में सब जानता हूँ

अमृता प्रीतम की कहानियाँ

देखो न इस बेलदार को-पँखे की तरह झूलता चला आता है-

” ठेकेदार जैलसिंह ने तारालिंह मिस्त्री की ओर मुँह घुमाकर कहा और फिर अपनी आवाज़ को आधी गीठ ऊपर उठाकर बेलदार को कहने लगा, “ठीक से पकड़ तसले को और पाँव उठा...तसले के सिर को कहीं पीड़ तो नहीं होती...” और फिर ठेकेदार जैलसिंह अपनी आवाज़ को आधी गीठ और ऊपर उठाकर एक बेलदार को नहीं, सब बेलदारों को कहने लगा, “ढाई रुपये रोज़ के लिए मुँह उठाए बैठे हैं...पाँच बजने नहीं देते...मैं सब जानता हूँ... ”

“वो कुली कहाँ मर गई। मैंने उन्हें ईंटें लाने के लिए कहा था...” तारासिंह मिस्त्री मुंडेर से नीचे झाँकते हुए बोला और देखा कि दोनों मज़दूर औरतें सिर पर तसलों में से मलबे को फेंककर अभी मलबे के पास ही खड़ी हुई थीं।

“ओ छोकरी!” तारासिंह ने धमकाया।

दोनों मज़दूर औरतें हाथों में खाली तसलों को पकड़े जब सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आई तो आते ही तारासिंह मिस्त्री के पीछे पड़ गईं, “हमें छोकरी बुलाए है?...देख जो ज़रा अपनी शक्ल को....

“क्या हो गया मेरी शक्ल को...तुझसे तो अच्छी है...नहीं तो शीशां लाकर देख ले...”

“देखा बड़ा सकल वाला...हमको छोकरी क्यों बुलाए है ?”

“छोकरी कोई गाली तो नहीं होती ।”

“इत्ती-सी लड़की को छोकरी कहते हैं...तू हमको छोकरी बुलाए है ?”

मिस्त्री ने समझा था कि मज़दूर औरतों को छोकरी शब्द का पता नहीं था, उन्होंने इसे गाली समझ लिया था, इसीलिए लड़ रही थीं, पर जब उसने सुना कि उन्हें छोकरी शब्द का पता था, और वे इसलिए नहीं लड़ रही थीं कि यह कोई गाली थी, बल्कि इसलिए चिढ़ी हुई थीं कि मिस्त्री ने उन्हें छोटी बच्चियाँ समझ रखा था, जवान औरतें क्‍यों नहीं समझा था-इसलिए मिस्त्री हँसने लगा।

“फूलमती है मेरा नाम और इसका सोनमती...” एक ने दूसरी की ओर देखा और फिर दोनों हँसने लगीं।

“फूलमती क्‍या, तुम कहो तो मैं फूला रानी बुला लिया करूँ तुम्हें...मगर ईटें तो ला दे...

“क्यों लाऊँ जी ईटें ? पहले मलबा उठाने को क्‍यों कहा था? सुबह से हम मलबा उठा रही हैं। अब तो मलबा ही उठाएँगी। ईटें मंगवानी थीं तो सुबह ही ईटों पर लगा देते...

“मेरी मर्ज़ी है मैं मलबा उठवाऊँ-मेरी मर्जी है मैं ईटें मँगवाऊँ...'

“हाय-हाय मर्ज़ी तो देख इसकी...”

“हॉ-हाँ देख मेरी मर्ज़ी, मैं अभी ठेकेदार से कहता हूँ...”

“देखो मिस्त्रीजी-शिकायतों से काम नहीं होगा-मैं बताए देती हूँ...”

“तू काम नहीं करेगी तो मैं शिकायत करूँगा...”

“काम से थोड़े ही भागती हूँ...तुम बात ही ऐसी करत हो...”

“क्या बात की है मैंने?”

