भूतों की बस्ती



Ghost Town Story

बरसात का महीना था।

दिन सावन के। सावन के बारे में कहा ही गया है कि यह यह (सावन माह) वर्षा की जवानी के दिन होता है।

इस बार भी काफी वर्षा हो रही थी- लगातार।

नदी-नाले, खेत-पोखर सभी पानी से लबालब भरे थे।

जीतू को अपनी शादीशुदा बहन के यहाँ सावनपूरिया (सावन मास में मायके द्वारा भेजी जाने वाली उपहार सामग्री) लेकर जाना था।

उसकी बहन का जहाँ घर था, वह बाढ़ प्रभावित था।

लगातार हो रही वर्षा से उसका गाँव चारों तरफ पानी से घिरा था।

जीतू और उसकी माँ इंतजार कर रहे थे- वर्षा छूटने का।

किसी तरह वर्षा छूट जाए और कुछ दिनों में पानी निकल जाए कि अलंग (एक कच्ची टूटी-फूटी पगडंडी, पर यह जरा ऊँची थीं) के द्वारा भी गीता (जीतू की बहन) के यहाँ जाया जा सके।

हालाँकि जल जमाव के दिनों में वहाँ पर नावें भी चलती थीं, पर नाव से जीतू को काफी भय लगता था ।

उसे तैरने न आता था और सोचता था- खुदा- न-खास्ता नाव अगर उलट गई तो........? फिर पानी गहरा हो तब तो.....।

बाप-रे-बाप। न-न, मैं नाव से नहीं जाऊँगा।

लगभग आधा माह बीता होगा। लगातार हो रही बारिश कम गई।

कभी-कभी हल्की । फुलकी बूंदा-बाँदी भर ही होनी थी।

उधर, गीता के घर से भी संदेश मिला कि पानी बहुत कम गया है।

आप चाहें तो दक्षिण वाली पगडंडी से आ सकते हैं।

और चल पड़ा जीतू अपनी बहन की ससुराल सावन की सौगात लेकर।

दो गाड़ियाँ बदलकर जीतू तीसरी गाड़ी बदलने वाला था।

पर अचानक जोरों की बारिश शुरु हो गई- खूब झमाझम ।

वह एक दुकान में छिपकर बारिश के छूटने का इंतजार कर रहा था।

पर बारिश थी कि छूटने का नाम नहीं ले रही थी। उसे अब भय भी लगने लगा था- अगर थोड़ी देर और वर्षा नहीं छूटी तो फिर उसका उसकी बहन की ससुराल तक जाना मुश्किल हो जाएगा ।

कब गाड़ी मिलेगी, कितनी देर बाद पहुँचाएगी और फिर बाजार में ही शाम हो गई तो. ....। बाजार से उतरकर करीब पाँच किलोमीटर पैदल चलना होता है।

और अब घड़ी में शाम के पाँच बजकर चालीस मिनट होने को थे, पर बारिश थी कि अपने रंग में....।

अब जीतू को कुछ दूसरा सोचना हो गया- अब कब पहुँचेगा वह...।

थोड़ी देर में तो अँधेरा हो जाएगा। और उसमें भी बारिश भी नहीं छूटी है।

अब तो उसे यहीं पर कहीं इधर-उधर रात गुजारनी होगी।

पर बर-बरसात के दिनों में बड़ी ही मुश्किल है।

यह तो बस पड़ाव साधारण बड़ा है पर इसका यात्री विश्रामालय तो इतना छोटा है कि अभी ही देखा जा रहा है कि कैसे यात्री बैठे हुए हैं।

बढ़िया से बैठने भर की जगह नहीं है। यहाँ कोई होटल-वोटल

भी वैसा है या, नहीं ही होगा। फिर कहाँ मैं रात गुजारूँगा।

जहाँ-तहाँ अंजान जगह में तो और मुश्किल है।

छीन-छान भी लेगा और न होगा तो जान मार देगा। अच्छा राम हैं।

नहीं कुछ होगा तो किसी तरह वहीं बैठकर रात गुजार लूँगा।

अरे, मैं समझता हूँ कि कुछ-न-कुछ यात्री रात को अवश्य ही ठहरते होंगे और उसमें भी ऐसा मौसम किए हुए हैं तो मुझ जैसे और भी कितने लोग होंगे।

