रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु

रानी लक्ष्मीबाई की कैसे हुई मृत्यु - रानी लक्ष्मीबाई वीरगति प्राप्त की - वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान

18 जून 1958 में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गई थीं ।

रानी लक्ष्मीबाई दोनों हाथों युद्ध कर रही थी।

उसका रूप भयानक हो रहा था। वह रक्त की प्यासी हो दुश्मनों का खून बहा रही थी।

भयंकर मारकाट हो रही थी।

तोपों के गोले छूटते, वे आग बरसा देते।

बंदूकें अलग सैनिकों को भून रही थीं। संयोग की बात एक गोली रानी के लग गई फिर भी वह विचलित नहीं हुई, मोर्चे पर डटी रही।

घायल होकर भी रानी आगे बढ़ रही थी।

वह दुश्मनों का तेजी से सफाया कर रही थी। उसने अपने घाव की तनिक भी चिंता नहीं की और निरंतर आगे बढ़ती चली गई।

आपत्ति कभी अकेली नहीं आती। वह आदमी को परेशान कर देती है। रानी युद्ध का मोर्चा तोड़कर भागी। उसके आगे एक मात्र यही उपाय था।

और दूसरी राह नहीं। उसके पीछे उसके विशाल सैनिक भी भागे। इन लोगों ने अंग्रेजी फौज को बहुत पीछे छोड़ दिया। अब एक बड़ा नाला था। रानी का घोड़ा नया होने के कारण उसे लांघ नहीं सका।

इसी बीच अंग्रेज सैनिक वहां आ गए।

और उन सबने मिलकर इकट्ठे रानी पर हमला कर दिया। रानी घबड़ा गई, वह बुरी तरह परेशान हो गई। उसके गोली के घाव से खून अब भी बह रहा था। वह शिथिल सी पड़ने लगी। उसकी हिम्मत छूट गई।

बस फिर क्या था, घायल रानी विवश होकर युद्ध करने लगी। वह खून से बुरी तरह लथपथ थी। उसके सब साथी उसके पास आ पहुंचे थे। उन्होंने भी आते ही भयंकर युद्ध शुरू कर दिया। जोरों की मारकाट होने लगी। सैनिकों के सिर धड़ से अलग होते तनिक भी देर नहीं लगती।

काशीबाई अब भी रानी के पीछे थी। उसका ध्यान लक्ष्मीबाई की ओर गया। उसने देखा वह शिथिल रानी को सहारा देकर एक झोंपड़ी में ले गई।

इधर रानी के साथियों ने भीषण युद्ध करके अंग्रेजों को दहला दिया। वे जिंदगी की आशा छोड़कर युद्ध कर रहे थे।

अंग्रेजी सेना के पांव उखड़ गए। वह तितर-बितर होने लगी। ऐसा लग रहा था कि आज नर-संहार होकर रहेगा। एक भी अंग्रेज सैनिक जीवित नहीं बचेगा।

काशीबाई ने रानी को धीरे से जमीन पर लिटा दिया और वह उनकी सेवा करने लगी। रानी को तनिक होश आया तब तक उसके अन्य साथी भी उसके सामने पहुंच गए थे।

उसने अपने सभी जीवट उतार दिए फिर सुंदर मुंदर तथा काशी से बोली-“यह गहने सैनिकों में बांट दो। उनका उत्साह बढ़ेगा।"

सुंदर रोने लगी। काशीबाई के भी आंसू आ गए। रानी ने अपना अंतिम संदेशा कहा। मुंदर से वह बोली- “मुंदर ध्यान रखना-झांसी का वारिस दामोदर राव है।

उसका छः लाख रुपया ईस्ट इंडिया कंपनी के पास जमा है। बालिग होने पर वह ब्याज सहित उससे लेगा। मेरे कार्य को पूरा करना।

