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अमृता प्रीतम की कहानियाँ

घोड़ हिनहिनाई। गुलेरी दौड़कर अन्दर से बाहर आई।

उसने घोड़ी की आवाज़ पहचान ली थी।

वह घोड़ी उसके मायके की थी।

उसने घोड़ी की गर्दन के साथ अपना सिर टेक दिया।

जैसे वह घोड़ी की गर्दन न होकर उसके मायके का द्वार हो।

गुलेरी का मायका चम्बे शहर में था।

ससुराल का गाँव लक्कड़मंडी एवं खजियार के रास्ते में एक ऊँची समतल जगह पर था।

खजियार से लगभग एक मील आगे चलकर पहाड़ी का एक ऐसा मोड़ आता था, जहाँ पर खड़े होकर चम्बा शहर बहुत दूर और बहुत नीचा दिखाई देता था।

कभी-कभी गुलेरी जब उदास हो जाती तो अपने मानक को साथ लेकर उस मोड़ पर आकर खड़ी हो जाती।

चम्बे शहर के मकान उसको एक जगमगाते बिन्दु के समान दिखाई देते, फिर वे बिन्दु उसके मन में एक चमक पैदा कर देते।

मायके वह वर्ष-भर में एक बार आश्विन के महीने में जाती थी।

हर साल इन दिनों उसके मायके में चुगान का मेला लगता था।

माता-पिता उसको लिवाने के लिए आदमी भेज देते थे।

सिर्फ गुलेरी की ही नहीं गुलेरी की सभी सहेलियों के मायके अपनी लड़कियों को बुलावा भेज देते थे।

सभी सहेलियाँ जब एक-दूसरे के गले मिलतीं तो वर्ष-भर की सभी ऋतुओं के दुःख-सुख की बातें एक-दूसरी से कह-सुन लेतीं और अपने मायके की गलियों में हिरनियों के समान चौकड़ी भरती स्वच्छन्द घूमती ।

दो-दो, तीन-तीन बच्चों की माताएँ बड़े बच्चों को उनके दादा - दादी के पास छोड़ आतीं और गोद वाले को मायके पहुँचते ही ननिहाल वालों के हवाले कर देतीं।

मेले के लिए नए कपड़े सिलवातीं।

चुनरियों को रंगवातीं और अबरक लगवातीं।

मेले में से काँच की चूड़ियाँ और चाँदी की बालियाँ खरीदतीं। मेले में से खरीदी हुई सुगन्धित साबुन की टिक्कियों को अपने बदन पर ऐसे मलतीं जैसे वह अपने खोए हुए कुँवारे यौवन की गन्ध को फिर से सूँघना चाहती हों।

गुलेरी कितने ही दिनों से आज के दिन का इन्तज़ार कर रही थी।

का आतमान जब सावन-भादों की बरसात के साथ हाथ-पाँव धोकर निखर बैठता था, गुलेरी और गुलेरी जैसी ससुराल में बैठी लड़कियाँ पशुओं को दाना-पानी डालती सास-ससुर के लिए दाल-चावल राँधतीं और हर रोज़ हाथ-पाँव धोकर बन-सँवर बैठतीं तो मन में सोचने लगतीं आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों कोई न कोई उनके मायके से उनको लेने के लिए आता होगा।

आज गुलेरी के घर के दरवाज़े के सामने उसके मायके की घोड़ी हिनहिनाई तो गुलेरी चंचल हो उठी। घोड़ी लेकर आए नत्थू कामे को गुलेरी ने बैठने के लिए चौकी दी।

गुलेरी को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। उसके मुँह का रंग स्वयं सब कुछ बता रहा था। मानक ने तम्बाकू का एक लम्बा कश खींचा और आँखें बन्द कर लीं, जाने उससे तम्बाकू का नशा न झेला गया या गुलेरी के मुँह का रंग।

“इस बार तो मेला देखने आएगा न, चाहे दिन का दिन ही सही।” गुलेरी ने मानक के पास बैठकर बड़े दुलार से कहा।

मानक के हाथ काँपे, उसने हाथों में पकड़ी हुई चिलम को एक ओर रख दिया।

“बोलता क्‍यों नहीं ?” गुलेरी ने रोष के साथ कहा।

“गुलेरी, एक बात कहूँ ?”