यह सब सोच ही रहा था कि जीतू कि यात्रियों में अचानक हलचल पाई।

ध्यान दिया तो पाया कि वर्षा एकदम से छूट गई है।

और आश्चर्य की बात यह देखी कि शाम होने पर है और बादल छाँटकर सूरज अपने अवसान की कोर पर दीख जाता है।

इतने में उसने 'वागापुर चलिए- वागापुर चलिए, बस वाले से यह कहते सुना।

उसने यह सोचा न वह, वह लपककर गाड़ी में जा चढ़ा, गाड़ी भी जैसे उसका ही इंतजार कर रही थी।

अभी जा खुली। गड्ढा-गुड्ढा तरपाते पहुँच गई गाड़ी बागापुर।

शाम तो पहले ही हो चुकी थी। अब रात भी पसर चुकी थी।

बस से उतरा जीतू तो चार लोग और उतरे। बागापुर एक छोटा पड़ाव था।

रात देखकर काफी डर गया जीतू। अरे बाप! मैं तो न घर का रहा न घाट का।

इस अँधेरी और सुनसान रात में वे कैसे अपनी दीदी के घर जा पारगा।

डर के मारे तो मरकर रह जाएगा। पर अब यहाँ रहेगा भी कहाँ ? दो-तीन दुकानें तो इधर हैं।

उन्हीं से बात करे क्या, कहीं किसी ने रात बिताने के लिए थोड़ी जगह दे दी तो क्या कहना! मैं अपरिचित जरुर हूँ, पर मेहमान (जीजा) को लोग जरुर जानते होंगे। जगह दे दे सकते हैं।

सोच ही रहा था कि एक आदमी से (बस का ही एक उतरा हुआ आदमी) उसकी बातचीत होने लगी।

और उसने कहा कि वह भी उस गाँव (उसके बहनाई के बगल वाला गाँव) के पास वाले गाँव तक चलेगा।

ज्यादा होगा तो वह उसे उसके बहनोई के गाँव तक पहुँचा भी देगा और नहीं होगा तो वह इसी के गाँव रात को ठहर जाए और सुबह होकर वहाँ को जा पहुँचेगा।

पन्द्रह मिनट का मुश्किल से रास्ता होगा।

जीतू को अब इसके अतिरिक्त कोई चारा भी तो न था। और वह उस आदमी के साथ उस घनी अँधेरी और सुनसान रात में चल पड़ा।

पर बेचारे का भाग्य कहिए या कुछ और उसके साथ चलने वाला आदमी उसे बीच में ही छोड़ गया।

दरअसल बागापुर से थोड़ी ही दूरी पर एक गाँव था, जहाँ पर उस आदमी का एक संबंधी रहता था।

और उसने उससे एक आवश्यक काम का हवाला देकर उसे रुकने पर मजबूर कर यिा।

हालाँकि उस आदमी ने जीतू से भी कहा था कि आप चाहे तो यहाँ ठहर जाएँ, और नहीं हो तो जा भी सकते हैं। मर्द हैं, डरने जैसी क्या बात है।

जीतू को बात कुछ दूसरी लग गई। उसे जैसे उसका मर्द ललकार उठा।

साथ ही उसे यह भी लगा कि उस आदमी का भाव बहुत अच्छा नहीं है।

यह अपने साथ ठहरने के नाम पर टालने जैसी बात बोल रहा है।

पर यह भी बात हो सकती है कि इस बेचारे के पास वह पराये

के पास किस बड़े अधिकार से उसे ठहरने के लिए कहे।

उस आदमी (उस आदमी का संबंधी) ने इस बात पर जरा भी तो कुछ नहीं कहाँ और उसने निश्चय किया कि नहीं,वह यहाँ नहीं ठहरेगा।

जो भी हो वह अकेला ही अपने गंतव्य तक पहुँचेगा और यह सोचकर जीतू चल पड़ा आगे की ओर।

उसका निश्चय अब उसे उतना नहीं डराता था। वह बढ़ता जा रहा था और जाता जा रहा था।

अचानक उसने देखा कि कोई एक आदमी एक अलग (कच्ची पगडंडी के किनारे) के किनारे शौच के लिए बैठा था।

सर्वप्रथम डर तो जरुर समाया, पर उसे लगा कि यह तो कोई सांधारण आदमी ही होगा, जो शौच कर रहा है। वह उससे थोड़ा आगे निकल आया।

फिर उसे पीछे से एक विचित्र रोशनी-सी आई महसूस हुई।

उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि वह आदमी अपने हाथ में एक बड़ी टार्च लिए इधर ही आ रहा था।

जीतू को अब भय की जगह एक बल-सा मिला। उसने सोचा- यह आदमी बगल के किसी गाँव का होगा, जो कुछ देर तक उसके साथ चलेगा।

वह रुक- सा गया। आदमी उसके नजदीक आ गया।

वह पहले कुछ बोले, या वह आदमी- सोच और इंतजार कर रहा था।

अंत में जीतू ही बोला, “आप कहाँ के हैं ?

