गुप्तघन

बाबू हरिदास ईंटों के पजावे का मालिक है ।

बहुत-से मजदूर उसके पजावे पर ईंटें ढोते हैं और हरिदास एक ईंट ढोने की मजूरी एक कौड़ी देता है ।

कई दिन से एक बालक मगनसिंह वहाँ लगन से मजूरी करता है ।

हरिदास को उसकी हालत पर दया आई ।

एक बार जब वह तीन दिन गैर-हाजिर रहा तो हरिदास उसका पता करने पास के गाँव में उसके घर गए, देखा, उसकी माँ रोगग्रस्त मरणासन्न है ।

मगन ने बताया कि माँ आपसे मिलना चाहती थी ।

मगनसिंह की माँ ने बाबू हरिदास से कहा-“बाबूजी, क्या कहूँ, कभी अच्छा घर था, आज पुरानी समृद्धि का खण्डहर बना हुआ है ।

मगन को आपके भरोसे छोड़े जा रही हूँ ।

पुरखों की एक थाती धरती में गड़ी है - शायद इसी दिन के लिए ।

बहुत दिनों से उसका बीजक नहीं मिल रहा था, अब मिला है, इस संदूक से निकालकर बांच लेना ।

पता करके खुदवा लेना और मगन को दे देना । आपका बड़ा उपकार होगा ।”

बीजक से हरिदास को पता चल गया कि 500 डग पश्थचम में एक पुराने मंदिर के चबूतरे के नीचे धन गड़ा है ।

हरिदास की नीयत बदल गई ।

उसने सबसे यह बात छुपा रखी और रात के अंधेरे में चबूतरे के नीचे खुदाई करने लगा ।

कई दिनों तक चुप-चाप रात को खोदने के बाद आखिर धन मिलने की आशा हुई ।

पर आत्मग्लानि और पाप के डर से हरिदास ने रोगग्रस्त हो बिस्तर पकड़ लिया ।

उसने मगनसिंह से यह सब छुपा रखा ।

आखिर पाप का घड़ा डूब गया, हरिदास बिना धन निकाले ही चल बसे ।

बीजक उनके पुत्र प्रभुदास के हाथ लगा ।

वह अपने बाप से भी ज्यादा लोभी था ।

उसे एक दिन का भी सब्र नहीं था ।

उसी रात को दो बजे बारूद लगाकर उसने चबूतरे के नीचे का तहखाना ब्लास्ट कर डाला ।

दस हजार पुरानी मोहरों से भरा संदूक निकाल लिया |

एक सुबह प्रभुदास अपने कमरे में लेटे थे , आँखें उस संदूक की ओर थीं , पर पथराई हुईं ।

पाप की ग्लानि से अपने बाप की तरह प्रभु दास भी धर-थर काँप रहे थे, उनका शरीर ठंडा पड़ रहा था, पर आँखें उसी संदूक की ओर लगी थीं ।

घर में कोहराम मच गया । जीवन की तृष्णा और मृत्यु की वितृष्णा में संघर्ष हो रहा था ।

इतने में मगनसिंह सामने आ गया ।

प्रभुदास की बेबस निगाह उस पर पड़ी । इशारे से अपने पास बुलाया ।

उसके कान में कुछ कहा, संदूक की ओर इशारा किया और आँखें उलट गईं , प्राण निकल गए !