“मैं जानती हूँ तूने क्या कहना है। क्या यह बात तुझे कहनी चाहिए? साल-भर में एक बार तो मैं मायके जाती हूँ। फिर तू मुझे ऐसे क्‍यों रोकता है ?”

“आगे तो मैंने तुझे कभी भी कुछ नहीं कहा ?”

“फिर इस बार क्‍यों कहता है ?”

“इस बार...बस इस बार...” मानक के मुँह से एक लम्बी आह निकल गई।

“तेरी माँ तो मुझे कुछ कहती नहीं, फिर तू क्यों रोकता है?” गुलेरी की आवाज़ में बच्चों जैसी जिद थी।

“मेरी माँ...” मानक ने अपना मुँह बंद कर लिया। जैसे आगे की बात को उसने दाँतों तले दबा लिया हो |”

दूसरे दिन गुलेरी मुँह अँधेरे बन-सँवरकर तैयार हो गई। गुलेरी का न कोई बड़ा बच्चा था, न गोद का। न किसी को ससुराल में छोड़ना था न किसी को मायके ले जाना था। नत्थू ने घोड़ी पर काठी कसी और गुलेरी के सास-ससुर ने उसके सिर पर प्यार दिया।

“चल, दो कोस मैं भी तेरे साथ चलूँगा।” मानक ने कहा। गुलेरी ने खुश होकर मानक की बाँसुरी अपने आँचल में रख ली।

वे खजियार पार कर गए। आगे एक कोस और लाँघ गए। फिर चम्बे की

उतराई आरम्भ हो गई। गुलेरी ने आँचल में से बाँसुरी निकाली और मानक के हाथ में थमा दी।

सामने कठिन उतराई थी। पाँव जैसे फिसल रहे थे। गुलेरी ने मानक का हाथ पकड़ा और रुककर कहने लगी :

“बजाता क्‍यों नहीं बाँसुरी ?”

सोच भी जैसे उतराई उतर रही थी। मानक का मन फिसलता जा रहा था। पे गुलेरी ने जब मानक का हाथ पकड़ा तो मानक ने चौंककर उसकी ओर देखा। । “बजाता क्‍यों नहीं बाँसुरी ?” गुलेरी ने फिर कहा।

मानक ने बाँसुरी होंठों के साथ लगाई, फूँक मारी पर बाँसुरी में से ऐसा स्वर निकला जैसे बाँसुरी की ज़बान पर छाले पड़ गए हों।

“गुलेरी तू मत जा, मैं तुझे फिर कहता हूँ मत जा। इस बार मत जा।”

मानक ने हाथ की बाँसुरी गुलेरी को वापस कर दी। का “कोई बात भी तो हो? अच्छा तू मेले के दिन चला आइयो। मैं तेरे साथ लौट आऊँगी। पीछे नहीं रहूँगी, सच्च कहती हूँ, पक्की बात ।”

मानक ने कुछ न कहा पर उसने गुलेरी के मुँह की ओर ऐसे देखा जैसे वह कहना चाहता हो “गुलेरी यह बात पक्की नहीं। यह बहुत कच्ची है / पर मानक ने कुछ न कहा...जैसे उसको कुछ कहना न आता हो।

गुलेरी और मानक सड़क से थोड़ा-सा हटकर एक पत्थर के साथ अपनी पीठ टेककर खड़े हो गए। नत्थू ने दस कदम आगे बढ़कर घोड़ी खड़ी कर दी थी पर मानक का मन कहीं भी खड़ा नहीं हो रहा था।

मानक का मन घूमता-फिसलता आज से सात वर्ष पीछे तक चला गया। यही कि दिन थे जब मानक अपने मित्रों के साथ इस सड़क को लॉँघता हुआ चौगान का । मेला देखने चम्बे गया था। मेले में काँच की चूड़ियों से लेकर गायों-बकरियों तक कुछ न कुछ खरीद और बेच रहे थे। इसी मेले में मानक ने गुलेरी को देखा था और मानक को गुलेरी ने। फिर दोनों ने एक-दूसरे का दिल खरीद लिया था।