“काम लेना हो तो सुबह आते ही अपने-अपने बेलदार बाँट लिया करो...आज तूने कलुया को कहा था। ईंटें लाने के लिए...अब कलुया से मँगा लो

“कलुया रोड़ी बनाने के लिए गया है।”

“रोड़ी तो सिरमिट वाला बनाएगा-रोड़ी बनाना तो उसी का काम है...”

इतनी देर में ठेकेदार सीमेन्ट की बोरियाँ निकलवाकर फिर छत पर आ गया था। आते ही तारासिंह को दबाकर बोला, “तू इनमें कहाँ उलझ बैठा...निरी काँय-कॉँय... मैं सब जानता हूँ.

“मेरे पास ईटें कम थीं-मैंने इन्हें कहा कि दो-एक फेरे लगा दो-इतने में कलुया आ जाएगा-काम चालू रहे-इसलिए मैंने कहा था...”

“देखो ठेकेदार जी! यह मिस्त्री हमको छोकरी बुलाता है..." फूलमती ने बीच में कहा।

“ये कैंचियाँ कहाँ से पकड़ लाए तारासिंह। बागड़िनियों का कोई मुकाबला नहीं। काम भी दुगना करती हैं और ज़बान नहीं हिलातीं...

ठेकेदार ने मिस्त्री से ध्यान हटाकर दोनों कुली औरतों की तरफ घूरकर देखा। और उसने अभी पिछले आठ दिनों से जो बात नहीं देखी थी, वह भी देखी कि उन दोनों में से जो फूलमती थी, उसके पेट में कोई छः महीनों का बच्चा था। वह शायद घड़ी-पल साँस लेने के लिए ही लड़ाई छेड़ बैठी थी। और ठेकेदार की आँखें और कड़वी हो गई। “मैं सब जानता हूँ...” ठेकेदार ने कहा।

“क्या जानत हो ठेकेदार जी?” फूलमती ने चमककर पूछा।

चल-चल काम कर तु...काम तमसे होता नहीं.. बातें करती हो ।” ठेकेदार ने फिर फूलमती के पेट की ओर देखा।

“क्या देखते हो ठेकेदारजी ?” फूलमती ने सिर के पल्लूं को मुँह की ओर खींचा , और हँसने लगी।

“तुम्हारा मर्द कहाँ है! कमाता कुछ नहीं मर्दुआ?” ठेकेदार ने कुछ रहम से

और कुछ क्रोध से पूछा।

“मेरा मर्द? वह तो मर गया। अब काम नहीं करूँगी तो खाऊँगी क्या ?”

“तुमसे यह काम नहीं होने का, न ईंट ढोने का, न मलबा उठाने का...?”

“जानती हूँ ठेकेदार जी। पर का करूँ...खेत में काम करती थी मैं, गोभी का अब तो मौसम न रहिवो...बस तम्बाखू का खेत है। मालिक एक रुपया देता है रोज का... फिर भी करती। पर तम्बाखू की बू बहुत चढ़े है। सिर को चक्कर आ जाए खड़ी-खड़ी को...” फूलमती की आवाज़ हलीमी में आ गई। वह झगड़ा करती-करती तसले में मलबा डालती रही थी, अब उसने कपड़ा मरोड़कर सिर पर रखा और मलबे के भरे हुए तसले को सोनमती से उठवाती तारासिंह मिस्त्री की ओर मुँह करके कहने लगी, “तुम गुस्सा न होवो मिस्त्रीजी...मैं ईंटें लाए देती हूँ-बस यह तसला उड़ेल दूँगी, ईंटें ले आऊँगी...””

“बस ऐसे काम किया कर ना-बीच में काँय-काँय क्या करती है.

मैं काँय काँय करती हूँ ?”

“और नहीं तो क्या? अब बोलेगी तो मैं तुम्हारा नाम काँय काँय-रख दूँगा...”

