्तियाँ सुनाई-

“आज किसने आसमान का जादू तोड़ा ?

आज किसने तारो का गुच्छा उतारा ?

और चाबियों के गुच्छे की तरह बाँधा,

मेरी कमरे से चाबियों को बाँधा ?”

और गुलियाना ने अपनी कमर की ओर संकेत कर मुझसे कहा- “यहाँ चाबियों के गुच्छे की तरह मुझे कई बार तारे बँघे हुए महसूस होते हैं।

मैं गुलियाना के चेहरे की ओर देखने लगी। तिजोरियों की चाबियों को चाँदी के छल्लों में पिरोकर बना गुच्छा उसने अपनी कमर में बाँधने से इन्कार कर दिया था। और उसकी जगह वह तारों के गुच्छे अपनी कमर में बाँधना चाहती थी। गुलियाना के चेहरे की ओर देखती हुई मैं सोचने लगी कि इस धरती पर वे घर कब बनेंगे जिनके दरवाज़े तारों की चाबियों से खुलते हों।

“तुम क्‍या सोच रही हो।”

“सोचती थी कि तुम्हारे देश में भी औरतें अपनी कमर में चाबियों का गुच्छा बाँधती है ?”

“हमारी माँ-दादियाँ अपनी कमर में चाबियाँ बाँधा करती थीं”

“चाबियों से घर का ख्याल आता है और घर से औरत के आदिम सपने का।

“देखो, इस सपने को खोजती-खोजती मैं कहाँ पहुँच गई हूँ। अब मैं अपने गीतों को यह सपना अमानत दे जाऊँगी।”

“धरती के सिर तुम्हारा कर्ज़ और बढ़ जाएगा।”

कर्ज़ की बात सुनकर गुलियाना हँसने लगी। उसकी हँसी उस लेनदार की तरह थी जिसके कागज़ों पर लिखी हुई कर्ज़ की सारी गवाहियाँ झूठी निकल आई हों।

गुलियाना के चेहरे की ओर देखते मुझे ऐसा लगा कि थाने के किसी सिपाही को अगर गुलियाना का हुलिया अपने कांगज़ों में दर्ज करना पड़े, तो वह इस तरह लिखेगा :

नाम : गुलियाना सायेनोबिया।

बाप का नाम : निकोलियन सायेनोबियां।

जन्म शहर : मैसेडोनिया।

कद : पाँच फुट तीन इंच।

बालों का रंग : भूरा।

आँखों का रंग : सलेटी।

पहचान का निशान : उसके निचले होंठ पर एक तिल है और बाईं ओर की भौंह पर छोटे-से ज़ख्म का निशान है।

और गुलियाना की बातें सुनते हुए मुझे इस तरह लगा कि किसी दिलवाले इन्सान को अगर अपनी ज़िन्दगी के कागज़ों में गुलियाना का हुलिया दर्ज करना हो, तो इस तरह लिखेगा :

नाम : फूल की महक-सी एक औरत।

बाप का नाम : इन्सान का एक सपना।

जन्म शहर : धरती की बड़ी ज़रखेज़ मिट्टी ।

कद : उसका माथा तारों से छूता है।

बालों का रंग : धरती के रंग जैसा।

आँखों का रंग : आसमान के रंग जैसा।

पहचान का निशान : उसके होंठों पर ज़िन्दगी की प्यास है और उसके रोम-रोम पर सपनों का बौर पड़ा हुआ है।

हैरानों की बात यह थी कि ज़िन्दगी ने गुलियाना को जन्म दिया था, पर जन्म देकर उसकी खबर पूछना भूल गई थी। पर मैं हैरान नहीं थी, क्योंकि मुझे मालूम था कि ज़िन्दगी को बिसार देने वाली बड़ी पुरानी आदत है। मैंने हँसकर गुलियाना से कहा-“हमारे देश में एक बूटी होती है जिसे हम ब्राह्मी बूटी कहते हैं। हमारी पुरानी किताबों में लिखा हुआ है कि ब्राह्मी बूटी पीसकर जो कुछ दिन पी ले, उसकी स्मरणशक्ति लौट आती है। मेरा ख्याल है कि ज़िन्दगी को ब्राह्मी बूटी पीसकर पीनी चाहिए ।”

गुलियाना हँस पड़ी और कहने लगी-“तुम जब कोई प्यारा गीत लिखती हो, या कोई भी, जब कोई बड़ा प्यारा लिखता है, तो वह जंगल में से ब्राह्मी बूटी की पत्तियाँ ही तोड़ रहा होता है। शायद कभी वह दिन आएगा जब ज़िन्दगी को हंम अपनी बूटी पिला देंगे उसे भूल जाने की यह आदत नहीं रहेगी।”

गुलियाना उस दिन चली गई, पर ब्राह्मी बूटी की बात पीछे छोड़ गई। मैं जब भी कहीं कोई प्यारा गीत पढ़ती, मुझे उसकी बात याद आ जाती कि हम सब मन

के जंगल में से ब्राह्मी बूटी की पत्तियाँ बीन रहे हैं। हम किसी दिन ज़िन्दगी को शायद इतनी बूटी पिला देंगे कि उसे हम याद आ जाएँगे।

पाँच महीने होने को हैं। मुझे गुलियाना का एक भी खत नहीं मिला। और अब महीने पर महीने बीतते जाएँगे, गुलियाना का खत कभी नहीं आएगा। क्‍योंकि आज के अखबार में यह खबर छपी हुई है कि दो देशों की सीमा पर कुछ फीौजियों ने एक परदेसी औरत को खेतों में घेर लिया। औरत को बड़ी चिन्ताजनक हालत में अस्पताल पहुँचाया गया।

अस्पताल में पहुँचते ही उसकी मौत हो गई। उसका पासपोर्ट और उसके कागज़ आग से जली हुई हालत में मिले। औरत का कद पाँच फुट तीन इंच है। उसके बालों का रंग भूरा और आँखों का रंग सलेटी है। उसके निचले होंठ पर एक तिल है और उसकी बाईं भौंह पर एक छोटे-से ज़ख्म का निशान है।

यह अखबार की खबर नहीं! सोच रही हूँ, यह गुलियाना का एक खत है।

ज़िन्दगी के घर से जाते हुए उसने ज़िन्दगी को एक खत लिखा है और उसने खत में ज़िन्दगी से, सबसे पहला सवाल पूछा है कि आखिर इस धरती में उस फूल को आने का अधिकार क्‍यों नहीं दिया जाता जिसका नाम औरत हो ?

और साथ ही उसने पूछा है कि सभ्यता का वह युग कब आएगा जब औरत की मरजी के बिना कोई मर्द किसी औरत के जिस्म को हाथ नहीं लगा सकेगा ?

और तीसरा सवाल उसने यह पूछा है कि जिस घर का दरवाज़ा खोलने के लिए उसने अपनी कमर में तारों के गुच्छे को चाबियों के गुच्छे की तरह बाँधा था, उस घर का दरवाज़ा कहाँ है ?