वे दोनों अवसर देखकर एक-दूसरे को मिले थे। “तू तो दुधिया बुट्टे जैसी गा है।! मानक ने यह कहकर गुलेरी का हाथ पकड़ लिया था।

'पर कच्चे बुटूटे को पशु मुँह मारते हैं।' यह कहकर गुलेरी ने हाथ छुड़ा लिया था और मुसकराते हुए कहा था :

इन्सान तो बुटूटे को भून कर खाते हैं। यदि साहस है तो मेरे पिता से मेरा रिश्ता माँग ले।'

मानक के दूर-पास के सम्बन्धियों में जब भी किसी का ब्याह होता था तो लड़के वाले मूल्य चुकाते थे।

मानक डर रहा था कि पता नहीं गुलेरी का पिता कितना रुपया माँग ले पर गुलेरी का बाप खाता-पीता आदमी था।

और फिर वह दूर शहर में भी रह आया था ।

वह अपने मन में यह निश्चय किए हुए था कि वर वालों से बेटी के पैसे नहीं लूँगा।

जहाँ पर अच्छा घर और वर मिलेगा वहीं पर अपनी लड़की का ब्याह कर दूंगा ।

मानक के इस काम में कोई कठिनाई नहीं हुईं। दोनों के दिल मिले हुए थे। दोनों ने ब्याह का रास्ता दूँढ लिया था।

आज तू क्‍या सोच रहा है? तू मुझे अपने मन की बात क्यों नहीं बताता?” जुलेरी ने मानक के कन्धे को हिलाते हुए कहा।

मानक ने गुलेरी की ओर ऐसे देखा जैसे उसकी ज़बान पर छाले पड़ गए हों।

घोड़ी हिनहिनाई। गुलेरी को आगे का रास्ता स्मरण हो आया। वह चलने के लिए तैयार हुई और मानक से कहने लगीः “आगे चलकर नीले फूलों का वन आता है।

कोई दो मील होगा। तू जानता बन को पार करने वालों के कान बहरे हो जाते हैं।” हाँ,” मानक ने धीरे से कहा।

“मुझे ऐसा लग रहा है जैसे हम उस बन में से गुज़र रहे हैं। तुझे मेरी कोई बात सुनाई ही नहीं देती है।”

“'तू सच कहती है गुलेरी। मुझे तुम्हारी कोई बात सुनाई नहीं देती और तुझे मेरी कोई बात सुनाई नहीं देती /” मानक ने एक लम्बी साँस ली।

दोनों ने एक-दूसरे के मुँह की ओर देखा। पर दोनों एक-दूसरे की बात नहीं समझ सके।

“मैं अब जाऊँ ? तू वापस चला जा। तू बड़ी दूर आ गया है।”

गुलेरी ने धीरे से कहा।

“तू इतना रास्ता पैदल चलती आई, घोड़ी पर नहीं बैठी। अब घोड़ी पर बैठ जाना।” मानक ने उसी प्रकार धीरे से कहा।

“यह ले पकड़ अपनी बाँसुरी।”

“तू अपने साथ ही ले जा।”

“मेले के दिन आकर बजाएगा?” गुलेरी हँस दी। उसकी आँखों में धूप चमक रही थी । मानक मुँह दूसरी ओर कर लिया। शायद उसकी आँखों में बादल उमर आये थे। गुलेरी ने मायके का रास्ता लिया और मानक लौट आया।

माँ...” घर पहुँचकर मानक इस तरह खाट पर गिर पड़ा जैसे वह बड़ी मुश्किल से खाट तक पहुँच पाया हो। “बड़ी देर लगाई। मैं तो सोचती थी शायद तू उसको आखिर तक छोड़ने चला गया है।” माँ ने कहा।

“नहीं माँ, आखिर तक नहीं गया। रास्ते के बीच ही छोड़ आया हूँ” मानक का गला रुँध गया।

“औरतों की तरह रोता क्‍यों है ? मर्द बन।” माँ ने रोष से कहा।

मानक के मन में आया कि वह माँ से कहे : “पर तू तों औरत है, एक बार औरतों की तरह रोती क्‍यों नहीं ?”

