बैर का अंत

बड़े भाई सिद्धेश्वर राय की मृत्यु पर रामेश्वरराय और विश्वेश्वरराय

उनके क्रियाकर्म के खर्च के लिए सांझे की जमीन रहन रख तीन सौ रुपये कर्ज लेते हैं ।

रामेश्वरराय की हालत बहुत पतली बनी रही ।

वह जमीन छुड़ाने में असमर्थ था।

विश्वेश्वराय ने अपने पास से तीन सौ रुपये देकर जमीन रहन से छुड़ा ली और बडे भाई रामेश्वरराय से कहा कि डेढ़ सौ रुपये देकर जब चाहें आधी जमीन ले लेना ।

विश्वेश्वर बड़ा चालाक है और रामेश्वर सीधा ।

विश्वेश्वर ने अपने भाई के क्रिया-कर्म और दाह-संस्कार पर भी सौ रुपये खर्च किये थे और रामेश्वर को पूरे तीन सौ खर्च हुए, बतलाया था ।

अब वह सारी जमीन स्वयं हड्पना चाहता था ।

इसीसे उसने सारी ज़मीन अपने कब्जे में कर खाद-पानी-जुताई आदि से उसे सोना बना लिया और खूब बढ़िया फसलें हासिल करने लगा ।

रामेश्वर देखता और हाथ मलता रह गया ।

तीस साल बीत गए, वह कभी 50 रुपये जुटाकर आधा हिस्सा जमीन न ले सका |

रामेश्वरराय का लड़का जागेश्वर जवान हो गया ।

उसने ठेला आदि चलाकर मेहनत से कुछ अच्छी कमाई कर ली तो वह 50 रुपये लेकर अपने चाचा के पास आधी ज़मीन लेने गया ।

विश्वेश्वर ने टका-सा जवाब दे दिया-“इतने दिनों कान न हिलाए, अब, जब मैंने ज़मीन सोना बना दी तो हिस्सा बाँटने आए हें !"

जागेश्वर ने बहुतेरा जोर दिया और कहा-* सोना बनाई है तो उसकी फसलें भी तो पाई हैं, सीधी तरह दे दीजिए वरना....।”

पर विश्वेश्वर न माने ।

जागेश्वर ने स्वर्गीय सिद्धश्वरराय की इकलौती लड़की तपेश्वरी को मुकदमे के लिए राजी कर लिया और उसकी ओर से विश्वेश्वर के विरुद्ध दावा ठोंक दिया, खर्चा खुद उठाया ।

मुकद्दमा हाईकोर्ट तक चला ।

अंततः तपेश्वरी को उसका हक मिल गया ।

मुकद्दमे के खर्चे उठाने में जागेश्वर टूट गया ।

उसने सोचा था कि मुकद्दमा जीत जाने पर ज़मीन से वही लाभ उठाएगा, बुआ को कुछ रुपये देता रहेगा, पर तपेश्वरी उसे ज़मीन नहीं सौंपती बल्कि पूरी वसूली पर ज़मीन जोतने पर उठाती है ।

जागेश्वर और रामेश्वर की माली हालत दिनोंदिन बिगड़ती गई ।

वे मेहनत-मजदूरी से किसी तरह गुजर-बसर कर रहे थे ।

विश्वेश्वर की माली हालत तो अच्छी थी पर उसके दो छोटे-छोटे लड़के थे जो उसके बाद उसका काम नहीं संभाल सकते थे ।

इधर कुछ दिनों से विश्वेश्वर बीमार रहने लगे ।

बैर के कारण रामेश्वर और जागेश्वर उसके पास तक न फटके |

एक बार मरने से पहले विश्वेश्वर ने उन्हें बुलाया भी, और जागेश्वर ने सोचा भी कि अंतिम घड़ी में चाचा ने बुलाया है तो जाना चाहिए, पर बैर-भाव के कारण रामेश्वर ने मना कर दिया ।

विश्वेश्वर चल बसे, जागेश्वर के मन में आत्मग्लानिजन्य दुख हुआ |

जागेश्वर चाचा की मृत्यु के बाद अपनी विधवा चाची और बच्चों की असहायावस्था देखता है तो चुपचाप उनकी देखभाल और सहायता में जुट गया ।

जागेश्वर की पत्नी ईर्ष्याविश कहती है-“मुझे तुमने कया सुख दिया ?

पहले आदमी दीया अपने घर में जलाता है ! बैरी की संतान कभी अपनी नहीं होती ।"

पर जागेश्वर तो अब सारा बैरभाव भूल चुका था, बोला- बैर का अंत बैरी के जीवनांत के साथ हो जाता है ।”