मैं सावनपुर के देवघर जी( बहन के गाँव और उसके ससुर का नाम) के यहाँ जाऊँगा।" उत्तर में वह आदमी कुछ न बोला।

थोड़ा भयभीत हुआ जीतू- अरे! यह बोल कुछ क्यों नहीं रहा है।

अरे!....., जीतू की आँखें फटकर रह गई। वह आदमी वहाँ से लापता हो गया।

अरे.... तो क्या वह आदमी.......। बाप रे..! लगता तो है......।

है भी कोई गाँव कहाँ इधर ? मैं पहली बार थोड़े जा रहा हूँ।

उस गाँव (पीछे वाला गाँव) के बाद तो कोई गाँव इधर कहाँ है। अब जीतू के डर को तो कहना ही क्या।

वह बैग कंधे में दबाए हुए भाग पड़ा। भागने के क्रम कई बार कच्ची पगडंडियों जो फिसलनयुक्त थीं, से कभी नीचे खेतों में तो कभी ऊपर (पगडंडियों पर) ही गिर पड़ता।

सारा कपड़ा उसका कीचड़ से सन गया। वह हाँफता जा रहा था पर भागना न छोड़ता था।

अरे! एक आदमी उसके आगे गिरा पड़ा है। बाप रे! उसके मुँह से अचानक ही यह शब्द चीख पड़ा।

“आह!आह! बाप रे!" गिरे हुए आदमी से ऐसा शब्द सुना जीतू ने।

अब तो उसके पैर जैसे जम-से गए थे।

"बाबू! तुम कौन हो! मुझे उठाओ, मैं बूढ़ा हूँ, गिर गया हूँ।

" “आप कौन हैं?" जीतू ने पूछा। "

“मैं इसी गाँव का हूँ। शौच के लिए आया था। रास्ते पर फिसल गया हूँ, कमर में चोट लगी है।"

जीतू उसे उठाना चाहता था। पर भय के मारे वैसा करने से पहले उसका शरीर काँप उठा था।

"उठाओ बाबू! मुझे उठाओ, कैसे आदमी हो, जो एक बूढ़े की मदद नहीं कर सकते" जीतू को उसकी मदद-भावना जग पड़ी।

वह परिणाम जो भी, इसकी परवाह न कर उसे उठाने को बढ़ा।

पर उस बूढ़े को छूते ही उसका स्पर्श बड़ा गजब पाया। भरकाबू उठा पर बूढ़ा टस-से-मस न हुआ।

पर इस बार उसके हल्के सहारे से ही वह बूढ़ा उठ खड़ा हुआ और उसके सामने तनकर खड़ा था।

जीतू ने उसे देखा तो पाया कि वह आदमी कुछ विचित्र-सा है- बड़ी-बड़ी आँखें और लाल अंगारों जैसी।

सिर आम आदमी से दुगुना बड़ा। छाती पतली और कमर बहुत मोटी।

बिजली चमकी तो उसने उसके पैरों को देखा तो पैर उलटे पाया। ...... बाप रे! यह तो लगता है भूत है।

भूत के ही पैर उलटे होते हैं।

फिर कोई ऐसा आदमी थोड़े होता है, जिसका इतना बड़ा सिर, इतनी मोटी कमर और इतनी पतली छाती होती है।

“कहाँ जाआगे बाबू? और इस समय क्यों आए हो?"

बदले में कोई आवाज न निकल पा रही थी- जीतू की। "बोलते क्यों नहीं? मैं पूछता हूँ, कहाँ जाना है ?"

