भूत चाचा

भूत चाचा की कहानी - Bhoot Chacha Ki Kahani

बरसात का मौसम हो, गर्मी का हो या फिर हो कड़ाके से कड़ाके भरे ठंड का रामधन का बिना गंगा-स्नान किए खाने का सवाल ही नहीं उठता।

चाहे वह कितना काम में क्यों न हो।

यानी- सालों भर दो मील पैदल चलकर गंगा-स्नान करने के उपरांत ही अनाज का एक निवाला भी अपने मुँह में डालते थे।

इस क्रम में पानी, चाय, शर्बत जैसे पेय पदार्थों से उन्हें परहेज न था।

गंगा-स्नान करने की प्रवृत्ति उनकी धार्मिक कट्टरता की वजह से न थी, वरन् आनंदाभूति के कारण उन्होंने अपनी रुटीन ऐसी बना ली थी।

या यों कहें कि रुटीन बन गई थी। वे कहते थे कि गंगा-स्नान करने पर असीम आनंद आता है।

साथ ही भोजन भी काफी स्वादिष्ट लगता हैं। इधर कुछ दिनों में रामधन एक नये आनंद के साथ गंगा स्नान करने जाते थे। उनके वंश

का एकमात्र चिराग चंदन अब बड़ा हो गया था।

लगभग 6 वर्ष का। यह चंदन उनके छोटे भाई शिवधन का इकलौता बेटा था।

रामधन के कोई संतान न थी, न ही होने की कोई आशा थी। सिर्फ उनकी एक पत्नी।

उनके छोटे भाई शिवधन को शादी के 12 वर्ष बाद भी कोई संतान न हुई तो पूरा परिवार खानदान बुझ जाने के शोक और गम में डूबा रहता था।

पर तेरहवें वर्ष में चंदन ने जन्म लेकर उनके खानदान के बूझते हुए दीपक को बचा लिया था।

इस तरह की औरतों का स्वभाव कहिए या फिर निःसंतानी पीड़ा का दुष्प्रभाव ये अपनी जेठानी देवरानी की संतानों से ईर्ष्या करने लगती हैं।

रामधन की पत्नी भी अपनी देवरानी के इकलौते बेटे चंदन को देखकर जलते रहती है।

उसे तनिक भी तब न और सुहाता है जब उसका पति उसे प्यार करता है, उसमें भी बिल्कुल अपने बेटे की तरह।

रामधन की पत्नी को लगता है, उसकी तरह उसका पति भी चंदन को देखकर जले, पर वह अपने के डर और स्वभाव के मारे खुलकर कह न सकती हैं।

इधर, रामधन, कोई गम नहीं करता।

व्यर्थ पीड़ा, बेकार की सोच, घुट-घुटकर जीना यह सब वह करना नहीं चाहता।

वह जान गया है, वह पितृसुख अब नहीं पा सकता, तो फिर बेटा-बेटी क्यों रटता रहे।

रामधन अपने भतीजे चंदन को नहला लेता है, अपने गमछे से पूरा देह-हाथ पोंछ लेता है, कपड़े पहना देता है, तब जाकर स्वयं नहाने के लिए जाता है।

नहा-धोकर दोनों चाचा-भतीजे घर आते हैं और एक साथ एक ही थाली में खाते हैं।

और रामधन की पत्नी का तो बस देखकर जलना।

रोज की तरह आज भी रामधन अपने भतीजे को लेकर गंगा-स्नान को चला था।

आज भी उसने पहले अपने भतीजे को नहलाया, उसकी देह पोंछने लगा। देह पोछवाते चंदन बोला, "चाचा! चाचा! आप मुझे कब तैरना सिखलाएँगे ?

रोज ऐसे ही टालते जाते हैं।" रामधन उसके बाल पोंछते बोला, " जरा और बड़ा हो जाओ बेटा, फिर तुम्हें मैं तैरना सिखला दूंगा।"

चंदन लगा पैर पटकने। लगा करने नखरे" नहीं आपको मुझे कल ही सिखलाना होगा। बोलिए, सिखलाइएगा न ?

