बेटों वाली विधवा

एक माता की दर्दनाक कहानी - एक मातृमूर्ति

आज पं. अयोध्यानाथ की तेरहवीं है,

ब्रह्म-भोज और बिरादरी भोज के लिए उनके चार जवान बेटे और बहुएँ उनकी विधवा पत्नी फूलमती ,

यानी बेटों की माँ की मर्जी के विरुद्ध आधी कटौती कर देते हैं ।

फूलमती ने पाँच बोरे आटा और दस कनस्तर घी मँगाने को कहा था, पर बेटे लाते हैं तीन बोरे आटा और पाँच कनस्तर घी ।

इसी तरह सारा सामान आधा कर दिया गया |

फूलमती ने बड़े बेटे कामतानाथ से कहा-“यह किफायत इस मौके पर मेरी मर्जी के खिलाफ क्यों की ?

अरे, जिसने यह कुआँ खोदा, उसी की आत्मा पानी को तरसे, यह कितनी लज्जा की बात है !”

पर उसकी बात सुनकर अनसुनी कर दी गई !

असल बात यह है कि पिता के मरते ही बेटों और बहुओं ने अपनी माँ और सास को अधिकार-च्युत्त कर किनारे बिठा दिया था।

भोज में खाने में मरी हुई चूहिया निकल आई ।

सारी पंगत खाना छोड़कर चली गई, घर की थू-थू हुई, बुढ़िया सब देखती , जल-कुढ़ कर रह गयी !

बेटों-बहुओं के दिल पर कुछ असर नहीं हुआ । पं. अयोध्यानाथ दो बाग, एक पक्का मकान, हजारों के गहने और बीस हजार नकद छोड़ गए थे ।

माँ से पूछे बिना, उसकी मर्जी बिना बेटों ने पंद्रह हजार रुपये में बाग, पचीस हजार में मकान बेच डाला और नकद बीस हजार सब बराबर-बराबर चार हिस्सों में बाँट लिए ।

वे कुँवारी बहन कुमुद के विवाह पर एक हजार से ज्यादा खर्च करना नहीं चाहते,

इसी से पिता द्वारा तय किये हुए पं.मुरारीलाल के यहाँ कुमुद के विवाह की बात तोड़ डाली-क्योंकि वहाँ पाँच हजार नकद देना तय हुआ था ।

उन्होंने अपनी माँ की मर्जी के विरुद्ध चालीस बरस के अधेड्‌ पं. दीन दयाल के साथ कुमुद का विवाह कर दिया । माँ-बेटी बेबस आँसू बहाती रह गईं ।

उन चारों बेटों ने अपनी माँ का कोई कानूनी अधिकार न मानकर उसे फूटी कौड़ी का भी बाप की सम्पत्ति में दावेदार नहीं रखा,

अपितु छल-कपट कर छोटे भाई दयानाथ को जेल जाने से बचाने के लिए जमानत देने की झूठी बात बनाकर - माँ का स्त्रीधन उसके गहने भी उड़ा लिए !

माँ को कंगाल बना डाला । सब मिलकर _ उसे कहते हैं - कानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है ।

माँ का हक्‌ केवल रोटी-कपड़े का है ।” फूलमती झुब्ध हो गई भाड़ में जाए ऐसा कानून !

मैंने घर बनवाया, संपत्ति जोड़ी , तुम्हें जन्म दिया, पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ ?

मनु का यही कानून है ?तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो !”

हताशा-निराशा, आत्म-वेदना और आत्म-पीडा के सिवा कोई और रास्ता फूलमती के पास न था ।

वह बेटों-बहुओं से बेगर्ज होकर नौकरानी बनी घर के काम-काज में जुटी रहती थी ।

अंत में वह अपने बड़े बेटे के लिए गंगा से गंगाजल लेने जाती है ।

घड़ा जल से भरा, उठाया, पर हाय ! पाँव फिसल गया !

देखते-ही-देखते बुदिया गंगा की लहरों में समा गई ! चिर-मंगला,

चिर-वत्सला मातृमूर्ति जवान बेटों वाली विधवा ने बेटों-बहुओं के निर्मम होने पर भी बेटों के लिए ही जान दे दी !