रानी लक्ष्मीबाई दो दिन तक कालपी में रही।
अब तक अंग्रेज वहां नहीं पहुंच पाए थे, उसका एक कारण था।
जब जनरल रोज ने लेफ्टिनेण्ट वाकर को रानी का पीछा करने के लिए भेजा तो उसे जल्दी कोई सूचना नहीं मिली कि वाकर रानी द्वारा पराजित हो गया है।
रानी के साथ उसकी विश्वस्त दासियां सुंदर, मुंदर और काशीबाई थीं।
उन्हें कालपी की स्थिति देखकर यह संदेह होने लगा कि ये लोग अंग्रेजों के खिलाफ तनिक देर भी नहीं टिक सकते।
इनमें संगठन नहीं है, इनमें फूट है।
ये लोग आपस में बिखरे हुए हैं। रानी ने वहां का जो राजनीतिक और सामाजिक ढांचा देखा तो उसे दुःख हुआ कि तांत्या-टोपे जैसा सरदार भी छोटी-छोटी बातों को लेकर मन में मतभेद रखता है।
यद्यपि राव साहब और पेशवा तात्या टोपे अंग्रेजों से मोर्चा लेने के लिए तैयारी कर रहे थे, लेकिन रानी ने आंखें पसारकर देखा, उसकी छाती फट गई। उसने देखा कि तात्या टोपे जैसा कुशल सेनापति होते हुए
सेना में अव्यवस्था है। सैनिकों में उत्साह नहीं, उनमें जीवट का नाम नहीं।इसके अतिरिक्त दुःख का विषय एक दूसरा भी था।
नाना के भाई राव साहब राग-रंग में मस्त थे। वे नाच और गाने की दुनिया में खो रहे थे।
उन पर किसी के भी समझाने-बुझाने का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता।
रानी ने राव साहब को बहुत समझाया, उनमें देश-प्रेम की भावना फूंकी; लेकिन तूती बजती रही और नक्कारखाने में उसकी आवाज नहीं पहुंची। रानी हार मान गई। वह राव साहब को समझा नहीं पाई।
अपने कुछ सुझाव लक्ष्मीबाई ने पेशवा सरदार तात्या टोपे के सामने रखे। उनमें प्रमुख विषय यही था कि सैन्य संगठन बहुत अच्छा होना चाहिए।
सैनिकों में हिम्मत और दिलेरी, इन दोनों की बहुत जरूरत है।
तांत्या सरदार ने इसको अपना अपमान समझा; लेकिन उसने रानी का भी सम्मान रखा। उससे कुछ कहा नहीं। रानी इन सारी परिस्थितियों को जान गई। वह निराश हो गई कि उसे कालपी से मदद मिलेगी और वह अंग्रेजों से टक्कर लेगी।
इसी बीच रानी को यह खबर मिली की सर ह्यूरोज ने कालपी पर धावा करने का निश्चय किया है।
वह बड़ी तेजी के साथ इधर बढ़ा चला आ रहा है।
इससे पहिले उसने कौंच में विद्रोहियों को खूब रौंदा और उन्हें बुरी तरह मसल डाला।
झांसी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार हो गया। कौंच में भी अंग्रेजों की ही सत्ता का प्रभुत्व रहा।
कालपी के राव साहब और पेशवा तात्या टोपे पर अंग्रेज इसके पहिले नाराज़ नहीं थे।
मगर जब तात्या टोपे रानी की सहायता के लिए गया और फिर उसके बाद रानी ने जाकर वहां शरण ली।
इससे अंग्रेज जल-भुन गए। जनरल रोज ने कौंच में ही सर ह्यूरोज के पास खबर भेज दी कि इधर से ही वह कालपी पर हमला कर दे। झांसी की रानी वहीं है और लेफ्टिनेण्ट वाकर उससे हार गया है।
इसीलिए अंग्रेजों की विशालवाहिनी कालपी पर काली घटा बनकर छाने जा रही थी। सर ह्यूरोज स्वयं सेना का संचालन कर रहे थे।
राव साहब और तात्या टोपे की फौज अंग्रेजी सेना के मुकाबले में मैदान में आ गई।
इधर का सेनापति सरदार तात्या टोपे था।
दोनों तरफ की तोपें आग उगलने लगीं।
पैदल और घुड़सवारों में भयंकर मारकाट हो रही थी। तोपों का गड़गड़ाना और गोलों का छूटना बंद नहीं हुआ।
तलवार और भाले का युद्ध लगभग एक प्रहर चला अब अंग्रेजों के पैर उखड़ने लगे; क्योंकि मराठी सेना बड़ा भीषण युद्ध कर रही थी।
सेनापति के आदेश पर अंग्रेज सैनिकों ने अपनी-अपनी बंदूकें संभाल लीं। दनादन गोलियां छूटने लगीं।
एक बार मराठी सेना विचलित हो उठी। तात्या टोपे चिल्लाया।
उसके सैनिकों ने भी बंदूकें और पिस्तौलें निकालीं। मगर अफसोस कि अंग्रेजों की अपेक्षा वे तादाद में बहुत कम थीं।