नहीं तो मैं पैंट-गंजी नहीं पहनूँगा और आपके साथ सोऊँगा भी नहीं।

आपने माथे को झटककर दूर जा छिटका था चंदन और रोने लगा था।

"अच्छा आओ बेटा, कल सिखलाने की कोशिश करूँगा।" रामधन उसे मनाने लगे। "कोशिश नहीं, पहले वादा कीजिएँ।"

रामधन कुछ देर चुप रह गएँ फिर सोचा- बच्चों के जिद की आगे अपने झूठे-सच्चे वादा का क्या अर्थ।

यह कल की न बात है। देखा जाएगा। आज तो मना लूँ। तत्पश्चात् बोले- अच्छा ठीक है।

वादा करता हूँ। कल से सिखलाना शुरु करुंगा। अब तो पैंट पहनोगे न ?"

"चाचा, अब मैं अपनी माँ और बाबूजी के साथ कभी न सोऊँगा, रोज-रोज सिर्फ आपके साथ चाहे चाची कितने भगाएगी।

माँ कितनी डाँटे फिर न मानूँगा। आप मुझे बहुत मानते हैं। बालक चंदन को तैराकी सीखने का काफी मन था।

वह रोज-रोज अपने चाचा को इसके लिए

जिद करता था और चाचा वही रोज-रोज कुछ-कुछ कहकर टालते जाते थे।

आज जब उसने जान लिया कि उसके अच्छे चाचा उसे तैरना सिखलाएंगे तो ऐसा बोलते हुए उनके पास सहर्ष रुप से जा खड़ा हुआ था और उनके आगे अपने बाल पोंछवाने के लिए अपना सिर झुका दिया था।

रामधन को एकाएक पेट के पास से तीव्र गति से रुलाई जा फूटी थी, पर उसने होंठों पर आते-आते रोक लिया।

और फिर वह रुलाई होंठों और नाकों पर भरभराकर धीरे-धीरे गुम होने लगी।

वे चंदन के बाल पोंछते हुए दो-तीन प्रकार के बड़े-छोटे भावों से गुजर रहे थे। पहलाअगर प्यार दो तो सभी अपने। उसमें भी बच्चों का कहना ही क्या।

दूसरा..... एक छोटा यह भी कि चंदन अगर उनके तन से...।

रामधन जैसे ही भावों से निकलकर बाहर आए, अपनी आँखें पोंछी और गंगा में अनमने ढंग से स्नान करने के लिए प्रवेश कर गएँ

वे आज नहाने में तनिक भी आनंद न पा रहे थे।

इसलिए अन्य दिनों की तरह आज वे जल-क्रीड़ा करने का मन नहीं था। पाँच डुबकियाँ जल्द-जल्द लेकर वे तट पर चढ़ने लगे।

पर चंदन यह कैसे पसंद कर सकता है।

नहाने के बाद वह उकरु बनकर विभिन्न पोजों में नहाते अपने चाचा को देखने में वह जो आनंद पाता है, उसे अपने चाचा की तैराकी पर जो गर्व होता है, वह इसकी बड़ाई जो अपने यार-दोस्तों से करते थकता नहीं है, आज अपने चाचा को ऐसे ही रह जाना पसंद कैसे करेगा।

सो चिल्लाया चंदन, “चाचा, आपको ऐसे नहीं चढ़ने देंगे, तैरे आज क्यों नहीं। जाइए तैरकर दिखलाइएँ।"

"नहीं बेटा, आज तैरने का अन नहीं है। कल तेरे साथ दोनों दिनों के बदले तैर लूँगा। उदास और घबराए मन से बोले।

