दोपहर के दो बज रहे थे।
पसीने से पूरी तरह नहाया था।
धूप चिन-चिन कर रही थी। सूरज तो जैसे आग बरसा रहा था।
प्यास के मारे इतना बुरा हाल था कि लगता था अब प्राण निकल आएँगे।
कैसी नौबत आई यह।
आज इस शरीर को भी क्या हो गया कि इतना जल्द हार मानने को तैयार है।
कैसी-कैसी धूप सही है इसने।
पाँच साल से तो इसी रास्ते आ-जा रहा हूँ। अंधड़, पानी, पत्थर, धूप इत्यादि के तो भयंकर-भयंकर रुप देखे और झेले हैं।
पर, आज तो बिल्कुल ही बुरी हुई जाती थी।
कुआँ-कल तो दूर, पेड़ की छाँट भी तो वहाँ ही जाने पर मिलगी।
उसकी छाँह तले हलक तो नहीं भीगता पर धूप और पसीने से ज्यादा शरीर ठंडाने की जरुरत बुझी।
सहसा मैंने दिशा बदल दी।
आगे के रास्ते पर तो पेड़ दूर-दूर पर, पर इधर, जिधर रास्ता नहीं है, नजदीक पर एक पेड़ तो है।
था तो वहाँ एक कुआँ भी, पर वहाँ बाल्टी वगैरह नहीं रहता था।
पानी नहीं भराने के कारण उस कुएँ का पानी जमका हुआ था।
उस पेड़ की छाँह में जाते ही उसके सूखे पत्तों पर हाथ-पैर छितराकर लेट गया और हाथ में ली हुई कापी को मुँह के सामने डुलाने लगा।
अचानक देह गनगना गई और तभी इत्र की तेज खुशबू आने लगी।
हालाँकि इत्र तो मैंने भी लगा रखा था, पर उसकी महक तो इतनी नहीं होगी, लगभग उड़ चुकी होगी इसकी सुगंध।
खैर, इस पर मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया।
सोया ही था कि मेरे कान में पायल बजने की आवाज सुनाई दी।
भय, आश्चर्य और रोमांच के कारण मेरी आँखें फट गईं।
साहस कर बैठा तो क्या देखता हूँ कि अठारह-बीस साल की एक युवती इधर की ही ओर आ रही है।
आँखें और फट गई। दिल जोर से धड़क उठा। साँस की गति तेज हो गई। भय, रोमांच आदि में एक बार गोता गया।
वह युवती अब मेरे पास आकर गजब मुद्रा में खड़ी हो गई।
कुछ पूछने का मुझमें साहस कहाँ! फिर साँसें भी तो अनियंत्रित थीं।
'प्यास लगी है आपको?"
'आपको कैसे मालूम?''अनियंत्रित साँसों के बीच ही मैंने धड़कते और डरे दिल से उस युवती के प्रश्न का उत्तर दिया।
“यह भी कोई पूछने की बात है, इस तपस में तो हलक हरदम सूखे रहते हैं फिर यहाँ भूतों की बस्ती पानी का कोई साधन भी हो नहीं।
इसलिए स्वाभाविक रुप से मैंने ऐसा पूछा है। उस युवती ने मुस्कुराकर सहज भाषा में मुझसे मेरी बात का उत्तर दिया।
"तो क्या पानी का प्रबंध आप कर सकती हैं ? सहसा मैं बोल पड़ा।'लीजिए, पीजिएँ पानी का तो क्या, आप कहें तो जन्नत का प्रबंध कर दूं।" यह क्या, अभी थोड़ी देर पहले तो उसके हाथों में कुछ नहीं था, पर यह थर्मस कहाँ से आ गया।
मैं विस्मित नेत्रों से उसकी तरफ देख भी रहा था कि उसने वह थर्मस का ढक्कन खोलकर मेरे आगे मुझे पानी पिलाने के लिए झुक गई।
मैंने पानी पीने के लिए अंजुलियाँ बनाकर अपने मुँह के पास रखीं।
सहसा मेरी आँखों में नशा छाने लगा।
उसकी कमीज से झाँकती दोनों पुष्ट छातियों पर मेरी नजरें टिक गईं।
एकाध घूट के बाद, सारा-का-सारा पानी नीचे गिरता रहाँ कुछ देर के बाद सहसा ध्यान आया कि यह छोटा-सा थर्मस उतना पानी लिए हुए है कि इतनी देर के बाद उसका पानी समाप्त नहीं हो रहा है।