तोप और तलवार का युद्ध बंद हो चुका था। अब बंदूकें गोलियां बरसा रही थीं।
थोड़ी देर में ही मराठी सेना भाग खड़ी हुई। उसके पैर उखड़ गए।
जब रानी ने मराठी सेना को भागते देखा तो उसने सबको ललकारा। अपने साथ दौ सौ पचास घुड़सवार सैनिक लेकर वह युद्ध-भूमि में उतर पड़ी।
सर ह्यूरोज रानी का रूप देखकर दंग रह गया।
उसकी पीठ से दामोदर राव बंधा था।
वह रेशमी रंगीन वस्त्र पहिने थी। ढीली मोहरी का पायजामा, लंबी कंचुकी, चूनर और चादर से वह मण्डित थी।
भीतर से उसने कवच धारण कर रखा था, ऊपर से वह पोशाक पहिने थी।
उसके गले में हीरों की माला थी, हाथों में नीलम की पहुंचियां।
उसकी रंग-बिरंगी रेशमी टोपी में लाल और जवाहर लगे थे। उसका वीर रूप देखते ही बनता था। घोड़े की लगाम उसने मुंह में दाब रखी थी। वह दोनों हाथों से तलवार चला रही थी।
अंग्रेज सैनिक रानी का युद्ध देखकर घबड़ा गए।
उनके माथों पर पसीना आ गया। इतने में ही अंग्रेजों की तोपें पुनः आग उगलने लगीं। मराठी सेना पहले उखड़ी।
फिर तनिक जमी; लेकिन तोप के गोले छूटते ही फिर भागने लगी।
रानी ने बड़ी वीरता के साथ युद्ध किया, जो भी अंग्रेज सैनिक उसके पास आया वह मौत के घाट उतर गया।
रानी खून की प्यासी हो रही थी।
वह रणचंडी बन रही थी। उसकी आंखों से चिनगारियां निकल रही थीं।
लक्ष्मीबाई पूरी तरह से अंग्रेजों के मोर्च से घिर गई।
वहां से निकल सकना उसके लिए बहुत कठिन हो गया। वह सांस नहीं ले रही थी। दोनों हाथों अपने दुश्मनों का सफाया कर रही थी।
रानी के साथी बहुत थोड़े रह गए। फिर भी वह युद्ध उसी गति से करती रही।
तोपे गड़गड़ा रही थीं। उनसे गोले छूटते। धांय की आवाज होती और फिर आग ही आग दिखलाई देने लगती।
मराठी सेना से भागते ही बना। वह विचलित तो पहले ही हो चुकी थी।
रानी ने जब यह देखा तो उसकी हिम्मत कांपी; लेकिन फिर भी उसने हिम्मत से काम लिया। और अपने युद्ध में शिथिलता नहीं आने दी।
उसने सुंदर को इशारा किया जिसका आशय पास खड़ी मुंदर भी समझ गई कि जैसे भी हो अंग्रेजों का मोर्चा तोड़ना है और यहां से भाग निकलना है, इसी में भलाई है।
काशी बाई भी समझ गई कि अब रानी बुरी तरह घिर गई है।
या तो अंग्रेज उसका वध कर डालेंगे या फिर गिरफ्तार कर लेंगे। उसने रामचंद्र राव को जोर से ललकारा और कहा “रानी के पीछे रहिए।
उनकी जान इस समय खतरे में है। मोर्चा तोड़कर हम लोगों को निकल चलना है। वर्ना हम अभी कैद हो जाएंगे।"
रामचंद्र राव सतर्क हो गया। वह रानी के पीछे आ गया। भयंकर मार काट हो रही थी। लाशों पर लाशें गिर रही थीं।
रानी रक्तरंजित हो गई थी, लेकिन उसके हाथ बंद नहीं हुए।
आखिर अंग्रेजों का मो! टूट गया और रानी रणक्षेत्र से निकल भागी। उसके पीछे उसके विश्वस्त सरदार थे।
इस तरह चौबीस मई अठारह सौ अट्ठावन को कालपी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
तात्या टोपे और रावसाहब भी रानी के साथ भाग खड़े हुए।
ये सब कालपी से बहुत दूर निकल गए।
अंग्रेजी सेना ने इनका पीछा किया, लेकिन कोई भी उनके हाथ नहीं आया। सभी आंखों से ओझल हो गए।
रानी मंजिल पर मंजिल तय करती हुई अपने साथियों के साथ गोपालपुर पहुंची।
वहां जाकर उसने सांस ली और भविष्य के लिए योजना बनाने लगी कि अब उसे क्या करना चाहिए।
राव साहब के होशोहवारा गुम हो रहे थे।
रानी ने उनको शान्त किया और उनसे परामर्श करने लगी कि अब हमें किस ओर चलना चाहिए।
अंग्रेज हमारा पीछा करेंगे। हम जहां भी जाएंगे वे लोग हमारा पीछा करेंगे। ग्वालियर थोड़ी दूर है।
क्यों न जियाजी राव के यहां चला जाय और उनसे सहायता मांगी जाए। वह हमारे प्रस्ताव को अवश्य स्वीकार कर लेगा।