"नहीं..नहीं.., यह कैसे हो सकता है।

आपको तैरना होगा।" चंदन रोने लगा था। "अच्छे बच्चे जिद नहीं करते।

कहा न आज तैरने का जी नहीं है।" डाँटते हुए बोले रामधन ।

"नहीं, मैं अच्छा लड़का नहीं हूँ। मैं गंदा हूँ। आप जब तक न तैरेंगे, मैं यहाँ से जाऊँगा नहीं।" चंदन ने जिद रोप दी।

अंत में लाचार होकर रामधन को पानी में लौटना पड़ा।

वे न जाने क्यों, आज तैरते-तैरते अपनी सीमा से ज्यादा दूर तक तैरते चले गएँ चंदन को काफी आनंद आ रहा था।

वह वहीं से जोर-जोर से चिल्लाकर उन्हें ललकारते लगा।

"और दूर चाचा, और दूर तक जाइएँ अरे , बाप रे...! मेरे चाचा वहाँ तक तैरते चले गएँ आज मैं रामू, श्यामू, उदित, बंसी सबसे कहूँगा. ..मेरे चाचा दूर, बहुत दूर..., एकदम वहाँ तक चले गए थे।

" चंदन खुशी के मारे एकदम से उछल रहा था।

पर आज तो बेचारे रामधन के लिए अबोध बालक की जिद काल ही बनकर आई थी।

वे लौटने के क्रम में अपने हाथ-पैरों को एकाएक एकदम से निष्प्राण महसूस करने लगे।

घबराहट चरम सीमा पर आ गई। धैर्य से निर्बल हो गएँ पानी के अंदर चले गएँ कई घुट पानी - पिया गया।

एक बार विवेक रखकर लिया भगवान का नाम।

झाड़ा हाथ-पैरों को। उन अंगों ने पाया कुछ काबू। ऊपर आकर लगे तैरने।

पर दस-बारह कदम बाद फिर वही स्थिति। और अबर एकाएक डूब गएँ हमेशा के लिए....।

बालक चंदन कुछ देर तक उनके निकलने के लिए अपनी एकटक आँखों से उन्हें देखता रहाँ वह सोच रहा था- चाचा ने लम्बी डूबी लगाई है।

सहसा यह सोच उसकी नजर को एकदम से घाट के किनारे ला दिया- डूबी मारे-मारे उसके चाचा सीधे यहीं पर निकलेंगे।

पर न उन्हें निकलना था, न निकले। चंदन बहुत देर तक अपनी आँख उनके डूबने की जगह और तट पर फेंकता रहा, पर अपने चाचा को न पाया।

दूर से दो आदमी हल्ला करते हुए वहाँ दौड़ते आ पहुँचे।

उनलोगों ने एक जगह पर बैठे हुए एक आदमी ने रामधन को तैरते और डूबते हुए देख लिया था।

चंदन ने सुना तो उसे झूठ लगा। तब तक तीन-चार लोग और दौड़े आए थे।

चंदन उनसे बोला" क्यों चिल्लाते हैं आप सब। मेरे चाया बहुत बड़े तैराक हैं। वे डुब्बी मारे हुए हैं।

देखिएगा.. एकाएक वे यहीं पर (घाट के नजदीक) निकलते हैं कि नहीं।" चंदन की अबोधता पर लोगों को तरस आया।

साथ ही जाना कि यह (चंदन) उसका (रामधन )भतीजा है।

लोग आपस में चर्चा करने लगे, “अब कोई जाकर भी क्या कर सकता है, जि. थोड़े बचा होगा वह।" "हाँ, जिन्दा बचने का कोई तो सवाल ही नहीं उठता।

"..."कहाँ का आदमी था, हम तो कुछ जानते भी नहीं, न ही इस लड़के को पहचान रहे हैं।

हम तो इस लड़के को पहचान रहे हैं।

एक मोट-मोटे आदमी, लाल, गोरा करीब 40-45 वर्ष का रोज इसे (चंदन को) अपने कंधे पर लेकर नहाने आता था।