इतना सारा पानी जमीन पर भी बहा है। अब मुझे वह लड़की कुछ विचित्र-सी लगी।
तब मैंने अपने आपको गजब स्थिति में पाया। मैं निष्प्राण सा वहाँ लेट गया।
वह लड़की मेरे बगल में आकर बैठ गईं। धीरे-धीरे मैं गजब-सा होने लगा।
मेरी पलकें झपकने लगीं और कुछ देर बाद बंद हो गई।
मैंने अनुभव किया कि एक सुंदर से कमरे में मखमली सोफे पर उस युवती के साथ सोया होकर रतिक्रिया कर रहा हूँ।
बाद में मैं किस प्रकार अपने घर पहुंचा, मुझे अच्छी तरह याद नहीं।
मेरी वैसी मनोदशा देखकर घर के लोग थोड़ा चिंतित हुएँ मैं उन्हें कुछ भी बता पाने में असमर्थ था।
ऐसा सबको कुछ भी बता पाने का साहस ही न होता था। लगता था जैसा वह सब हकीकत में नहीं, स्वप्न में हुआ है।
पर मेरे अंदर उस लड़की को लेकर बेचैनी बढ़ने लगी थी। लगता था जैसे उससे प्रेम हो गया है।
दूसरे दिन मुझे थका-थका देखकर मेरे घरवालों ने मुझे स्कूल जाने से मना किया।
पर मैंने जिद की मैं स्कूल जाऊँगा ही, मुझे कुछ नहीं हुआ है। जबकि शरीर में थोड़ी से ज्यादा थकान थी।
विद्यालय जाने के क्रम में जब मैं उस रास्ते के पास पहुँचा तो स्वाभाविक रुप से उस जगह को खींचता चला गया। अब उस जगह से किसी लड़की के गाने की आवाज सुनाई पड़ने लगी।
अहा! कैसी मधुर और रमणिक आवाज है। सुनता था कि ऐसा स्वर्गलोक की अप्सराएँ गाती हैं। पर वह गानेवाली है कौन? और कहाँ से गा रही है ?
अब मैं उस कुएँ के पास पहुँच गया। सहसा आवाज बंद हो गई। मैं इधर-उधर गजब मुद्रा में देखने लगा।
तभी वह युवती मेरे सामने कैसा लगा आपको मेरा गाना?" के बाद आ गई। पूछा, “अरे बहुत अच्छा।
आप जितनी सुन्दर है, उतना अच्छा गाती भी हैं।" इतना कहने मेरे माथे पर बल पड़गएँ यह वही तो लड़की है जो कल यहीं मिली थी और उसके साथ मैंने।
"कुछ सोच रहे हैं आप? शायद की कल की बातें ?
आपने कैसे जाना ?" दिल से दिल की बातें जानना बड़ा आसान होता है।" इतना कहकर वह गजब मुद्रा में मुस्कुराई।
अब मैं कुछ कहना ही चाह रहा था कि घटा की गरजन ने मेरा ध्यान ऊपर को खींच लिया।
देखा- आकाश में लगातार बिजलियाँ चमक रही हैं। घटाएँ तेजी से इधर से उधर हो रही है।
धूप तो थोड़ी देर पहले बंद ही हो गई थी। साँय-साँय बहती हवा मेरे शरीर को आनंद ही आनंद प्रदान कर रही थी।
तभी मैं बारिश का ख्याल करके कह बैठा, "लगता है जोरों की बारिश होनेवाली है। मुझे घर भागना चाहिएँ"
"उसका भय क्यों करते हैं, यहाँ बारिश नहीं होगी।" उसके इतना कहने के बाद मूसलाधार बारिश शुरु हो गई।
पर यह क्या! इसके चार बीत्ते की जगह पर एक बूंद भी बारिश का पानी नहीं।
"आपकी आँखें झपक रही हैं, क्या आप सोना पसंद करेंगे ?"मैंने सहज रुप से 'हाँ' में सिर हिला दिया। क्योंकि वास्तव में मेरी पलकें भारी हो रही थीं।
फिर हैरत का उमड़ा रैला। एक सुन्दर- सा पलंग कीमती चेकदार चादर से सजा उस जगह था।
उसने मेरे हाथ खींचकर उस पलंग पर लिटा दिया और खुद बगल में आकर सो गई।
