किस्सा बेल्जियम का है और घटना 1909 की।
यह घटना परामनोवैज्ञानिक फोटोग्राफी में बहुत ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
इससे सिद्ध होता है कि आत्माएं इस प्रकार की फोटोग्राफी में सीधे दखलंदाजी करती हैं ।
कहते हैं कि इस प्रसंग में आत्मा ने निहायत ही पेशेवराना अंदाज और साफ लहलजे में बताया कि फोटोग्राफर उसका फोटो कब और कैसे खींच सकता है ।
साथ ही यह भी कि वह आत्मा वहां कब प्रकट होगी।
आत्मा के निर्देश पर यह दुर्लभ चित्र खींचा एमिल ली रो नाम के एक अमेच्योर फोटोग्राफर ने, लेकिन रो को ये निर्देश सीधे न मिलकर, उसके मित्र ली रौक्स की पत्नी के माध्यम से मिले।
रौक्स की पत्नी के अनुसार एक बार जब वह अपने पति की मौजूदगी में ' आटोमैटिक राइटिंग ' का अभ्यास कर रही थीं, तो उनके एक 'अंकल' की आत्मा ने उन्हें 'ऑटोमैटिक लिपि' में कुछ निर्देश दिए।
आत्मा द्वारा बताए गए एक्सपोजर की अवधि रो को कुछ ज्यादा ही लंबी लगी, पर उसने आत्मा के निर्देशानुसार ही काम करने का फैसला किया।
समय पर सब कुछ तैयार था। ठीक समय पर आत्मा वहां आई और फोटो-सेशन संपन्न हुआ।
जब उसका प्रिंट निकाला गया, तो तस्वीर बहुत साफ थी। श्रीमती रोक्स ने भी अपने अंकल' को पहचान लिया था।
रो द्वारा खींचे गए आत्मा के इस चित्र को लेकर जहां उसकी खूब वाहवाही हुई, वहीं इस पर खास बवाल भी मचा।
यहां तक कि उस पर फ्रॉड करने का आरोप भी लगाया गया लेकिन उस फोटोग्राफी और उसके अनुभव के बरे में रो का कहना था कि यह फोटोग्राफ सबसे सहज परिस्थितियों में लिया गया,
लेकिन हर आत्मा श्रीमती रौक्स के अंकल की तरह फोटोग्राफ खिंचवाने का निर्देश नहीं देती, पर इतना जरूर है कि इनमें से अधिकांश या तो कैमरा देखकर उसके सामने आ जाती हैं या फिर कोई जानते-बूझते उनका फोटो उतारना चाहे, तो गायब भी नहीं होती।
यानि उन्हें कैमरे से कोई परहेज नहीं ।
चार्ल्स ट्बीडेल नाम के पादरी का किस्सा ऐसी ही एक मिसाल है।
वे पश्चिमी यार्कशायर को ओट्ले कस्बे में ऐसे मकान में रहते थे, जो 'अभिशप्त' था या वहां आत्माएं रहती थीं। श्रीमती ट्बीडेल के सामने की कुर्सी पर उनका पुत्र भी खाना खा रहा था।
तभी उन्होंने देखा कि बेटे के बायीं ओर एक दाढ़ी वाला आदमी खड़ा था।
इसका जिक्र उन्होंने पति तथा परिवार के अन्य सदस्यों से किया,
लेकिन जहां श्रीमती ट्बीडेल उस आकृति को देख सकती थीं, वहीं दूसरे लोग उस बच्चे के सिवा कुछ भी देख नहीं पा रहे थे, लेकिन उनके पति को न जाने क्या सूझा, वो तुरत-फुरत अपने कमरे में गए और कैमरा उठा लाए।
उन्होंने अपनी पत्नी की बताई दिशा में कैमरे का फोकस साधा और क्लिक कर दिया।
फिल्म के प्रिंट तैयार कराए गए, तो उनमें वो दाढ़ी वाला आदमी भी था।
स्पिरिंट फोटोग्राफी की प्रारंभिक तस्वीरें अधिकांशत: शौकिया यानी अमेच्योर फोटेग्राफरों द्वारा ली गई हैं।
मसलन किसी दोस्त ने अपने दोस्त का चित्र खींचा, लेकिन जब रील डेवलप कराई और प्रिंट बनवाए, तो तस्वीर में दोस्त के अलावा कोई दूसरा भी मौजूद था।
यह तथ्य सामान्यतः मान लिया गया है कि स्पिरिट फोटोग्राफी की पहल 5 अक्टूबर 1861 को बोस्टन में हुई थी।
हुआ यह कि बिलियम ममलर नाम के एक सज्जन ने संयोगवश अपने जीवन का पहला स्पिरिट-
फोटोग्राफ खींचा ।
वैसे इस तिथि को लेकर भी कुछ विवाद है, क्योंकि बोस्टन में. अध्यात्मवाद के प्रवर्तक डॉ. एच. एफ. गार्डनर ने इससे पहले की कुछ तस्वीरें खींची थी, जिनमें निश्चय ही कोई दूसरा भी था और सेक््सबरी के एक रूढिवादी फोटोग्राफर ने तो उनके प्रिंट बनाने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि इन तस्वीरों का अध्यात्म या आत्मा से कोई लेना-देना नहीं ।
अगर कुछ ऐसा है, तो यह शैतानों का काम है।
सच तो यह है कि एक सदी से ज्यादा अरसे बाद भी कोई यह नहीं बता सका है कि फोटो उतारने के समय आत्माओं के प्रकट होने का रहस्य या कारण क्या है ?
लेकिन अधिकांश परामनोवैज्ञानिक शोधकर्ताओं का मानना है कि आत्माएं अपना फोटो खिंचवाने में खुद ही दिलचस्पी लेती हैं और इसके लिए निर्देश तक दे डालती हैं।
ऐसे में इसे 'स्पिरिट फोटोग्राफी' न कहकर “फोटोग्राफी बाय स्पिरिट्स' यानि आत्माओं द्वारा फोटोग्राफी कहा जाए, तो क्या गलत है।
इसी कड़ी का एक चित्र 1964 में 16 वर्षीय गोर्डन कैरोल द्वारा खींचा गया था।
वह अपने एक मित्र के साथ साइकिल टूर पर निकला हुआ था।
उसने नार्थ पोर्टशायर स्थित वुडफोर्ड सैंट मेरी चर्च देखने का फैसला किया, क्योंकि इस चर्च का ऐतिहासिक महत्त्व भी था।
चर्च का अच्छी तरह मुआयना करने के बाद उन्होंने पाया कि वहां कोई दूसरा नहीं है, गोर्डन ने उसके अंदर के दृश्यों के कुछ चित्र कैमरे में उतार लिए गोर्डन ने तस्वीरें बनवाई और बिना देखे ही उठाकर रख दीं।
करीब साल भर बाद क्रिसमस पर एक सस्लाइड-शो आयोजित करने के उद्देश्य से उसने जब उन तस्वीरों का पैकेट खोला, तो उनमें एक चित्र में प्रेत जैसी आकृति भी मौजूद थी।
ये परामनोविज्ञान है। इसके एक नहीं, अनेक प्रमाण फोटोग्राफ के रूप में मौजूद हैं।
मनोवैज्ञानिकों ने इसे "साइकिल फोटोग्राफी ' या 'स्पिरिट फोटोग्राफी ' का नाम दिया है और दुनिया भर में अनेक मनोवैज्ञानिक टीमें इस संबंध में शोध करने में लगी हैं।