(चंदन से पूछते) वही न तुम्हारे चाचा है रे बाबू?" "मेरे चाचा सबसे अच्छा हैं।

वही मुझे सबसे ज्यादा मानते हैं। चाची नहीं मानतीं मुझे। वे मुझे भगा-भगा देती हैं। चाचा अपने साथ खिलाते हैं, अपने साथ सुलाते हैं।

बाबूजी से भी ज्यादा मानते हैं। (कुछ रुककर), पर अभी तक निकले क्यों नहीं है ? उस घाट पर नदी के दूसरे किनारे पर चले गए क्या ? तीन-चार हैं न वहाँ। जाकर देखिएँ बुला लाइए उनको।

चंदन की इन बातों पर सबका दिल रोने लगा। हिम्मत न होती थी अब लोगों की कि उससे कहे कि अब तुम्हारे चाचा कभी भी या कहीं भी मिल सकते हैं।

कुछ देर तक लोग एक-दूसरे को मौन निगाहों से देखते रहे।

तत्पश्चात् एक आदमी ने विवेक से काम लिया। बोला, “बेटा तुम्हें जानकारी है, तुम्हारे चाचा कहाँ होंगें ? नहीं न ? पर मैं बताता हूँ।

वे डूबी मारे-मारे उधर की ओर से उस घाट (पूरब की तरफ इसी किनारे का इशारा कर) पर निकले। वहाँ उनके परिचय का एक आदमी मिल गया।

एक जरुरी काम की बात बतलाकर उन्हें अपने साथ लेता गया। जाते समय तुम्हारे चाचा ने मुझसे कहा कि आप उसे मेरे घर पहुँचा देंगे।

इसलिए बेटा, चल तुम्हें मैं तुम्हारे घर पहुंचा देता हूँ।

चंदन कुछ देर चुपचाप उनका मुँह ताकता रहा, फिर उधर मुँह घुमाकर नदी की तरफ देखने लगा।

फिर कुछ सोचने लगा। और फिर तब उस आदमी की तरफ मुँह करके बोला, “तो चाचा डूबी मारे-मारे एकदम से वहाँ (एक दूर घाट का इशारा करके) निकल गए थे। बाप रे!

इतना दूर! आज तो और लोगों से कहूँगा।

कुछ देर रुककर बदलते भाव में, “पर बिना कहे चाचा क्यों चले गएँ हमको साथ क्यों नहीं ले गए।

अच्छा तो आज उनके साथ खाऊँगा नहीं, सोऊँगा भी नहीं।"

जिस आदमी ने चंदन को पहचाना था, उसने एक आदमी से साइकिल ली और उसे उस पर बैठाकर उसके गाँव की तरफ उसके घर पहुँचाने चल पड़ा।

रास्ते में चंदन उससे खूब भोली-भाली, निश्छल बातें करता गया और वह आदमी उसका मन बहलाता गया।

आगे साइकिल बढ़ाता देख जोर से

अपने घर को पहचान कर साइकिल सवार को चिल्लाया चंदन,-"अरे! आगे कहाँ जा रहे हैं।

यह रहा मेरा घर। रोकिए-रोकिए साइकिला"

आदमी साइकिल रोकने लगा।

रुकने से पहले ही चंदन साइकिल से उतरकर घर के अंदर चला गया। पहुँचा और बड़बड़ाने लगा, "माँ! माँ! अब मैं चाचा के साथ न कभी खाऊँगा, न ही उनके साथ कभी सोऊँगा ही।

आज मुझको धोखा देकर भाग आए हैं। अब तुम्हारे साथ ही सोऊँगा माँ। अब उनसे बात भी न करूँगा।"

रामधन की पत्नी यह सब सुनकर अंदर-ही-अंदर बड़ी खुश हुई- भगवान करे, मुआ तेरी बुद्धि ऐसी हो। दिन-रात ये इसी में फँसे रहते हैं।

इससे भी तो इन्हें सीख मिले। अपना बेटा-बेटी न हो तो दूसरे के लेकर आदमी चाटेगा। ये भी पूरा बेवकूफ हैं।

पर दूसरे ही क्षण रामधन की पत्नी के तो होश ही उड़ गएँ उसके साथ-साथ पूरा परिवार गश्त खाकर गिर पड़ने को हुआ।

एकाएक दहाड़ पड़ी रामधन की पत्नी, "हाय रे बाप, यह कैसी आग लगी ईश्वर! अब मैं किसके सहारे जीऊँगी रे बाप? कौन देगा मुझे सहारा ?