"सावनपुर बाबा, देवधर जी के यहाँ।"

किसी रह गिलफिलाकर आवाज बाहर निकाली जीतू ने।

"अच्छा देवधर जी के यहाँ । खूब जानता हूँ, उस पंडितजी को। मेरे यहाँ यजमानी करने आते हैं।

बड़े भले हैं आदमी। उसे लगा- उसने व्यर्थ ही अपने मन में भय पाल लिया है।

किसी-किसी की बनावट क्या आम आदमियों से भिन्न नहीं होती। इसका आकार-प्रकार ही

"चलिए, मैं आपको देवधर जी के यहाँ पहुँचा देता हूँ।"

और जीतू और वह आदमी आगे की ओर बढ़ चले।

अब फिर रुकी हुई बारिश शुरु हो गई। झम-झम! झमा-झम!! पर यह क्या? आश्चर्य., अति आश्चर्य! जीतू को तो यह महसूस ही न हो हा है कि वह पानी में भींग रहा है।

जबकि खूब तेज बारिश की खूब आवाज वह सुन रहा है। उसका सीना फिर धौंकनी की तरह पचकने-फूलने लगा।

देखते-ही-देखते जीतू के आगे एक छोटी-सी बस्ती खड़ी मिली।

वह मूर्तिवत् उस विचित्र आदमी के साथ उस बस्ती में घुस गया। घुसते ही उसने (जीतू ने) वहाँ एक गजब प्रकार. का कोलाहल महसूस किया।

तरह-तरह की और विचित्र-विचित्र सी जलती और टिमटिमाती रोशनियाँ भी उसे दिखीं।

अब वह क्या देखता है कि उससे दो-तीन कदम ही आगे कुछ लोग ।

जबरदस्त रुप से लड़ रहे हैं। कोई-कोई, किसी-किसी को इस प्रकार उठाकर पटक दे रहा है कि जीतू को तो देखकर उसके प्राण बाहर निकलने को आते थे- अरे- इतना जोर से पटकाने पर भी वह आदमी चूं तक नहीं कर रहा है! ऐसे उठ जा रहा है, जैसे वह रुई के ढेर पर से गिरकर उठ रहा हो।

“आऽऽहऽऽ आऽऽ.. हाँऽऽ।" सहसा एक दैत्याकार आदमी जीतू पर एक बड़ी चट्टान लेकर टूट पड़ा।

जीतू वार से पहले ही बेहोश- सा होने लगा।

पर उसने देखा कि जो आदमी उसके साथ-साथ चल रहा था, उस आदमी ने उस दैत्याकार आदमी की चट्टान का वार अपने पर ले लिया।

उस आदमी से वह चट्टान छीनकर उस पर ही दे मारा। पर यहाँ भी आश्चर्य उसने उस चट्टान को पकड़कर अपने एक बाजू में दबाकर चकनाचूर कर दिया।

और फिर वह दैत्याकार आदमी जीतू को लीलने वाले अंदाज से देखने लगा।

जीतू ने स्पष्ट देखा कि उसके बड़े-बड़े दाँत है, जो ठुडढ़ी से भी नीचे लटक रहे हैं।

बड़े-बड़े और मोटे-मोटे बाल सिर के काफी ऊपर तक खड़े हैं। चार विचित्र, डरावनी और चमकीली आँखें हैं।

बाप रे! ये आँखों से खून की धार निकल रही है। ऐसा तो उसने किसी फिल्म या धारावाहिक में देखा है, यह सचमुच का.....।

और अब गश्ती खाकर नीचे गिर पड़ा जीतू। वह अर्द्धचेतना में पड़ा है।

आँखें बंद हैं, कुछ- कुछ सुन-समझ रहा है ।

वह दैत्याकार आदमी फिर जीतू की तरफ लपकता है,“ हा..हा..हा.. आज मैं इसका मांस खाकर रहूँगा।

बहुत दिनों से किसी आदमी को मारकर नहीं खाया। मुरदे को खाते-खाते मन ऊब गया है, जिन्दे को खाऊँगा। हा...हा.... हा.... हा...।"

"रुक जाओ बैताल, नहीं तो मैं तुम्हें मसलकर रख दूंगा। तुम इसे छू तक नहीं सकते।" रास्ते में मिला वह आदमी बोला था।

"अरे बुडदे! तू बैताल को रोकेगा। तेरा इससे लेना-देना ही क्या है रे? तू भी भूत, मैं भी भूत। पर यह तो आदमी है।