“घर में औरत तो होगी मिस्त्रीजी?” सीढ़ियाँ उतरते हुए फूलमती ने पूछा।

“हाँ, है ।” मिस्त्री तारासिंह ने चौखट के बैरे की कील ठोंकते हुए जवाब दिया।

“तो उसका नाम काँय-काँय रख दो न” सीढ़ियाँ उतरती हुई फूलमती ने कहा और फिर हँसने लगी।

“तुमने भाई उसे क्‍यों मुँह लगा लिया?” ठेकेदार ने पास से कहा।

“मुँह तो मैंने नहीं लगाया ठेकेदार जी...ऐसे ही मुँह का स्वाद खराब करना था ?” मिस्त्री हँसने लगा।

“मैं सब जानता हूँ। अभी तू ध्यान लगाकर काम कर। आज मैंने बड़ी शिल्फ डलवानी है ।” ठेकेदार ने अभी इतना ही कहा था कि उसे याद आया, पिछले कई महीनों से तारासिंह की औरत बीमार थी। इसलिए हमदर्दी से पूछने लगाः

क्यों भाई तारे! तुम्हारी औरत बीमार थी...अब तो ठीक है न ?”

“ठीक तो नहीं सरदार जी। सुस्त पड़ी रहती है...जाने क्या बीमारी है उसे ?”

“कहीं मायके जाने की तो बीमारी नहीं भाई! मैं जानता हूँ, इन औरतों को...” “मैंने कोई बाँधकर तो नहीं रखी हुई

'फिर एक-दो लगा देनी थी।'

“नहीं सरदार जी! मुझसे मारा नहीं जाता औरत को ।

“न भाई, मारना भी नहीं चाहिए...यूँ ही कहीं रस्सी तुड़ा ले-आदमी मगर औरत को मारे तो बाँधकर मारे...नहीं तो उसे कभी न मारे...

“बाँधकर कैसे ठेकेदार जी ?”

“तू समझा कर बात को भाई...”

“मैं तो कुछ नहीं समझा...!

ठेकेदार की हँसी उसकी घनी मूँछों में फैंस गई और वह कहने लगा, “घर में कोई बच्चा-मुन्ना हो तो भले ही औरत को पीट डालो, वह नहीं जाती कहीं। मैं सब जानता हूँ ...

“आपके तो अब बच्चा हो गया है ठेकेदार जी। कभी यह नुस्खा इस्तेमाल किया है?” मिस्त्री की हँसी उसकी पतली मूँछों से छनने लगी।

ठेकेदार ने अभी जबाव नहीं दिया था कि फूलमती मलबे वाला खाली तसला हाथ में पकड़े छत के ऊपर आ गई। नीचे ईंटों का ट्रक आया था। ठेकेदार पर्ची पर दस्तखत करने के लिए नीचे चला गया।

“ओ कॉय-काँय, तू ईटें नहीं लाई?” मिस्त्री ने फूलमती से रोष से पूछा।

“जो कॉय-कॉँय होगी वह ईंटें लाएगी। मैं तो फूलमती हूँ” फूलमती ने एक नखरे से कहा और खाली तसले में मलबा भरने लगी।

“अब मैं तेरे से बात ही नहीं करूँगा...वह आ गया कलुया...जा रे कलुया। जल्दी से ईटें ले आ, देखना सूखी ईंटें मत लाना...तराई कर लेना।”

“अब मैं तेरे से बात नहीं करूँगा...” फूलमती ने मुँह चिढ़ाया और कहने लगी, “तो कौन बात करता है तेरे से मिस्त्री जी!”

“मलबा तो आज ही उठ जाएगा-तू फिर कल क्‍या करेगी?.. .कल मत आना काम पर...”

“हाय-हाय! मत आना काम पर |” फूलमती ने मिस्त्री की नकल उतारी और

कहने लगी, “हम तो अपना-अपना मिस्त्री बॉट लेंगी... मैं दूसरे मिस्त्री को ईंटें लाकर दूँगी।”

“जा-जा, जहन्नुम में जा...”

“जहन्नुम क्या होता है मिस्त्री जी?”

“मैं कहता हूँ तू चली जा यहाँ से, नहीं तो में तुम्हें अभी जहन्नुम दूँगा... !”

“बड़े आए जहन्नुम दिखाने वाले...लो बैठी हूँ. तुम्हारे सामने...” “आता है ठेकेदार अभी, तेरे को सीधा करेगा !

