भारतीय और अंग्रेज सैनिकों में चार दिन से मोर्चा चल रहा था।
अंग्रेजों की तोपों का जवाब तोपों से दिया जाता।
दुश्मन का एक भी सैनिक अभी किले की दीवाल तक नहीं पहुंच सका था।
रानी लक्ष्मीबाई युद्ध-रत थी। उसकी देख-रेख में तोपें छूट रही थीं।
गुप्त सूत्रों द्वारा रानी को यह पता लग गया कि उसकी सहायता के लिए तांतिया सरदार अपनी सेना सहित झांसी आ रहा था।
रास्ते में ही अंग्रेजी सेना ने उसे रोक लिया। वह अंग्रेजों द्वारा पराजित हो गया और झांसी के किले तक नहीं पहुंच सका। वह वापस लौट गया।
रानी को यह सुनकर बहुत दुःख हुआ, लेकिन उसने अपने साहस को नहीं डिगने दिया।
वह जीवट से खेलने लगी। पांचवें दिन युद्ध के मोर्चे पर रानी हाथ में तलवार लिये खड़ी थी कि सहसा अंग्रेजों की तोप का एक गोला किले के बारूद खाने में आ गया। फौरन ही उसमें आग लग गई।
रानी घबड़ाकर बारूद खाने की ओर भागी। तभी उसने सुना कि उसके नायब दीवान दूल्हाजू ने किले का फाटक खोल दिया है।
रानी सोचने लगी कि इसका मतलब वह अंग्रेजों से पहले ही मिल गया था।
और रानी का सोचना बिल्कुल सही था।दीवान दूल्हाजू छिपकर अंग्रेजों की छावनी में जाता और उनको झांसी के सैनिक रहस्य बतलाता। इसके लिए जनरल रोज ने उसे लंबी घूस दी थी।
जब रानी ने देखा कि किले का फाटक खुल गया है और अंग्रेजी सेना भीतर घुस रही है तो वह फौरन ही युद्ध के लिए तैयार हो गई।
उसने दामोदर राव को पीठ से बांधा और घोड़े पर बैठ फाटक की ओर चल दी।
अंग्रेज किले के अंदर घुस आए थे। उन्होंने लूट-पाट शुरू कर दी और महलों में आग लगा दी।
किले में ही नहीं अंग्रेजों ने नगर को भी खूब लूटा।
पता नहीं कितने स्त्री-पुरुष और बच्चे मौत के घाट उतार दिए गए। सारे नगर में त्राहि-त्राहि मच रही थी।शहर में विध्वंस तेजी के साथ हो रहा था।
रानी ने मुंह में घोड़े की लगाम दाबी। दोनों हाथों में नंगी तलवारें लीं। दामोदर राव उसकी पीठ पर पहले से ही बंधा था।
उसके साथ चुने हुए सरदार घोड़ों पर सवार थे।
वह अंग्रेजी सेना को घास फूस की तरह काटने लगे।
तोपें अब भी आग उगल रही थीं। चारों ओर आग की लपटें दिखलायी देतीं।
झांसी में कोहराम मचा था। किले के अंदर महल जल रहे थे।
बारूदखाने में विस्फोट अलग हो रहा था। नगर में भी जहां-तहां आग लगा दी गई।
अंग्रेजी सेना पहले घरों को लूटती फिर उनमें आग लगा देती। वह भारतीयों को जहां भी पाती जान से मार डालती।
सारे देश में मारकाट मची थी। कोई भी भाग बाकी नहीं बचा। लोग धन-सम्पदा और घर-द्वार छोड़कर भागने लगे। उनकी जान के लाले पड़ गए। अंग्रेज खूखार हो रहे थे।
इस तरह झांसी का सूरज उस दिन अस्त हो गया।
किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। उस पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का झंडा लहराने लगा।
रानी को काफी समय लग गया। वह किले से बाहर नहीं निकल पायी।
उसकी योजना थी किले से बाहर निकलकर दूर रहना, किंतु अंदर रहने से घिर जाने का अंदेशा था।
उसने चतुराई से काम लिया। अपने साथियों से परामर्श किया। सबकी सलाह यही थी कि उस समय यहां से निकल चलना ही खूबसूरती है।
रानी की सखी मंडली भी घोड़ों पर थी। सुंदर के दोनों हाथों में तलवारें चमक रही थीं।
मुंदर एक हाथ में भाला और दूसरे में तलवार पकड़े थी।
यह दोनों रानी के अगल-बगल थीं। यह मौके पर पहुंच रानी की सहायता करतीं और अंग्रेजी सेना के मोर्चों को तोड़ देतीं। काशी के हाथों में मानो बिजली भर गई थी।
वह दोनों हाथों से नरसंहार कर रही थी। उसकी तलवार गाजर-मूली की तरह अंग्रेजी सेना को काट रही थी।
लाशों पर लाशें पट गईं। खूद की नदिया बह चलीं और घमासान युद्ध होता ही रहा।
यह गदर था सन् 1857 का। हिंदुस्तानी अंग्रेजों के खिलाफ अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे।
रानी लक्ष्मीबाई पर भी विजय का भूत सवार था। वह अंग्रेजों के सर्वनाश पर तुली थी।
झांसी उसके हाथ से चली गई। रानी की पराजय के तीन कारण थे। एक तो तात्या टोपे उसकी मदद के लिए झांसी नहीं पहुंच सका।अंग्रेजों ने उसे बीच में ही पराजित कर दिया। वह वापस लौट गया।
और दूसरी दुर्घटना यह हुई थी कि नायक दीवान दूल्हा जू ने देशद्रोह कर दिया। वह अंग्रेजों से मिल गया।
उनको सैनिक भेद बतला दिए।
तीसरे रानी का ही नहीं झांसी का दुर्भाग्य कि अंग्रेजों की तोप का गोला किले के बारूदखाने में जा गिरा।
जिससे उसमें आग लग गई और उसी समय दूल्हा जू ने किले का फाटक अंदर से खोल दिया।
अंग्रेजों के लिए विजय का यही अवसर था। उनकी सेना ने रानी को पूरी तरह से घेर लिया।