रानी ने ग्वालियर का राज्य संभाल लिया।
उसने वहां की जनता को आशा और भरोसा दिया कि वह गदर की आग ग्वालियर में नहीं फैलने देगी। अगर अंग्रेज नहीं माने, उन्होंने ग्वालियर पर चढ़ाई की तो हम लोग उनके सामने हथियार नहीं डालेंगे।
यहां पर अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ेगी, इसमें कोई शक नहीं।
जनता में घर-घर रानी की वीरता की चर्चा हो रही थी।
वहां भी रानी इतनी ही प्रिय और मान्य हो गई जैसे वह झांसी के लोगों की श्रद्धा की देवी थी। वह जब बोलती तो लोगों में जोश आता; जवानों की भुजाएं फड़कने लगतीं जैसे ही वह म्यान से तलवार निकालती।
उसमें देश-प्रेम की पवित्र गंगा बह रही थी। जो भी उसके सम्पर्क में आता उसे वह 'जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी' का पाठ पढ़ाती।
उसकी सोयी हुई नसों में वह बिजली भर देती। यही कारण था कि उसकी सेना में आए दिन वृद्धि हो रही थी।
सैनिक हौसले से भरपूर थे कि उन्हें रानी लक्ष्मीबाई के साथ युद्ध करने का अवसर मिले।
ऐसी थी रानी और उसका व्यक्तित्व अपने में अद्वितीय था। उसमें उत्साह की अगाध सरिता थी। वह कुशल सेनानी ही नहीं; सेनापति थी। रानी का पद उसे प्राप्त था और वह वीरांगना थी।
रानी अंग्रेजों की ओर से गाफिल नहीं थी।
उसका कहना था कि दुश्मन को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए। अंग्रेज इस समय भारत पर छा रहे थे।
ऐसा लगता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के राज्य-विस्तार की यही स्थिति रही तो एक दिन समूचे भारतवर्ष पर विदेशी झंडा लहराएगा।
अंग्रेज बड़े चालाक हैं। वे लड़ाई में केवल युद्ध से ही काम नहीं लेते। वे घूस देकर नायब दीवान दूल्हा जू की तरह लोगों को मिला लेते हैं।
उनके भेदिए गुप्त रूप से दूसरों के सैनिक रहस्य जान लेते हैं। वे बड़े कूटनीतिज्ञ हैं, कहते कुछ और करते और हैं
इसीलिए रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों पर तनिक भी विश्वास नहीं था। वह हमेशा उनकी ओर से सतर्क रहती।
एक दिन उसे समाचार मिला कि सर ह्यूरोज एक बड़ी फौज लेकर ग्वालियर की ओर आ रहा है। रानी के कान खड़े हो गए। उसने अपने सभी साथियों को आगाह किया और पूरे जोर-शोर के साथ युद्ध की तैयारी करने लगी।
सर ह्यूरोज बहुत तेजी के साथ ग्वालियर की ओर बढ़ता आ रहा था। उसके साथ विशाल सेना थी।
आते ही उसने ग्वालियर के किले को चारों ओर से घेर लिया। अंग्रेजों का तोपखाना बहुत भारी था। उनके पास बड़ी-बड़ी तोपें थीं। बस फिर क्या था। युद्ध छिड़ गया और तोपें गोले बरसाने लगी ।
राव साहब सबसे पहले लड़ाई के मैदान में उतरे।
उनकी सेना यद्यपि छोटी नहीं थी; लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले वह न के बराबर थी। दोनों ओर की सेना आपस में गुंथ रही थी।
अंग्रेजी सेना भयंकर मार-काट कर रही थी क्योंकि उसके पास भी तलवारों के साथ-साथ बंदूकें थीं। देर नहीं लगी। राव साहब थोड़ी देर भी युद्ध नहीं कर पाए।
वे हार गए और अंग्रेजों ने उन्हें बंदी बना लिया।
रानी ने यह सुना तो उसके पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। उसने सुंदर, सुंदर और काशीबाई को ललकारा।वह बोली-“सब लोग कवच पहन लो, आखिरी समय आ गया है। राव साहब की तरह हम लोग बंदी बनें, यह बड़े शर्म की बात होगी।
लड़ते-लड़ते जो मारा जाता है उसे वीर-गति मिलती है, वह सीधे स्वर्ग जाता है और वीर शूरमा वही कहलाता है। रामचंद्र, रघुनाथ सिंह ये दोनों हमारी सेना का संचालन करेंगे और इस समय युद्ध का मोर्चा काशीबाई और सुंदर बनाएंगी।"
जियाजी राव अंग्रेजों से मिल गया था। वह उनकी सहायता को पहुंच गया था। ग्वालियर के किले से तात्या टोपे की तोपें आग उगल रही थीं।
रानी युद्ध करती-करती अंग्रेजों के साथ बहुत दूर निकल आई। किले का फाटक बंद था। तात्या टोपे उसके अंदर था।
उसकी सेना को सर ह्यूरोज ने रानी की सहायता के लिए नहीं आने दिया। वह अंग्रेजों के बीच बुरी तरह घिर गई। उसने प्राण हथेली पर रखकर युद्ध करना शुरू किया। अंग्रेज सैनिक उसकी वीरता को देखकर दांतों तले उंगली दबाने लगे।
रानी का चेहरा क्रोध से लाल सुर्ख हो रहा था।
वह दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई अंग्रेजों की सेना को गाजर मूली की तरह काट रही थी।
अफसोस, ग्वालियर के सैनिक भूतपूर्व राजा जियाजीराव से मिल गए।
अब अंग्रेजों को सारे रहस्य मालूम हो गए। युद्ध अच्छे पैमाने पर होने लगा। खून की नदियां बह चलीं।
रानी जिधर जाती अंग्रेज सैनिक दहल जाते। वे उसे देखते ही समझ जाते कि उनकी मौत आ गई।
रानी की सेविकाओं ने ऐसा जबर्दस्त मोर्चा बनाया था कि अंग्रेजों का उसे तोड़ देना आसान नहीं था।
युद्ध की गति में तनिक भी अंतर नहीं पड़ा। लाशों पर लाशें गिरती रहीं।
रानी लोहू-लुहान हो गई थी, लेकिन फिर भी उसकी तलवारें प्यासी थीं, वह उनकी प्यास बुझा रही थी।