“क्या करेगा ठेकेदार, मारेगा मुझे? मेहनत करके कमाती हूँ, खाती हूँ । ठेकेदार के पलले से नहीं खाती-जिसके पल्ले से खाती थीं मैंने उसको छोड़ दिया ।”

“तू तो कहती थी तेरा मर्द मर गया है ?”

“जब छोड़ दिया तो फिर क्‍या है? वह जीता भी है तो मुझे क्या ?”

“तूने अपने मर्द को क्‍यों छोड़ दिया ?”

“बहुत सराब पीता था। मेरे को मारता था...एक दिन उसने बहुत मारा”

“कुछ तेरा भी कसूर होगा ?”

“उसने मेरे सारे गहने बेच दिएं। मैंने उजर किया तो मारने लगा...”

फूलमती मलबे के भरे तसले को उठाती कुछ और भी कहने लगी थी कि ठेकेदार छत पर आ गया और कहने लगाः

“तुम्हें बिगाड़ दिया बातों ने-भाईतारे। कौला नौ इंची का लगाना था।”

“नौ इंच का ही तो लगाया है ठेकेदार जी

“अच्छा-अच्छा मैंने कहा कि भई तू बातों में...आज यह बड़ी शिल्फ जरूर डालनी है। हाथों को ज़रा तेज कर ले।”

“सरिया चार इंची पर लगाना है या तीन इंची पर ?”

“चार इंची पर भाई, चार इंची पर। लोहे को तो आग लगी हुई है। तीन इंची का भला यहाँ क्या काम है

“आप रोड़ी मँगवाएँ, मेरी दो रहें रह गई हैं, और दूसरे मिस्त्रियों को भी इधर बुला लो।”

“नीचे एक-एक इंची की रोड़ी डलवा देना-फिर सरिया बिछाकर एक-एक इंची और डाल देना-बस इससे अधिक की जरूरत नहीं ।”

“अच्छा जी।”

“हाँ भई, तुम खुद संमझदार हो। लोग काम तो कहते हैं कि अव्वल दर्जे का हो और पैसे उतारते हुए दाएँ-बाएँ करते हैं। मैं सब जानता हूँ.

“आपको करनल वाली कोठी के पैसे अभी उतरे हैं या नहीं ?”

“कहाँ भाई ?...वंहाँ तो और ही...मामला बन गया...”

“क्या हो गया वहाँ ?”

“वहाँ पड़ोस में भी एक कोठी बन रही थी न,

“हाँ

“बंस भाई उनकी आपस में लग गईं।'

“लड़ाई हो गई उनकी ?”

“लड़ाई काहे को...उनका आना-जाना हो गया।”

“फिर ?”

“करनल को मन में शक हो गया...उसने भाई कोठी अपने नाम करवा ली...”

“पहले उसकी औरत के नाम थी ?”

“ज़मीन का बियाना उसी के नाम पर दिया था भाई...”

फिर ?

“औरत को जब पता चला उसने मुकदमा कर दिया, वह जो ऐँंकल था न, उसने-शह दी थी।

“ऐंकल कौन-सा ठेकेदार जी?

“अरे तू बात समझा कर वह औरत का ऐंकल नहीं था...उसके लड़के-लड़कियाँ उसे ऐंकल बुलाते थे

“अंकल...अच्छा अंकल ”

“भई हम पढ़े हुए नहीं। पर इतना हम तभी जान गए थे कि यह जो नया

ऐंकल बना है...कोई गुल ही खिलाएगा ”

“फिर ?”

“फिर जी वह औरत कचहरी पहुँची...यह कचहरी के मामले बड़े टेढ़े होते फिर क्‍या बना ठेकेदार जी ?

“उनका तो जाने क्या बनेगा...पर मैं तो मारा गया भाई। न वह औरत मेरा बिल उतारती है और न वह करनल...