अच्छा, अब मैं समझा बुड्ढे, तू इसे अकेला चबाएगा।" गलत सोचते हो बैताल, मैं इसे छूऊँगा तक नहीं, इसने मेरी मदद की है।"

"तुम"भूत-पिशाच भी ऐसी भावना रखते हैं। हा..हा..हा..हा..।

बहलाना चाहता है बुड्ढा।" “बहलाता नहीं रे पिशाच, सच कहता हूँ, तेरे जैसा मैं आग लगाकर नहीं मरा हूँ, जो इतना नरपिशाच हो जाऊँ।"

"तो क्या अमृत लगाकर मरा है। हा..हा..हा..हा..! बैताल ने व्यंग्य किया और जोर से ठहाका मार दिया।

"हाँ, ऐसा ही समझ ले। एक छोटी-सी गलती करके आज तक पछता रहा हूँ कि प्रेत योनि में जन्म ले लिया।

घरवालों की एक छोटी-सी बात पर क्रोध करके फसरी लगा ली।"

"अरे किसी तरह मरा न रे। अकाल ही मौत न कहलाएगी।" जीतू लगभग बातें अर्द्धचेतना में ही सुन-समझ रहा था।

"चल बैताल, फँसा कहाँ है इस बुड्ढे की बातों में। मैं तेरा साथ देता हूँ, पर मुझे भी तुम्हें इसका हिस्सा देना पड़ेगा।

मैं इसके सिर को खाऊँगा।

"हा..हा..हा..हा..हा..! कड़-कड़-कड़-कड़...कड़ाक..! हा..हा..हा..। आदमी के सिर की हड्डियाँ चूसूंगा।

उसका खून पीऊँगा।" एक आँख का अंधा एक भूत बोलता हुआ खूब नाच रहा था।

"अरे साले डिम्बा, तू क्या हकदार बनेगा। मैं इसका एक कतरा भी किसी को न दूंगा।

सारा खून भी खुद ही पिऊँगा हा..हा..हा..हा..! आऽ आ अ.. अ..।" बोलता हुआ बैताल जीतू को एक मुटठी में दबा लिया और बाहर की ओर दौड़ पड़ा।

पर इस बुड्ढे ने भी साथ न छोड़ा। पीछे-पीछे वह भी उसके बेतहाशा दौड़ा।

आगे एक बड़े गड्ढे में खूब तेज आग जल रही थी। अरे, इधर भी एक वहाँ गड्ढा और में उसमें भी उसी तरह दहकती और धधकती आग।

उन दोनों कुंडनुमा गड्ढों के चारों ओर भयानक-भयानक भूत-पिशाच नाच रहे थे। सब के सब हाथ में गजब-गजब प्रकार के हथियार लिए हुए हैं।

गले में आदमी की खोपड़ियाँ लटक रही हैं। दोनों कुंडों के बीच में एक महादैत्याकार आकृति लटक खड़ी है।

उसके दोनों हाथों में एक-एक विशाल मानव-कंकाल पड़ा है। मुँह से आग की वर्षा हो रही है। आँखों से खून की धार निकल रही है।

दोनों कंधों पर दो विचित्र प्राणी हाथों में हथियार लिए खड़े हैं। उसके थोड़ा पीछे का दृश्य भी गजब है।

एक इसी तरह का एक राक्षसनुमा आदमी कई भूत-पिशाच को लड़वा रहा है।

मतलब भूतों की कुश्ती हो रही है वहाँ पर। कोई-कोई भूत किसी-किसी भूत को बीच-बीच में ऐसे फूंक दे रहा है कि वह आकाश में उड़ जा रहा है।

अरे..! यह एक कैसा गजब आदमी अपनी जांघों पर ताल दे रहा है। बड़ी-बड़ी हड्डियों के ढेर पर विराजमान।

दोनों तरफ दो-दो भूतनियाँ बड़ी-बड़ी टहनियों से चंवर करती हुईं।

अरे! शायद भूतों का बादशाह है यह! अपने सामने कुश्ती करवा रहा है।

उस जीतू को मुट्ठी में दाबे वह बैताल एकाएक ऐसे रुक जाता है । जैसे वह इधर आकर गलती कर बेठा है ।

वह दिशा बदलने की सोच ही रहा था कि पीछे से उस बुड्ढे भूत ने पर आक्रमण कर दिया।

जीतू को अपनी उस मुट्ठी दाबे ही वह बैताल उस बुड्ढे भूत से लड़ रहा था। बीच-बीच में बूढ़ा बैताल के चंगुल से जीतू को छुड़ाना भी चाह रहा था।

