बेदीग्राम में महादेव नामी एक सुनार था ।
वह सारा दिन अपनी भट्ठी के आगे बैठा ढकढक करता हुआ खरे को खोटा करता रहता था ।
न-जाने कितने ग्राहकों के सोने में कतर-ब्योंत और मेल-मिलावट उसने की थी ।
उसका कुनबा बहुत बड़ा था-दर्जनों नाती-पोते, बेटे-बाले।
पर उसे किसी का सुख न था ।
उसे अपने घर में दो वक्त आराम की रोटी भी नसीब न होती थी ।
गाँववाले भी उससे कटे-से, चिढ़े-से रहते थे ।
बेटे निकम्मे थे,-उसी की मेहनत और कमाई पर निर्भर रहने वाले ।
उसके पास पिंजरे में एक तोता था, बस यही उसका रात-दिन का साथी था।
उसी के साथ महादेव की आवाज थोड़ी-थोड़ी देर पर गूँजती थी - सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता!
हर बेकली , हर मुसीबत में यह मंत्रोच्चारण ही उसे शाॉति देता था।
एक दिन किसी लड़के ने पिंजरा खोल दिया और तोता उड़ गया ।
महादेव पिंजरा साथ लेकर उसे ढूँढने भागा ।
पेड़ों पर, बाग में जहाँ-जहाँ वह तोता दिखाई देता वहीं महादेव पहुँचता और 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता का मंत्रोच्चारे कर तोते के आगे अनुनय-विनय करता कि वह पिंजरे में आ जाए !
आधी रात को आमों के बाग में जब उसने जोर से यह मंत्रोच्चार किया तो एक वृक्ष के नीचे बैठे कुछ चोर डरकर भाग खड़े हुए ।
महादेव ' चोर चोर, पकड़ो पकड़ो' चिल्लाया तो चोर और भी जोर से भागे और पीछे मुड़कर भी न देखा ।
महादेव उस पेड़ के नीचे गया तो सैंकड़ों मोहरों से भरा कलश पाकर बहुत खुश हुआ ।
वह कलश छुपाकर अपने घर ले आया |
तोता भी पेड से उतर कर उसके पिंजरे में अपने आप गया
पंडित-पुरोहित को बुलाया, सत्यनारायण की कथा का आयोजन हुआ ।
शाम को गाँव के हज़ारों लोगों के आगे उसने कहा-' भाइयों, जिस !
किसी को लेन-देन में या सोने के खरे-खोटे के हिसाब में मुझसे कुछ लेना बाकी हो, अपना पाई-पाई ले ले, मैं किसी का कुछ बकाया नहीं रखना चाहता - एक महीने तक अपना बकाया ले लें ।'
महादेव गाँव में शिवालय, तालाब, कुआँ आदि बनवाने का भी संकल्प करता है ।
वह अब सबकी आवभगत, सेवा-सत्कार में लगा रहता है । '
इस घटना को हुए पचास वर्ष बीत चुके हैं ।
बेदीग्राम में ठाकुरद्वारा, पक्का तालाब और उसके पास ही एक समाधि देखी जा सकती है ।
समाधि आत्माराम का स्मृति-चिह्न है ।
उसके संबंध में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं....लोग कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के किनारे आवाज आती है -
सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता
राम के चरण में चित्त लागा ।
महादेव के संबंध में भी कितनी ही जन-श्रुतियाँ हैं ।
उनमें सबसे मान्य यह है कि आत्माराम के समाधिस्थ होने के बाद वह कई संन्यासियों के साथ हिमालय चला गया, और लौटकर न आया |
उसका नाम आत्माराम प्रसिद्ध हो गया !