“बिल तो ठेकेदार जी अब ऐंकल को उतारना चाहिए।” “मैं सब जानता हूँ--इन ऐंकलों को...यह मर्दुए बिल उतारेंगे...करनल को चाहिए था कि औरत को पहले ही दबाकर रखता।” मिस्त्री ने हाथ का काम खत्म कर लिया था, इसलिए ठेकेदार ने मुंडेर से झॉककर बेलदारों को आवाज़ दी कि वे रोड़ी के तसले भर के ले आएँ...। “पाँच तो बज गए ठेकेदार जी। अब शिल्फ कैसे पड़ेगा?” फूलमती ने छत पर आते हुए कहा।

“तुमने घड़ी बाँधी हुई है हाथ पर? पाँच कहाँ बज गए अभी ?”

मैं तो ठेकेदार जी बिगर घड़ी के बता दूँ, तुम देख लो घड़ी में ?

“तू तो सवेरे भी मटककर आती है। तुमसे मैं छः बजे तक काम करवाऊँगा। मैं सब जानता हूँ।”

शैल्फ पड़ गया। छः बजने वाले हो गए ।। ठेकेदार ने मिस्त्रियों को और बेलदारों को ताकीद की कि वे सवेरे आठ बजे से दस मिनट पहले ही पहुँच जाएँ, दस मिनट

ऊपर न होने दें, “कल छजलियाँ डाल देनी हैं और परसों सारी दीवारों को छ्तों तक पहुँचा देना है।”

सबेरे, आठ बज गए, नौ बज गए, दस बज गए। काम चालू हो गया था पर सारे मिस्त्री और बेलदार हैरान थे कि ठेकेदार अभी तक नहीं आया था।

कल चाहे फूलमती ने कहा था कि वह तारासिंह मिस्त्री को ईटें नहीं पकड़ाएगी, पर आज जब सब बेलदारों ने अपने-अपने मिस्त्री चुने तो फूलमती ने तारासिंह को अपना मिस्त्री चुन लिया।

“आज तो मिस्त्री जी, मुझे डर लागे...” फूलमती ने सिर पर उठाई ईंटों को नीचे मिट्टी के एक ढेर पर फेंकते हुए कहा।

“काहे का डर लागे फूलमती ?”

“आज ठेकेदार को जाने कोई मुसीबत पड़ गई ”

“किसी काम को गया होगा...अभी आता होगा...”

“आज तो मेरा दिल कहता है कि कोई बुरी बात होगी ।”

काम चालू था। एक ठेकेदार नहीं आया था। पूरी चहल-पहल बुझी हुई थी। आज फूलमती भी मिस्त्री से नहीं लड़ रही थी।

खाने के समय तक सबको ठेकेदार के आने की उम्मीद थी। पर उसके बाद तारासिंह मिस्त्री के मुँह से भी रह-रहकर निकलने लगा, “आज न जाने ठेकेदार का क्या बना...वह रहनेवाला तो नहीं था।”

शाम तक छजलियाँ पड़ गईं, कल दीवारें ऊँची हो जानी थीं। छत बाँधने के समय ठेकेदार का पास होना जरूरी था। इसलिए तारासिंह मिस्त्री ने सबको कहा कि वह रात को ठेकेदार के घर जाएगा और पता करेगा कि क्‍या बात हुई।

अगले दिन सवेरे जब सब मिस्त्री और बेलदार काम पर पहुँचे तो ठेकेदार अब भी कहीं दिखाई नहीं देता था। सब तारासिंह मिस्त्री के मुँह की ओर देखने लगे।

“ठेकेदार आएगा अभी। थोड़ी देर के बाद आएगा...हम काम चालू करेंगे...वह कुछ बीमार है...” तारासिंह मिस्त्री ने सबको यह बात कही पर उसके मुँह से लगता था कि बात कुछ और थी।

फूलमती कुछ देर तारासिंह मिस्त्री को चुपचाप ईटें पकड़ाती रही, फिर धीरे से पूछने लगी, “क्या बात हो गई मिस्त्री जी ?”