इस बार बैताल ने बूढ़े भूत को अपनी एक लात से ऐसा मारा कि बुड्ढा फुटबॉल की तरह आसमान में उछल पड़ा और सीधे आकर भूतों के बादशाह के आगे गिरा।

“पकड़ो-पकड़ो! कौन है यह...? बादशाह चिल्लाया। शागिर्द दौड़ पड़े। “मैं आपका एक दास हूँ सरदार! बिम्बा नाम है मेरा।"

"तुझे मेरे पास फेंका किसने? किसकी ऐसी जुर्रत..! भाकोल (कुंडों के बीच का दैत्य) पकड़ो, देखो भाग न पाए वह..! कोई बिना इजाजत इधर आ घुसा है और शायद हमारी शक्ति को ललकारा है।

यह देख बिम्बा को यहाँ उछाल फेंका है।"

"अभी चरणों में हाजिर किया सरदार। एऽऽ- एऽऽ....., भाग मत! जला दूंगा साले। कोल्हू में पेर दूंगा।

“न-न-न...., भाकोल, न..... न........ न........" क्या न..... न...... न........न...... रे। चल सरदार के पास।

बैताल सरदार के सामने अपनी जिन्दगी की भीख माँग रहा था।

और बैताल को पकड़कर फौरन हाजिर किया"मुझे माफ कर दें सरदार, माफ कर दें।"

"यह तेरे हाथ में क्या है रे बैताल ?"

" “एक आदमी सरदार। यही बुड्ढा, अरे नहीं-नहीं, बिम्बा दादा इसे लिए हुए था।

मैंने कहा- दादा, मुझे भी थोड़ा खिलाना। नहीं हो तो थोड़ा खून ही पीने देना, पर इसने 'ना' कर दी। मैं कई दिनों से भूखा हूँ सरदार।"

“चुप साले, झूठा कहीं का।

कौन मेरी बस्ती में एक ऐसा एक भी भूत-पिशाच, डायन-कमायन, बैताल हैं, जो मेरे रहते भूखा मर सकता है।"

“ठीक कहते हो सरदार।

हमारी भूत बस्ती आम भूतबस्तियों से थोड़ी भिन्न अवश्य है।

यहाँ भूतों और पिशाचों की भरपूर मनमानी नहीं चलती है।"

"ठीक कहा बिम्बा। पर बोल असली बात क्या है ?"

"सरदार! इसके हाथ में जो आदमी है, इसने मेरी आज मदद की थी।

इस आदमी के मन में यह बात बैठ भी गई भी कि मैं मृतात्मा हूँ, बावजूद इसने मेरी पुकार पर मेरी मदद की।

मैं गिरा हुआ था, सो इसने उठाया।

झूठ क्या बोलूँ सरदार, इतना पर भी मैं इसका खून पीना चाहता था।

इत्मीनान के ख्याल से इसे अपने बंगले में ले जाना चाहता था, पर बीच में ही.. आगे की भी सारी कहानी बताई बिम्बा ने सरदार से।

अंत में हाथ जोड़ता बोला, “मुझे बाद में अपनी गलती का अहसास हुआ सरदार।

अतः मैं इसकी मदद करने लगा। हमें लोगों की मदद करने वाले को अपना शिकार नहीं न बनाना चाहिए सरदार ?"

"कदापि नहीं बिम्बा।

तुमने बड़ा अच्छा किया, जो इसे खाया नहीं और बचाया।

" (बैताल की ओर मुखातिब हो)- तुम्हें क्या सजा दूँ रे बैताल ?

जानते नहीं हमारा उसूल क्या है ?