मैं जिस अधूरे काम को छोड़े जा रही हूं। उसको पूरा करने का भार तुम सब पर है मेरे गोली लगी है, अब मैं बचूंगी नहीं। क्या बताऊं अगर और जीवित रहती तो देश से अंग्रेजों को निकालकर ही दम लेती। मैं मजबूर हो गई। मैं जी भरकर दुश्मन के साथ युद्ध नहीं कर पाई इसका मुझे दुःख है।"

और यह कहने के बाद रानी ने अपने प्राण त्याग दिए। उसके साथियों ने बहुत जल्दी की।

इधर उधर से लकड़ी लाकर उसी झोपड़ी में उसकी चिता बनाई और फिर आग लगा दी।

रानी का दाहसंस्कार उन लोगों ने विधिविधान से किया और इस तरह उन सबने रानी के पवित्र शरीर को विदेशियों को नहीं छूने दिया, क्योंकि रानी की दृष्टि में वे भ्रष्ट थे, मल्च्छ थे।

यद्यपि गदर का अंत हो गया था। देश भर में छुटपुट लड़ाइयां लड़ी गईं। और उसका परिणाम यह निकला कि देश अंग्रेज के अधीन हो गया। सन् अठारह सौ सत्तावन में गदर की जो लहर भारत वर्ष भर में दौड़ी थी।

उसका क्रम दो साल तक चलता ही रहा। जहां तहां लड़ाइयां होती रहीं। लेकिन जिस दिन झांसी की रानी की मृत्यु हुई उसी दिन मानो क्रांति का दिया बुझ गया।

किसी में भी दुश्मनों के खिलाफ लड़ने का साहस नहीं रहा। उसी दिन भारतीय आजादी की पहली लड़ाई का एक प्रमुख अध्याय समाप्त हो गया। भारतीय सेना ही नहीं अंग्रेज सैनिकों के भी आंसू आ गए।

उन्हें रानी की मृत्यु का बहुत दुःख हुआ।

रानी का घोड़ा अगर नाला पार कर जाता तो वह डटकर युद्ध करती; लेकिन साथ ही साथ उसके एक गोली भी लग गई थी।

रानी ने उसकी परवाह नहीं की। यही उसने भूल की। गोली लगी भी वह तो उसकी बगल में। इसके अलावा एक अंग्रेज सैनिक ने उसके सिर में तलवार से घाव कर दिया था।

लेकिन रानी में हिम्मत थी। उसने घोड़े की लगाम नहीं छोड़ी। उस पर बैठी रही और युद्ध भूमि से चली गई।

थोड़ी देर बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। जिसने सुना उसी के आंसू बहने लगे।

सर ह्यूरोज ने कहा कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई इतनी बहादुर थी कि सात सौ सैनिक मिलकर उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। एक छोटी मोटी सेना के लिए वह अकेले ही काफी थी।

देश द्रोह करने वाले भी रानी की मृत्यु पर पछताए। उनमें सबसे पहला आदमी झांसी का नायब दीवान दूल्हा-जू था।

दूसरा था जियाजी राव जिसने रानी के साथ विश्वासघात किया था। यह सब रोये।

क्योंकि अंग्रेज इनके नहीं हुए। उन्होंने अपना स्वार्थ सिद्ध किया और इन सबको उल्लू बना दिया।

रानी लक्ष्मीबाई स्वतंत्रता संग्राम की देवी थी। वह प्रथम भारतीय वीरांगना थी जिसने देश की आजादी के लिए खून की लड़ाई लड़ी।

सन् अठारह सौ सत्तावन की जो क्रांति हुई। रानी उसकी सूत्रधार थी। उसका बलिदान अमर हो गया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है।

वह भारत का गौरव थी। उसका देशप्रेम अतुलनीय था। वह अगर जीवित रहती तो देश से अंग्रेजों को निकालकर ही दम लेती।

हम सबके लिए वह प्रातः स्मरणीया है। धन्य है वह नारी रत्न! जिसने देश के लिए अपना तन, मन और धन सभी कुछ अर्पण कर दिया।