इस कलमुँहे के कारण इनकी जान चली गई।" हाथ पटक-पटकर उसने अपनी सारी चूड़ियाँ फोड़ डालीं।

अबोध बालक क्या समझे, विशेष। वह अपनी चाची के पास आकर बोला, “आप रोती क्यों हैं चाची? चाचा को हुआ क्या है।

वे तो तैरते हुए वहाँ तक, बड़ी दूर तक चले गए थे मेरे कहने पर। ऐसे तो वे रोज ही मुझे तैरकर दिखायें।

फिर देख ही रहा हूँ कि यहाँ डूबी मारकर निकलें, यहाँ डूबी मारकर निकलेंगे और वे निकले भी तो एकदम. उस घाट पर (एक तरफ हाथ से इशारा कर) और फिर वहाँ से मुझे छोड़कर भाग गए (भाव बदलकर) पर कम-से-कम आज उनसे बोलूँ- चलूँगा नहीं।"

इस निष्कपट और नादान बालक की बात सुन उसकी चाची लगभग शेरनी की भाँति उस पर टूट पड़ी, “हत्यारे! और कहता है मुझे तैरकर दिखाते थे।

तेरे ही कहने पर वे दूर-दूर तक तैरकर जाते थे और आज तूने उन्हें डूबा ही दिया। आज मैं तुम्हें भी नहीं छोडूंगी।" बोलती हुई चंदन की गर्दन पकड़ लेती हैं।

चंदन पीड़ा महसूस कर गर्दन छुड़ाते बोलता है, “चाची! चाची! यह क्या करती हैं ?

छोड़िए मेरी गर्दन। मैं क्यों चाचा को डूबोऊँगा ?' " नहीं छोडूंगी आज मैं तुझे। मेरे पति को तूने ।

ही डुबोया है। चल, बड़ा प्यारा था न उनका, वहीं पर पहुँचा देती हूँ तुझे भी।"

ऐसा देख चंदन की माँ अपने बेटे को छुड़ाने आती है। वह छुड़ाती हुई बोलती है, "छोटकी! यह क्या पागलपन करती है।

इतना प्यारा चाचा और यह उन्हें कुछ करेगा, उसमें भी इतना छोटा बच्चा किसी बड़े को डुबा सकता है क्या ? चुप हो जा। क्या करोगी, भगवान को यही पसंद था।"

“छिः। लाज नहीं आती बोलने में। चुप रहने को कहती है मुझे।

बड़ी होकर सिन्दूर और चूड़ियाँ दमका रही है और मुझे विधवा देखना चाहती है।"

ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें सुन कुछ क्षण चुप रहती है चंदन की माँ। पर उसकी ताजा टीस समझकर बोलने को तैयार होती है," मैं ऐसा क्यों चाहूँगी छोटकी। उनके न रहने से मेरा चंदन तो टूअर समान हो जाएगा।"

सब ऊपर-ऊपर की बात है। तुम्हें भी बड़ी खुशी मिली होगी। पर समझ जा, नीलाम कर दूँगी खेत, पर घर भर भी न लिखूगी। हाय रे मेरा हीरा.....' फिर जार-बेजार रोने लगी चंदन की चाची।

उस दिन के बाद से जब भी उसे चंदन अकेला मिलता, कभी गर्दन पकड़ लेती, कभी खूब मारती और नासमझ की तरह यही कहती, “तूने ही उन्हें डुबाया है।