कितना सुन्दर कर्म किया था कि आदमी रुप में हमारा जन्म हुआ था और अकाल मौत मरकर हमने कितनी भूलें की कि प्रेत योनि में आकर भटक रहे हैं।

न ही हमारी अन्येष्टि अच्छी तरह हुई, न ही विधिवत् श्राद्ध ही।

वह तो धन्य मनाएँ हम अपने दयालु आराध्य का, बना रहे हैं कि हम अपने जैसे और लोगों को नहीं बनाएँ।

हमारी कोशिश रहे कि हम कुछ ऐसा करें, जिससे प्रेतयोनि से छुटकारा पाकर किसी अच्छी योनि में हमारा जन्म हो।

' बैताल बीच में ही जीतू को जमीन पर धीरे से रख दिया था।

" जी जी सरदार! यही आपकी बात हमें गलत करने से रोक देती हैं।"

"पर क्या तुमने कम गलती की है बिम्बा। तुम जानते हो कि जब मेरा कहा हुआ है कि तुम सब किसी आदमी को पकड़ो तो सीधे हमारे पास हाजिर करो।

हम उससे अपनी प्रार्थना करेंगे।"

"जी-जी.. सरदार। बहुत बड़ी गलती हो गई।

अब आगे ऐसी गलती नहीं होगी सरदार।" "तुमलोगों में यही एक बड़ी खराब आदत है कि तुम सब अपने लोभ-लालच को रोक नहीं पाते।

अरे, हमें इस योनि से छुटकारा मिलने का उपाय न सोचना चाहिएँ" "बिल्कुल-बिल्कुल सरदार।"

"तो सिर्फ कहने से होगा कि करने से ?"

"करने से होगा सरदार।'

"तो फिर तुम सब तुरंत क्यों नहीं यह सब करते ?

हम पहले ही सबको बता चुके हैं कि हमें आदमी को पकड़कर उसका शिकार नहीं करना है, प्रार्थना करनी है कि वह हमारे लिए इतना कष्ट अवश्य करें कि हमारा विधिवत् श्राद्ध कर दे।

हाँ, इसके लिए उसे इतना भर भयभीत अवश्य कर देना है कि वह अगर ऐसा नहीं करेगा तो उसके साथ-साथ उसके सारे परिवार का हम भूत खून चूस जाएँगे।

और लोग हमारे लिए ऐसा करते ही हैं।"

"भाकोल..! इस आदमी को तुम निश्चेतन अवस्था से पूर्ण चेतना में लाओ।"

"जो हुक्म मेरे आका।" भाकोल इतना कहकर जीतू को पूर्ण चेतना में लाया।

साथ ही सरदार ने एक मंत्र पढ़कर उस पर एक फूंक मारी, जिससे कि जीतू यह सब देखकर डरे नहीं।

तत्पश्चात् जीतू से बोला; "हे आदमी! हम आपसे एक प्रार्थना करते हैं कि आप कम से कम हमारे दो आदमियों का विधिवत् श्राद्ध कर दें।

इसके पूर्व हमारे पुतले बनाकर हमारी अन्त्येष्टि भी करें।

क्या आप हमारे लिए इतना कर सकते हैं ? काफी उपकार होगा आपका हमपर।"

अवश्य! मैं वादा करता हूँ कि मैं दो क्या, इस बाबा के अतिरिक्त दो और लोगों के लिए विधिवत् कार्य करूँगा।

"धन्यवाद, हम लाख-लाख आभारी हैं हमारे उपकारी।

आप इस और इसकी (बैताल और एक किसी अन्य को इशारा कर) ताड़ना के लिए वे सारे उपाय अवश्य करेंगे।

पर एक बात के लिए हमें माफ करेंगे, हमारे पास आपके खाने-पीने के योग्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिससे हम आपका स्वागत करें।"

"सरदार! इससे बड़ा उपकार हमारे लिए क्या होगा, जो आप हमें इतना भर कहकर जिन्दा छोड़ दे रहे हैं।"

"हमारी एक ओर बड़ी आपसे प्रार्थना होगी हमारे ताड़नहार कि आपमें से कोई भी अकाल मौत न मरे।

आप किसी बात को लेकर क्रोध मत करें।

क्रोध विवेक नष्ट कर देता है और पछतावे के अलावा कुछ नहीं बचता हमारे पास।

आप न ही फाँसी लगाएँ, न जहर खाएँ।

जीवन जीएँ और लोगों को भी जीने दें। परिस्थितियों का सामना करें।

"हमें बड़ी प्रसन्नता हुई सरदार। आप तो मेरे गुरु समान लगते हैं।

ठीक तो मुझे विदा दीजिए, मैं अपनी दीदी के घर जाना चाहता हूँ।"

"अभी एक मिनट में आप दीदी के घर होंगे रहनुमा, चिन्ता न करें।" और सच में जीतू क्या देखता है कि वह अपनी बहन के घर पहुँचकर अपनी दीदी के पैर छू रहा है।