“बात...बात तो कुछ नहीं।” मिस्त्री ने बात टाल दी।

दोपहर के समय जब रोटी खाने की छुट्टी हुई तो नीम के पेड़ के नीचे बैठकर रोटी खा रहे तारासिंह मिस्त्री से फूलमती फिर पूछने लगी, “हमको नहीं बताओगे मिस्त्री जी ?”

“बता तो दिया, ठेकेदार बीमार है।”

“झूठ बोलते हो मिस्त्री जी।

“मैं झूठ बोलता हूँ तो ठेकेदार के घर चली जा, उससे पूछ ले...”

“तुम्हारी मर्ज़ी, मिस्त्री जी! हमने क्या करना है, पूछकर...यह तो ऐसे हीं...किसी के दुःख से दुःख लागै...”

मिस्त्री कुछ देर फूलमती के मुँह की ओर देखता रहा । फिर बोला, “बात बड़ी खराब है, फूलमती, किसी से बताना नहीं...”

फूलमती बोली कुछ नहीं, उसने केवल इन्कार में सिर हिला दिया।

“ठेकेदार की औरत...” मिस्त्री कुछ कहते-कहते फिर रुक गया।

“भाग गई ?”

“यह तो मुझे पता नहीं कहाँ गई। घर में नहीं है। शायद ठेकेदार से रूककर अपने माँ-बाप के यहाँ चली गई होगी...”

“उसका बच्चा नहीं है ?”

“बच्चा तो है।”

“वह बच्चे को साथ ले गई ?”

“नहीं, बच्चे को छोड़कर गई है।”

“फिर माँ-बाप के यहाँ नहीं गई होगी।”

तारासिंह मिस्त्री अब तक सचमुच यह सोच रहा था कि वह शायद ठेकेदार से रूठकर अपने माँ-बाप के पास चली गई होगी। पर फूलमती की दलील उसे ठीक

लगी कि अगर वह अपने माँ-बाप के पास गई होती तो बच्चे को अपने साथ ले जाती।

“ठेकेदार ने झगड़ा किया था!.._ “झगड़ा तो हुआ ही होगा। शायद ठेकेदार ने उसे मारा होगा...” “ठेकेदार सराब पीता है ?”

“शराब तो नहीं पीता। पर वह सोचता है कि कभी-कभी औरत को मारना ज़रूर चाहिए”

“बेकसूर को मारना चाहिए ?”

“वह सोचता है कि इस तरह औरत बिगड़ती नहीं...दो दिन हुए मुझसे कह रहा था कि औरत को मारना हो तो बाँधकर मारना चाहिए...”

“रस्सी से बाँधकर ?”

“नहीं-नहीं...उसका मतलब था कि जब घर में कोई बच्चा हो जाए तो औरत

घर से बँध जाती है। फिर उसको मारपीट भी करो तो वह घर को छोड़कर भागती नहीं... ।”

“एक बात कहूँ मिस्त्री जी ?”

“कहो...”

“ठेकेदार तो कहत है कि सब बात जानता हूँ...वह खाक जानता है...”

तारासिंह मिस्त्री ने देखा, सामने ठेकेदार आ रहा था। वह आगे आकर ठेकेदार को मिला और दूर सड़क पर खड़ा होकर उससे पूछने लगा, “कुछ पता चला ?”

ठेकेदार ने जवाब देने की जगह इन्कार से सिर हिला दिया।

“मायके तो वह नहीं गई...मेरा दिल यही कहता है...वैसे आपने आदमी भेजा ही होगा, आज आकर ख़बर दे देगा।”

“आदमी लौट आया है। वह वहाँ नहीं गई ।” ठेकेदार की आवाज़ उसके गले में कई गाँठे नीचे उतरी हुई थी। “आसपास के कुएँ भी खोजवा तिए हैं

“आप क्‍या सोचते हैं कि उसने कहीं कुएँ में...”

“कहा करती थी...मैं किसी दिन कुएँ में छलाँग मारकर मर जाऊऊँगी...भई मुझे क्या मालूम था...”

“ठेकेदार जैलसिंह की ज़िन्दगी में यह शायद पहला दिन था जब उसने यह नहीं कहा था, “मैं सब जानता हूँ ।