मैं तुम्हें भी जिन्दा न बचने दूंगी।" चंदन बार-बार चाचा-चाचा कहकर रोते रहता था।

उसे लगता था- अगर उसका चाचा डूब गया है तो वह उसी घाट के आसपास कहीं जरुर होगा।

एक दिन घर से भागकर चंदन गंगा के उसी घाट पर गया और 'चाचा-चाचा' कहकर पुकारने लगा।

जब कोई जवाब न पाया तो बैठकर खूब रोने लगा। रात होने लगी तो हारकर घर लौट पड़ा। इस तरह से तीन-चार दिनों पर चंदन उस घाट पर जाता और अपने चाचा को ढूँढता।

उन्हें रोकर, गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करके अपने पास आने को कहता। पर कोई सफलता हाथ नहीं लगती।

इधर उसकी चाची का वही गुस्सा उसे देखने को मिलता।

आज वह कुछ निश्चय करके गंगा के उस तट पर गया था।

अन्य दिनों की भाँति आज भी जब उसने अपने चाचा को काफी कुछ पुकारा और कोई परिणाम न पाया तो गंगा में प्रवेश कर गया।

प्रवेश कर जोर से बोला, “चाचा, अगर आप नहीं मिलिएगा तो मैं आप ही के पास आ रहा हूँ।'

और वह डुब्बा पानी में जाने लगा। सहसा उसने एक आवाज सुनी, “चंदन! यह क्या करते हो बेटा। आगे मत जाओ, डूब जाओगे।"

चंदन की खुशी का ठिकाना न रहा- अरे! यह तो उनके चाचा की आवाज है। पर वे हैं कहाँ ?" वह वहीं पर रुककर आँखें घूमाकर अपने चाचा को देखने लगा, पर कहीं कुछ दिखलाई न पड़ा।

वह चिल्लाया, आप कहाँ हैं चाचा, मेरे पास आइए?" "मैं तुम्हारे पास नहीं आ सकता बेटे और न ही अब तुम्हें कभी दिखलाई ही पढूँगा। मैं

अब दूसरी दुनिया में चला गया हूँ, जहाँ आदमी नहीं होते।

पैर पड़ता हूँ चाचा आप इस दुनिया में आइएँ नहीं तो मुझे भी उस दुनिया में ले चलिएँ

"नहीं बेटा, अभी तुम्हें सौ साल से ज्यादा जीना है।

जा लौट जा घर को। पढ़-लिखकर अच्छा बनना ताकि मेरी भी आत्मा को शांति मिले।

“नहीं चाचा, आप जब तक न आइएगा। मैं कुछ न करुंगा।

आज से जो थोड़ा-बहुत भी पढ़ता हूँ, वह भी छोड़ दूंगा। आइए चाचा! मुझे आपके बिना तनिक मन नहीं लगता है और चाची कहती हैं- मैंने ही आपको डुबा दिया है। झूठ बात है न चाचा ?"

“हाँ मेरे प्यारे बेटे। तू क्यों मुझे डूबोएगा। तेरी चाची मूर्ख हे, तभी न तरह-तरह के दुख पाती हैं।"

"और जानते हैं चाचा, मुझे वे खूब मारती हैं। कहती हैं- मैं तुम्हें गंगा में डुबाकर ही रहूँगी।

तू भी अपने चाचा के पास चला जाना। आप पानी ही में न हैं चाचा ?"