मानक को गुलेरी की एक बात स्मरण हो आई।

'हम नीले फूलों वाले वन में से गुज़र रहे हैं जहाँ पर सभी के कान बहरे हो जाते हैं। मानक को ऐसे महसूस हुआ कि आज किसी को उसकी बात सुनाई नहीं देती। सारा सँसार जैसे नीले फूलों का वन है और सभी के कान बहरे हो गए हैं।

सात वर्ष हो गए थे। गुलेरी की अभी तक कोख नहीं हरियाई थी। माँ कहती थी, “अब मैं आठवाँ वर्ष नहीं लगने दूँगी।” माँ ने पाँच सौ रुपया देकर भीतर ही भीतर मानक के दूसरे ब्याह की बात पक्की कर ली थी। वह उस समय की इन्तज़ार में थी कि जब गुलेरी मायके जाएगी, वह नई बहू का डोला घर ले आएगी।

इसके बाद मानक को ऐसे महसूस हुआ जैसे उसके दिल का माँस सो गया था। गुलेरी का प्यार उसके दिल में चुटकी भर रहा था। पर उसके दिल को कुछ महसूस नहीं हो रहा था। नई बहू की कोख से उत्पन्न होने वाले बच्चे की हँसी उसके दिल को गुदगुदा रही थी, पर उसके दिल को कुछ नहीं हो रहा था। जाने उसके दिल का माँस सो गया था।

सातवें दिन मानक के घर उसकी नई बहू बैठी हुई थी।

मानक के सभी अंग जाग रहे थे, एक उसके दिल का माँस सोया हुआ था। दिल के सोए हुए माँस को उसके जाग रहे अंग सभी स्थानों पर ले गए थे। नई ससुराल में भी और नई बहू के बिछौने पर भी।

मानक मुँह अँधेरे अपने खेत में बैठा हुआ तम्बाकू पी रहा था जब मानक का एक पुराना मित्र वहाँ से गुज़रा।

“इतने बड़े सवेरे कहाँ चला भवानी ?”

भवानी एक मिनट चौंककर ठहर गया। चाहे उसने अपने कन्धे पर एक छोटी-सी गठरी उठाई हुई थी फिर भी धीरे से कहने लगा : “कहीं नहीं ।”

“कहीं तो चला है। आ बैठ तम्बाकू पी ले।” मानक ने आवाज़ दी।

भवानी बैठ गया और मानक के हाथ से चिलम लेकर पीता हुआ कहने लगा-“चम्बे चला हूँ, आज वहाँ मेला है।”

मेले के शब्द ने मानक के दिल में जाने कैसी सुई चुभो दी, मानक को महसूस हुआ उसके भीतर कहीं पीड़ा हुई थी।

“आज मेला है?” मानक के मुँह से निकला।

“हर वर्ष आज के दिन ही होता है।” भवानी ने कहा। फिर नानक की ओर ऐसे देखा जैसे वह यह भी कह रहा हो, 'तू भूल गया है इस मेले को? सात वर्ष हुए जब तू मेले में गया था। मैं भी तो तेरे साथ था। तूने तो इसी मेले में मुहब्बत की थी।'

भवानी से कहा कुछ नहीं, पर मानक को ऐसे महसूस हुआ कि जैसे उसने सब कुछ सुन लिया था। उसको भवानी पर गुस्सा आ रहा था कि वह सब कुछ क्यों सुन रहा है।

भवानी मानक की चिलम छोड़कर उठ खड़ा हुआ। उसकी पीठ पर लटक रही गठरी में से उसकी बाँसुरी का सिरा बाहर निकला हुआ था। भवानी चलता जा रहा धा।

मानक उसकी पीठ को देखता रहा। पीठ पर रखी हुई छोटी-सी गठरी को देखता रहा। गठरी में से निकले हुए बाँसुरी के सिरे को देखता रहा।

“भवानी और भवानी की बाँसुरी मेले जा रहे हैं। मानक को अपनी बाँसुरी स्मरण हो आई जब उसने मायके जा रही गुलेरी को अपनी बाँसुरी देते हुए कहा था-'इसे तू साथ ले जा। फिर मानक को ख्याल आया, और मैं ?