मेरे बालों में हाथों से कंधियाँ करने लगी तो मस्ती का आलम उमड़ आया मेरे अन्दर।
और मैं पुनः रतिक्रिया में निमग्न हो गया। लगा जैसे मैं सोकर उठा हूँ। वहाँ न वह लड़की थी, न पलंग। मैं टूटी देह लिए अकेला खड़ा था।
धीरे-धीरे घर की ओर चल पड़ा, क्योंकि विद्यालय का समय समाप्त हो चुका था।
घर आने पर मैंने अपने परिवार के किसी भी सदस्य को वह बात न बताई। सच पूछिए तो वह कहने की जबान ही न खुलती थी।
उसके बाद लगभग वह सिलसिला मेरा प्रतिदिन का जारी रहाँ विद्यालय न जाकर या जाकर भी उस जगह को जरुर चला जाता और वह लड़की विभिन्न रूपों में मेरे समक्ष होती और अंतिम परिणति रतिक्रिया में होती।
धीरे-धीरे मैं कमजोर होता चला गया। मेरी देह पीली पड़ने लगी। तब मुझे घर से विद्यालय मना हो गया। दवा-दारु की गई पर कुछ विशेष सुधार न हुआ।
जाना चार-पाँच दिन तो सब ठीक-ठाक रहाँ फिर अचानक रात को घर में ही अपने बिस्तर पर मैंने उस लड़की को सोया पाया।
चिल्लाना चाहा, पर आवाज कहाँ। और फिर वह लड़की रात्रि के तीसरे पहर तक मेरे साथ बिछावन पर सोई रही और इस क्रम में तीन बार उसके साथ सहवास किया।
सुबह उठा तो मैं अपने बिस्तर पर अकेला था और देह आज सबसे ज्यादा टूट रही थी। मैं तो गजब भंवर में पड़ चुका था। जहाँ नाव और तट रहते हुए भी सहायता लेने में मैं असमर्थ था।
अब प्रतिदिन का यही सिलसिला जारी रहने लगा। रात को सोता तो वह लड़की मेरे साथ मेरे बिछावन पर सोई होती।
और जाने-अनजाने मैं उसके साथ संभोग में लिप्त रहता।
अब मेरी निर्बलता देखकर मेरे घर में तरह-तरह की चर्चाएँ होने लगीं। आधे से ज्यादा लोग कहते हैं यह (मैं) गंदी आदतों का शिकार हो गया है। जैसे- हस्तमैथुन क्रिया में लिप्त होना या फिर किसी के साथ शारीरिक संबंध बनाएँ रखना।
कुछ लोगों का खासकर दादी माँ आदि का कहना होता कि मैं किसी प्रेत-व्रत के चक्कर में पड़ गया हूँ। अब मुझ पर कड़ी निगरानी रखनी जाने लगी।
कहीं बाहर जाने पर मुझे सख्त मनाही हो गई।
माँ तो रात को मेरे साथ ही सोने लगी। फिर तीन-चार दिन पिछले दिनों की तरह ठीक-ठाक रहा ।
पर एक दिन ऐसा हुआ कि वह लड़की आई और माँ की उपस्थिति में ही मुझे अपनी बाँहों में उठाकर कहीं जाने लगी।
मैं चिल्लाने क्या, कुछ भी बोलने में असमर्थ था। फिर एक कोने में ले जाकर मेरे साथ उसने अपनी वासना की प्यास बुझाई।
कल, परसों, तरसों, अब उसी प्रकार का क्रम जारी रहने लगा। माँ बिछावन पर साथ ही रहती और वह मुझे उठाकर ले जाती और रतिक्रिया करवाती।
मैं यह तो जरूर जानता कि वह मुझे उठाकर ले जा रही है और वैसा करवा रही है, पर बिछावन पर मैं किस प्रकार लौटकर आता, मुझे चेतना नहीं होती।
जब शरीर से बिल्कुल खिन दिखने लगा तो दादी माँ पूरे परिवार पर गरज पड़ी, “इक घर के मर्द तो इतने होशियार और काबिल बनते हैं कि हमारी कोई सुनता ही नहीं।
बड़े चले हैं नए जमाने के आदमी बनने।
क्या तो हम अंधविश्वासी हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना कुछ हैं ही नहीं।
