अमरकांत शादी के बाद पहली बार होली के अवसर पर ससुराल जाने की तैयारी करता है ।
अपने मित्र मैकूलाल के सुझाव पर वह 'एक पारसी महिला की सुंदर साड़ी देखकर वैसी ही सुंदर साड़ी पत्नी के लिए उपहार ले जाना चाहता है ।
साड़ी विलायती थी और केवल हाशिम की दूकान पर मिल सकती थी ।
अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध वहाँ कांग्रेस के स्वयंसेवकों ने विलायती कपड़ों के विरुद्ध पिकेटिंग कर रखी थी ।
अमरकांत की दूकान के अंदर जाने की हिम्मत न हुई ।
किसी तरह वह पिछले द्वार से अंदर जाकर साड़ी खरीद लाया ।
अब पिछले द्वार पर भी स्वयंसेवक जमा हो गए थे पर अमरकांत उनके रोकने से बचकर बेतहाशा भाग निकला ।
लेकिन तीन स्वयंसेवकों ने उसके पीछे भागकर उसे घेर लिया, साड़ी का पैकेट छीन लिया |
सहसा एक युवती खद्दर की साड़ी पहने वहाँ आ पहुँची ।
उससे अमरकांत ने शिकायत के लहगजे में कहा-' इन लोगों ने मेरा साड़ी का पैकेट छीन लिया है, यह सरासर डाका है ।
मैंने यह अपने लिए नहीं खरीदा, एक महिला की फरमाइश थी , इसलिए मजबूर था।'
युवती बोली-' देखिए विलायती वस्तुएँ खरीदना कया कोई अच्छा काम है ?
आपने उन महिला को समझाया क्यों नहीं ?'
अमरकांत झेंप गया ।
महिला ने नाम-मुहल्ला पूछा , तो मन-ही- सन जान गई, ओह ! तो मेरे ही पति अमरकांत हैं ।
बोली-' क्यों साहब, आपकी पत्नी तो आपके यहाँ नहीं है, फिर किसकी फूरमाइश है ?
अमरकांत और भी लज्जित हुआ ।
वह भी समझ गया-अपनी _ ही पत्नी का सामना है ।
उसने झट अपनी पत्नी सुखदा के ही सामने दियासलाई लगाकर वह विलायती साड़ी जला डाली |
अगले रोज अमरकांत खुद खद्दर पहने , स्वयंसेवक बना हुआ पिकेटिंग करता दिखाई दिया और गिरफ्तार हो गया ।
जब औरतें देश-प्रेम के इस महायज्ञ का बीड़ा उठाए हुए हैं, तो वह मर्द होकर कैसे पीछे रह सकता था ?