"हाँ बेटा, मैं पानी में ही हूँ। जा अब तू लौट जा। शाम हो गई है। "नहीं आपको मेरे पास आना ही होगा।

पहले आप चाची को समझा दीजिए, फिर कुछ कीजिएगा।" चंदन अपनी जिद पर अड़ने को तैयार हो गया।

“कहा न, मैं तुम्हारे पास नहीं आ सकता। जाओ लौट जाओ चुपचाप से घर।" भूत चाचा कुछ क्रोधित हो गए थे।

"नहीं कभी नहीं जाऊँगा। अकेले कभी नहीं जाऊँगा।" चंदन अपनी जिद पर अड़ा रहाँ। "नहीं जाआगे तो आओ मेरे पास।

हिम्मत है...?" परीक्षा लेनी चाही भूत चाचा ने। "हाँ बिल्कुल हिम्मत है।" और चंदन गहने पानी में चला गया।" और भूत चाचा को

मजबूरन उसके सामने आना पड़ा।

चंदन का अपने भूत चाचा को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहाँ वह उनसे खूब लिपट गया।

उसे ऊपर करके उसके भूत चाचा अपनी दुनिया में जाना चाहते थे, पर चंदन ने उनसे स्पष्ट कह दिया- आप साथ न चलेंगे, तो मैं किसी कीमत पर घर लौटने वाला नहीं। फिर पानी में डूबने लगूंगा।

रात हो चुकी थी। भूत चाचा अपना रुप बदलकर अपने भतीजे को उसके घर पहुंचाने चल दिएँ ज्योंही घर पहुँचने वाला हुआ चंदन कि अपने भूत चाचा को छोड़कर चिल्लता हुआ घर में प्रवेश किया, “माँ! माँ! आ गए भूत चाचा।

देखो चाची, मैं चाचा को लेता आया हूँ।

कहीं ऐसा भी हो सकता है- भूत सबको दीख जाएँ और लोग भी एक बच्चे की ऐसी बात को सच मान लें।

पर जो भी हो, चंदन के माता-पिता कौतूहलवश घर से बाहर देखने निकल पड़े।

रामधन की पत्नी के बारे में कहना क्या! कुलटा छोड़कर कौन ऐसी पत्नी होगी, जो पति का मरना इतना जल्द भूला डालेगी।

उसकी संवेदना, उसकी टीस बात-बे-बात सुलगती रहती है। सो चंदन की ऐसी आवाज सुनकर गिरती-पड़ती बाहर निकली रामधन की पत्नी।

पर वहाँ थोड़े था उसका मरा हुआ पति। उसे लगा- यह एक बीत्ते का लौंडा उसे चिढ़ाना चाहता है।

दर्द में आकर उसने चंदन के माता-पिता की उपस्थिति में ही खूब पीटा।

जब उसकी माँ अपने बेटे को छुड़ाकर भीतर ले गई, तब ही कहीं जाकर छोड़ा और घर में जाकर किवाड़ बंद कर फूट-फूट कर रोने लगी।

पर चंदन भी चुप बैठने वाला न था। वह अपने चाचा के प्यार में इतनी भर जीत हासिल कर चुका था कि किसी प्रकार का कोई डर उनसे न मानता था।

साथ ही अपनी बात मनवाकर ही छोड़ता था।

वह फिर गया उसी प्रकार गंगा तट और फिर किया वही काम और फिर उसी प्रकार प्रकट हुए उसके भूत चाचा और फिर उसी प्रकार की जिद रोप दी उनके भतीजे ने।

पर जाने से पहले स्पष्ट कर दिया भूत चाचा ने कि वह उसे घर तक अवश्य पहुँचा देगा, पर उसकी चाची को कभी दिखाई न देगा।

इस पर बालक चंदन ने अपने साथ चाची का उस दिन का व्यवहार बताया और कहा कि आप सिर्फ चाची से जाकर कह दें कि मैंने आपको कुछ नहीं किया है।

भूत चाचा काफी असमंजस में पड़ गएँ साथ ही अपने प्यारे भतीजे के बारे में यह भी सोचा कि इस पर उसकी मूर्ख पत्नी का यह कलंक मिटेगा कैसे ?