मैं तो बिल्कुल कहती हूँ कि इसे कोई रोग नहीं हुआ है, न ही यह बुरी आदतों का शिकार है, ओझा-गुनी से दिखलाओ अगर वह सब नहीं निकला तो मैं अपनी नाक काटकर रख दूंगी।
" दादी माँ की इस बात पर माँ, चाची, भाभी सभी खुलकर सामने आ गईं। -
आपका कहना बिल्कुल ठीक है अम्मा। बउआ को और कुछ नहीं हुआ है।
सिर्फ ऊपर-झापड़ है। चाची की इस बात पर लगे हाथ भाभी ने अपना पक्ष रखा, ऊपर-झापड़ नहीं है तो और क्या है।
बौआजी कितने भले हैं, यह सब हमसे छिपा है, इतना मजाक करती हूँ पर कभी कुछ बोलते हैं, लजाकर भाग जाएँगे। " तो और क्या,
अबर हमारे घर के महिला वर्ग ने अपनी जीत पाई।बाबूजी, भइया लोगों को भी कुछ-कुछ इस प्रकार का संदेह होने लगा। फिर क्या था, एक दिन दादी ने ही अपनी मायके से एक अच्छे ओझा को बुलवा लिया।
रात के करीब नौ बज रहे थे। देहात का वातावरण था।
इसलिए लगभग सारा गाँव सो रहा था।
मेरे घर में जागरण इसलिए पड़ा था कि ओझा जी ने अपने मंत्र से इसी समय इलाज करने का मुहूर्त रखा था।
ओझा जी ने जो चीजें लिखवाई थीं, बाबूजी ने वह सब बाजार से मँगवा ली थीं।
बच्चे छोड़कर मेरे घर के सभी लोग जाग रहे थे। मुझे कुश की चटाई पर बिठाया गया और ओझा जी ने अपना कार्य शुरु किया।
सबसे पहले उन्होने मेरे ऊपर अक्षत छींटे। अब मेरे साथ क्या हुआ मुझे कुछ पता नहीं।
बाद में मेरे परिवार ने जो मुझे बतलाया था उसका सार यही है कि मैं प्रेत बाधा में ही पड़ गया था।
जिसने पहला दिन मुझे पानी पिलाया था और फिर उससे तरह-तरह के उसके साथ बात-व्यवहार हुए वह दरअसल एक भटकती हुई आत्मा थी।
उसका बगल के ही एक गाँव में घर था। वह उसी गाँव के युवक से दिल लगा बैठी थी और नादानीवश शारीरिक संबंध भी बना लिया।
जब वह गर्भवती हो गई और इस बात का पता उसके माँ-बाप को चला तो बदनामी की वजह से अपनी बेटी को उसी कुएँ में जान से मारकर फेंक दिया था।
क्या तो मैं ही झूम-झूमकर यह सब उगल रहा था।
ऐसा तो मैं पूरी तरह नहीं जानता था।
पर इस तरह की कुछ भनक दो-ढाई वर्ष पहले पाई थी। पर क्या तो उस पूरे इलाके में यह बात फैल गई थी।
पुलिस ने आकर उस लड़की की लाश निकाली थी और बाद में पहचान होने पर उसके माँ-बाप और उसके प्रेमी को जेल की हवा भी खानी पड़ी थी।
उस दिन के बाद से मुझे न कभी स्वप्न में न कभी हकीकत में उस लड़की के दर्शन हुएँ ओझा के झाड़ने के बाद मुझे दवा-दारु भी हुई थी।
कीमती-कीमती विटामिन दवाएँ भी खाई- पी थीं। दो महीने के अंदर-अंदर ही मैं पूरी तरह स्वस्थ हो बैठा था।
अब भी मेरे घर में इसके संदर्भ में उसी प्रकार विरोधी मत उठते रहते हैं- एक तो मुझे भूत-प्रेत ने ही पकड़ा था, दूसरा कि जिस दिन ओझा जी झाड़ रहे थे, उस दिन मेरा भूत नहीं, मेरा मनोरोग बोल रहा था।
मैं तो लजालु, संकोची या फिर कुछ इस प्रकार का व्यक्ति हूँ कि जिसके चलते अपने परिवारवालों को कुछ भी बताने में अक्षम हूँ।
खैर, धीरे-धीरे उसका ख्याल मन से उतरता गया और अब वह सबकुछ तो बिल्कूल भूल गया हूँ।
स्वस्थ मन और स्वस्थ शरीर से पढ़ाई-लिखाई में लगा हूँ।