हरिधन की माता का देहान्त हुए आज दस साल हो गए ।
वह सोलह साल का था और उसका विवाह हो चुका था ।
पर माँ की स्नेह-छाया के न रहने से वह जैसे निस्सहाय हो गया ।
नई माँ के आने से एक काली घटा-सी, एक अंधकार का परदा-सा उसके जीवन पर पड़ गया ।
वह एक दिन घर से निकला और ससुराल चला आया ।
पिता की मृत्यु के बाद ही एक बार वह अपने घर गया और अपने हिस्से की जायदाद बेचकर दो हजार की रकम ससुराल में ले आया |
ससुराल में आने पर उसे सास से फिर मातृ-स्नेह का आनंद मिलने लगा था ।
अब दो हजार देने से तो उसका दूना आदर-सत्कार होने लगा ।
लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए, उसका मान-सम्मान घटता गया ।
पहले देवता था, फिर घर का आदमी , अंत में घर का दास हो गया ।
रोटियों में भी बाधा पड़ गई ।
अपमान होने लगा ।
वह सारा दिन कोल्हू के बैल की तरह खटता, खेतों में मेहनत करता , घर आता तो कोई भूखे को रोटी भी न पूछता ।
अभी उसकी उम्र ही क्या थी । इतनी उम्र इस घर में कैसे कटेगी ?
और तो और उसकी स्त्री ने भी आँखें फेर लीं !
'हरिधन के दो जवान साले थे ।
अब वे अपने को घर का मालिक समझते थे और हरिधन को फालतू आदमी ।
सास और साले अब उसके मुँह पर ही कहने लगे थे-' हमने कोई उम्र-भर का ठेका लिया है ?
दो हजार देकर क्या हमें खरीद ही लिया ?'
छोटा साला बोला- मैं तो एक दिन कह दूँगा, अब आप अपनी राह लीजिए, आपका कर्जा नहीं खा रखा है ।”
हरिधन की पत्नी गुमानी भी भाइयों और माँ की हाँ में हाँ ही मिलाती और पति की बुराई करती ।
'दस साल हो गए, एक पीतल का छलल्ला तक नहीं बनवा | कर दिया!
' सास साफ- साफ कह देती है-' तुम मेरे बेटों की बराबरी कैसे कर सकते हो ?'
आखिर तंग आकर हरिधन ने वहाँ से चले जाने का निश्चय किया ।
पत्नी गुमानी से पूछा-“ साथ चल रही हो ?'
वह पूछती ही रहती है कि कहाँ जाओगे ?
पर साथ नहीं जाती ! हरिधन अपने घर को चला ।
अपने गाँव, अपने घर पहुँचकर वह कितना खुश हुआ !
बचपन की सारी यादें, सारी खुशियाँ लौट :आईं । वह अपने पुराने साथी मंगरू से गले लिपट गया !
गाँव की अमराइयाँ , खेत-खलिहान जैसे उसका स्वागत करने को लपक रहे थे !
घर में विमाता के रूप में उसे अपनी स्नेहमयी माता के दर्शन हुए ।
माता और उसके दो छोटे-छोटे लड़के उसे सर-माथे लेते हैं !
घर के कोने-कोने में . मातृ-स्मृतियों की छटा चाँदनी की भाँति छिटकी हुई थी ।
वह अगले ही दिन से कंधे पर हल रखकर खेतों में जुट गया ।
उसके मुख पर उल्लास था, आँखों में गर्व । वह अब किसी पर आश्रित नहीं था, आश्रयदाता था, किसी के घर का भिक्षुक नहीं, रक्षक था ।
एक दिन हरिधन ने सुना कि गुमानी ने दूसरा घर कर लिया ।
वह प्रसन्न हुआ क्योंकि उसे डर था कि कहीं गुमानी उसके गले न आ पड़े ।
वह अब पूर्ण स्वतंत्र था और अपने घर का मालिक था, घर-जमाई नहीं ।