मानक का मन आया कि वह भी भवानी के पीछे-पीछे दौड़ पड़े। वह अपनी उस बाँसुरी के पीछे दौड़ पड़े जो उससे पहले मेले में चली गई थी।

मानक ने हाथ से चिलम फेंक दी और भवानी के पीछे-पीछे दौड़ पड़ा। फिर मानक की टाँगें काँपने लग पड़ीं। वह वहीं का वहीं बैठ गया।

मानक को सारा दिन और सारी रात मेले जा रहे भवानी की पीठ दिखाई देती रही।

दूसरे दिन तीसरे पहर का समय था जब मानक अपने खेत में बैठा हुआ था। उसको मेले में से आते हुए भवानी का मुँह दिखाई दिया।

मानक ने मुँह एक ओर कर लिया। उसने सोचा कि मुझको ने तो भवानी का मुँह दिखाई दे और न भवानी की पीठ। इस भवानी को देखकर उसको मेले की याद आ जाती थी और यह मेला उसके सोए हुए दिल के माँस को जगा देता था। और जब वह माँस जाग पड़ता था उसमें बहुत पीड़ा होती थी।

मानक ने मुँह फेर लिया, पर भवानी चक्कर काटकर भी मानक के सामने आ बैठा। भवानी का मुँह ऐसा था, जैसे किसी ने जल रहे कोयले पर अभी-अभी पानी डाला हो। और उसके ताप का रंग अब लाल न होकर काला हो।

मानक ने डरकर भवानी के मुँह की ओर देखा।

“गुलेरी मर गई।”

“गुलेरी मर गई ?”

“उसने तुम्हारे विवाह की बात सुनी और मिट्टी का तेल अपने ऊपर डालकर जल मरी ।”

“मिट्टी का तेल ?”

इसके बाद मानक बोला नहीं। पहले भवानी डरा। फिर मानक के माँ-बाप डर गए, और फिर मानक की नई बहू डर गई कि मानक को पता नहीं क्‍या हो गया था। वह न किसी के साथ बोलता था और न किसी को पहचानता दीखता था।

कई दिन बीत गए। मानक समय पर रोटी खाता, खेती का काम भी करता और सभी के मुँह की ओर ऐसे देखता जैसे वह किसी को भी न पहचानता हो।

“मैं उसकी औरत काहे की हूँ? मैं तो सिर्फ इसके फेरों की चोर हूँ।”

नई बहू दिन-रात रोने लगी। यह फेरों की चोरी अगले महीने मानक का नई बहू की और मानक की माँ की आशा बन गई। बहू के दिन चढ़ गए थे। माँ ने मानक को अकेले में बैठाकर यह बात सुनाई। पर मानक ने माँ के मुँह की ओर ऐसे देखा जैसे यह बाते उसकी समझ में न आई हो।

मानक को चाहे कुछ समझ में नहीं आया था पर वह बात बड़ी थी। माँ ने नई बहू को हौसला दिया कि तू हिम्मत से यह बेला काट ले। जिस दिन मैं तुम्हारा बच्चा मानक की झोली में रखूँगी तो मानक की सभी सुधियाँ पलट आएँगी। फिर वह बेला भी कट गई। मानक के घर बेटा पैदा हुआ । माँ ने बालक को नहलाया-धुलाया, कोमल रेशमी कपड़े में लपेटकर मानक की झोली में डाल दिया।

मानक झोली में पड़े हुए बच्चे को देखता रहा, फिर जैसे चीख उठा, “इसको दूर करो, दूर करो, मुझे इसमें मिट्टी के तेल की बू आती है।”