अंत में वे निर्णय लेकर बोले कि ठीक है मैं तुम्हारी चाची को यह सब बात बता दूंगा।

पर घर पर नहीं, उसे तुम्हें यहीं पर बुलाकर लाना होगा। और चंदन किसी तरह करके अपनी चाची को उस घाट पर बुला ही लाया।

फिर अपने चाचा को पुकारकर बोला, "भूत चाचा! चाची आई हुई हैं। आप इन्हें सब कुछ बता दीजिएँ"

थोड़ी ही देर में उसके भूत चाचा की आवाज सुनाई पड़ी,“ कल्याणी तुम इतनी मूर्खता क्यों करती हो, इतना प्यारा भतीजा मेरा कोई अनिष्ट कर सकता है।

वह भी इसमें इतना बल है जो मुझे जबरदस्ती डूबा देगा। मेरी इतने ही दिनों की आयु थी इस दुनिया में।

जाओ तुम सब घर और चंदन को प्यार भरी नजरों से देखो। इसे अपना मानो।"

बात समाप्त ही हुई थी रामधन की आत्मा की कि विह्वल और व्याकुल होकर उसकी पत्नी हाथ जोड़कर उससे प्रार्थना करने लगी," आप कहाँ है, हमें दिखाई क्यों न देते।

जरा मेरे पास आइएँ कैसे मैं आपके बिना जी पाऊँगी। आप जो कहेंगे, उसे सर माथे लूँगी। एक बात भी न टालूंगी आपकी।

अब आप मेरे पास आइए और हमेशा के लिए साथ रहिएँ आप मरे नहीं हैं।" यह बात गलत है कल्याणी। अब मैं इस दुनिया में नहीं हूँ।

मैं तो चंदन की अबोधता और तेरे कारण उस पर लगे कलंक को मिटाने के लिए सिर्फ बोल भी पाया हूँ। दिखाई तो मैं दे नहीं सकता।"

कल्याणी ने बहुत बार विनती की, बहुत बार हाथ-पैर जोड़े पर उसका मृतक पति उसके पास आने को तैयार न था। पर जब उसने उसके साथ ही जल समाधि लेने की बात कही, तब प्रकट हुआ उसका मृतक पति।

पर पानी में ही। और बोला, "कल्याणी! मुझे खुशी हुई, तेरे मन का मैल और दुर्गुण समाप्त हो गए हैं। पर तुम्हें मेरी कसम।

तुम जल समाधि लेकर मूर्खता मत करो। जीवन जीने का नाम होता है। सती होना कोई बहुत अच्छी बात नहीं। फिर पता थोड़े हैहम सब साथ ही रहेंगे।

अरे एक-न-एक दिन सबको इस दुनिया से नाता तोड़ना ही है। पर जितने दिनों तक जीएँ, सार्थक होकर जीएँ। जाओ, मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि तुम्हारा जब-जब मन होगा, मैं तुम्हें दर्शन दे दिया करुंगा।

मेरी अकाल मौत तुम सबका कुछ न बिगाड़ेगी। चंदन भूतों की बस्ती को अपने बेटे समान मानो और आनंदपूर्वक जीवन गुजारो।"

अपने मृतक पति की इन बातों को सुनकर कुछ देर अपलक देखती है कल्याणी अपने भतीजे चंदन को। फिर अपनी गोद में बिठा लेती है और काफी प्यार करती है।

ऐसा देख उसका मृतक पति बहुत खुश होता है। “अब मेरी आत्मा को बहुत शांति मिलगी।

साथ ही तेरा अगला सतीत्व भी बलवान होगा। तुम अगले जन्म में चिर सधवा रहेगी।

बेटा चंदन! तुम भी अपनी चाची का बहुत ख्याल रखना।

माँ से कम न समझना। तो अब मैं चलता हूँ, तुम सबका जब मन होगा- यहीं पर आकर पुकारना, मैं प्रकट हो जाऊँगा।" और फिर गायब हुआ कल्याणी का मृतक पति और चंदन का भूत चाचा।"

कुछ देर अपलक उधर ही देखती रही कल्याणी, टप!टप! आँसू बहाती रही।

फिर अपने भतीजे चंदन को गोद में उठाया और चल पड़ी अपने घर की तरफ।